अब न खोलता हूँ, मैं दर उधर का,
न जाने वो, रास्ता है किधर का?
कभी उस तरफ, था ये दिल हमारा,
तन्हा सा रहा, वहाँ वर्षों बेचारा!
तृष्णगि थी, दिल में रही ये कमी थी,
मेरे ही काम की, न वो ज़मीं थी!
अन्जाने शक्ल थे, अपना न था कोई,
भीड़ में वहीं, ये आत्मा थी खोई!
वैसे तो रोज ही, कई लोग थे मिलते,
रंगीन थे मगर, ग॔धहीन थे रिश्ते!
छोड़ आया हूँ, कहीं पीछे मैं वो शहर,
मन की गाँव सा, है ना वो शहर!
न कोई जानता, है मुझको अब उधर,
बड़ा ही अजनबी सा, है वो शहर!
अब न खोलता हूँ, मैं दर उधर का,
न जाने वो, रास्ता है किधर का?
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
न जाने वो, रास्ता है किधर का?
कभी उस तरफ, था ये दिल हमारा,
तन्हा सा रहा, वहाँ वर्षों बेचारा!
तृष्णगि थी, दिल में रही ये कमी थी,
मेरे ही काम की, न वो ज़मीं थी!
अन्जाने शक्ल थे, अपना न था कोई,
भीड़ में वहीं, ये आत्मा थी खोई!
वैसे तो रोज ही, कई लोग थे मिलते,
रंगीन थे मगर, ग॔धहीन थे रिश्ते!
छोड़ आया हूँ, कहीं पीछे मैं वो शहर,
मन की गाँव सा, है ना वो शहर!
न कोई जानता, है मुझको अब उधर,
बड़ा ही अजनबी सा, है वो शहर!
अब न खोलता हूँ, मैं दर उधर का,
न जाने वो, रास्ता है किधर का?
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा