Tuesday, 11 February 2020

रुग्ध मन

दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!

बहकी घटा,
हलकी सी छुवन,
गुम ये मन!

खिलती कली,
हिलती डाल-डाल,
क्षुब्ध ये मन!

 सुरीली धुन, 
फिर वो रूनझुन, 
डूबोए मन!

बहते नैन,
पल भर ना चैन, 
करे बेचैन!

गाती कोयल,
भाए न इक पल, 
करे बेकल!

 वही आहट,
वो ही मुस्कुराहट,
भूले न मन!

खुद से बातें, 
खुद को समझाते,
रहे ये मन!

अंधेरी रातें,
फिर वो सौगातें,
ढ़ोए ये मन!

ना कोई कहीं, 
कहें किस से हम,
रोए ये मन!

दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
----------------------------------------------
हाइकु - कविता की एक ऐसी विधा, जिसकी उत्पत्ति जापान में हुई और जिसके बारे में आदरणीय रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी ने कहा कि "एइ कवितागुलेर मध्ये जे केवल वाक्-संयम ता नय, एर मध्ये भावेर संयम।" अर्थात, यह सिर्फ शब्द संयोजन नहीं, इसके मध्य एक भाव संयोजन है।

Sunday, 9 February 2020

तुम जो गए

तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!

लेते गर सुधि,
ऐ, सखी,
सौंप देता, ये ख्वाब सारे,
सुध जो हारे,
बाँध देता, उन्हें आँचल तुम्हारे,
पल, वो सभी,
जो संग, तेरे गुजारे,
रुके हैं वहीं,
नदी के, वो ठहरे से धारे,
बहने दे जरा,
मन,
या
नयन,
सजल, सारे हो गए, 
तुम जो गए!

तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!

सदियों हो गए,
सोए कहाँ,
जागे हैं, वो ख्वाब सारे,
बे-सहारे,
अनमस्क, बेसुध से वो धारे,
ठहरे वहीं,
सदियों, जैसे लगे हों,
पहरे कहीं, 
मन के, दोनों ही किनारे,
ये कैसे इशारे, 
जीते,
या 
हारे,
पल, सारे खो गए, 
तुम जो गए!

तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 8 February 2020

सपने

अजीब होते हैं, ये कितने...
बंद होते ही आँखें, तैरने लगते हैं सपने!
क्षण-भर को, कितने लगते ये अपने,
समाए कब, खुली पलकों में,
जागे से पल में, गैर लगे ये कितने!
विस्मित करते, ये सपने!

सपने ना होते, तो होती ना आशा,
कहीं ना रहता, ये मन बंधा सा,
उभरते ना, रंग कहीं उन ख्वाबों में,
रोशनी, होती न अंधियारों में,
यूँ, कल्पनाओं में, गोते ना खाते,
यूँ गीत कोई, पंछी ना गाते,
यूँ, खिलती ना कलियाँ, 
यूँ भौंरे, डोल-डोल न उन पर आते,
फूल कोई, फिर यूँ ना शर्माते,
सजती ना, फूलों से डोली, 
आती ना, लौटकर होली,
यूँ, गूंजती ना, कोयल की बोली,
संजोती ना, दुल्हन,
नैनों में रुपहले, सपने!

अजीब होते हैं, ये कितने....
दिग्भ्रमित कभी, कर जाते हैं ये सपने!
राह कहीं भटकाते, बन कर अपने,
समाए कब, पनाहों में सारे,
टूटे बिखरे, जैसे आसमां के तारे!
व्यथित करते, ये सपने!

सपने ना होते, पनपती ना निराशा,
उड़ता ये मन, आजाद पंछी सा,
न कैद होते, ये पंख किसी पिंजरे में,
हर वक्त, न होते इक पहरे से,
यूँ, आशाओं के, टुकड़े ना होते,
यूँ, टूट कर, काँच ना चुभते,
यूँ, बिखरते ना ये अरमाँ,
यूँ,भभक-भभक, जलती ना शमां,
यूँ, दूर कोई, विरहा ना गाता,
टूटती ना, फूलों की माला,
यूँ कोई, पीता ना हाला,
बिलखती ना, वो दुल्हन नवेली,
आँसुओं में, बहकर,
ना ढ़ल जाते, ये सपने!

अजीब होते हैं, ये कितने...
बहा ले जाते, कहीं छोड़ जाते ये सपने!
क्षण-भर ही, करीब होते जैसे अपने,
कभी करते, संग गलबहियाँ,
दूर हुए जब ये, गैर लगे ये कितने!
अतिरंजित से, ये सपने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 4 February 2020

पदचाप

बहुधा, गिनता रहता हूँ, पल-पल,
बस यूँ, चुपचाप!
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

लगता है, इस पल तुम आए हो,
यूँ बैठे हो, पास!
सुखद वही, इक एहसास, 
तेरा ही आभास,
और चुप-चुप,
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

बहुधा, कहीं बहती है इक सुधा,
बस यूँ, चुपचाप!
शायद, हों उनके अनुलाप,
करती हो आलाप,
थम-थम कर,
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

मन भरमाए, वो हर इक आहट,
हर वो, पदचाप!
दोहराए, वो ही अभिलाप,
वो ही एकालाप,
करे रुक-रुक,
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

बहुधा, गिनता रहता हूँ, पल-पल,
बस यूँ, चुपचाप!
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 3 February 2020

अकेले प्रेम की कोशिश-2

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

प्रेम बस अक्षर नहीं, जिसे लिख डालें,
शब्दों का मेल नहीं, जिसे हर्फो से पिस डालें,
उष्मा है ये मन की, जो पत्थर पिघला दे,
ठंढ़क है ये, जलते मन को जो सहला दे,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो ठंढ़क, वही उष्मा जीवन में नित भरने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

प्रवाहित हो जैसे नदी, है ये प्रवाह वही,
बलखाती धारा सी, चंचल सी ये चाह वही,
बरसाती नदिया सी, ये कोई धार नही,
सदाबहार प्रवाह ये, हिमगिरी से जो बही,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो प्रवाह, वही चंचल धारा संग ले चलने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

है पुष्प वही, जो मुरझाने तक सुगंध दे,
योग्य हो पुष्पांजलि के, ईश्वर के शीष चढ़े,
चुने ले वैद्य जिसे, रोगों में उपचार बने,
संग-संग चिता चढ़े, जलते जलते संग दे,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो सुगंध, बस वही अनुराग उत्पन्न करने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

शब्दों में ढल जाएंगे, जब मेरे भाव यही,
हर्फों से मिल ही जाएंगे, फिर मेरे शब्द वही,
अक्षर प्रेम के, इन फिज़ाओं में उभरेंगे,
पिघल जाएंगे पाषाण, प्रेम की इस भाफ से,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो भाव, उन्ही हर्फों से कुछ अक्षर लिखने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....
-----------------------------------------------
"अकेले प्रेम की कोशिश" भाग-1 को पढ़ने के विए यहाँ क्लिक करें 👉   "अकेले प्रेम की कोशिश"
----------------------------------------------
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

बसंत के दरख्त-2

ऐ आलि!
ये दरख्त, ये वक्त, बसंत के!
क्या, सूख जाएंगे?
चुप्पी साधेंगे पंछी, या दूर कहीं उड़ जाएंगे!

संध्या की लाली,
इठलाते, बसंत की हरियाली,
चक्र है, ये जीवन का,
क्या जाने?
माली!
सूखे थे कब, बसंत के ये दरख्त, 
ऐ आलि,
गुनगाएंगे अलि,
पंछी, कल फिर से आएंगे,
दूर कहाँ जाएंगे!
टूटेगी चुप्पी,
दरख्तों पर, फिर छाएगी हरियाली!
ऐ आलि!

रंग, नए उभरेंगे,
उमंग नए, अंग-अंग जागेंगे,
बदलेंगे, थोड़े ये चेहरे,
अभिव्यक्त,
फिर से ये होंगे,
बौराई बातें, अंतरंग सी संवादें,
उभरेंगी,
वो ही सिलवटें,
चहचहाते, फिर आएंगे पंछी,
झूम जाएंगी डाली,
लता गाएंगी,
झूल जाएगी, झूलों सी ये मतवाली,
ऐ आलि!

नादान हैं वो,
ना समझ, समझे ना बसंत को,
पंछी बेचारे, 
अपनी, विपदा के मारे,
चुप, हैं आधे,
कुछ, दम को साधे,
देखो ना, बसंत की हरियाली,
चुप साधे, 
संध्या, 
लाई है लाली,
मुरझाई सी, वो किरणें शर्मीली,
ऐ आलि!

चुप वो पंछी,
गुप-चुप, कल फिर गाएंगे,
ये वक्त, ये दरख्त!
गीत वही बासंती, झूम-झूम कल फिर गाएंगे!
-------------------------------------------------
"बसंत के दरख्त" (भाग-1) इस लिंक पर पढ़ें "बसंत के दरख्त" भाग-1
-------------------------------------------------
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 2 February 2020

बसंत के दरख्त-1

गुजर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, सँवर सा गया हूँ?
बसंत के ये, दरख्त जैसे!

कई रंग, अंग-अंग, उभरने लगे,
चेहरे, जरा सा, बदलने लगे,
शामिल हुई, अंतरंग सारी लिखावटें,
पड़ने लगी, तंग सी सिलवटें,
उभर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, निखर सा गया हूँ?
कभी था, अव्यक्त जैसे!

बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!

ये सांझ, धूमिल होने को आए,
जैसे, हर-पल, कोई बुलाए,
हासिल हुई, पनपती थी जो हसरतें 
हुई खत्म, सारी शिकायतें,
अदल सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, बदल सा गया हूँ?
ना हूँ मैं, आश्वस्त जैसे!

बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!

दुलारे लगे, ऋतुओं के नजारे,
नदी के, दो बहते से धारे,
ओझल हुई, नजरों से वो नाव अब,
दिखने लगा, वो गाँव अब,
पिघल सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, उबल सा गया हूँ?
नसों में, बहे रक्त जैसे!

बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!

गुजर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, सँवर सा गया हूँ?
बसंत के ये, दरख्त जैसे!
-------------------------------------------------
"बसंत के दरख्त" (भाग-2) इस लिंक पर पढ़ें  "बसंत के दरख्त-2"
---------‐----------------------------------
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 31 January 2020

चल कहीं-ऐ दिल

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

बहा गई, आँधियाँ,
रहा न शेष, कुछ भी अब यहाँ,
ना वो, इन्तजार है!
अब न कोई, बे-करार है!
रास्ते, वो खो चुके,
तेरे वास्ते, थोड़ा वो रो चुके!
है कौन? 
जिनके वास्ते, तू रुके!
ख्वाब, ना सुना!
न कर, तू ये नादानियाँ!

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

न देख, तू ये ख्वाब,
तेरी तरह, है प्यासा ये तालाब,
बचा न वो, आब है!
सूखा सा, अब चेनाब है!
पंक बनी, वो धार,
कहीं दूर, हो चली वो धार!
रिक्त अंक!
अंक-पाश, किसे भरे?
साहिल, ये सूना!
कर न, तू मनमानियाँ!

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 30 January 2020

लम्हा

सामने, मेरे खड़ा,
होता है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

वो बहती, सी धारा,
डगमगाए, चंचल सी पतवार सा,
आए कभी, वो सामने,
बाँहें, मेरी थामने,
कभी, मुझको झुलाए,
उसी, मझधार में,
बहा ले जाए, कहीं, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

कितना, करीब वो,
है दूर उतना, बड़ा ही, अजीब वो,
न, बाहों में, वो समाए,
न, हाथों में आए,
रहे, यादों में ढ़लकर,
इसी, अवधार में, 
कहाँ ले जाए, वही, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

लम्हे, कल जो भूले,
ना वो फिर मिले, कहीं फिर गले,
कभी, वो अपना बनाए,
कभी, वो भुलाए,
करे, विस्मित ये लम्हे,
इसी, दोधार में, 
भूला है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

सामने, मेरे खड़ा,
होता है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 29 January 2020

अन्तिम शब्द तेरे

शब्द वो! 
अन्तिम थे तेरे....

कोई हर्फ, नहीं, 
गूंजती हुई, इक लम्बी सी चुप्पी,
कँपकपाते से अधर,
रूँधे हुए स्वर,
गहराता, इक सूनापन,
सांझ मद्धम,
डूबता सूरज,
दूर होती, परछाईं,
लौटते पंछी,
खुद को, खोता हुआ मैं,
नम सी, हुई पलकें,
फिर न, चलके,
कभी थी, वो सांझ आई,
वो हर्फ,
खोए थे, मेरे!

शब्द वो!
अन्तिम थे तेरे....

वही, संदर्भ,
शब्दविहीन, अन्तहीन वो संवाद,
सहमा सा, वो क्षण,
मन का रिसाव,
टीसता, वही इक घाव,
घुटती चीखें,
कैद स्वर,
न, मिल पाने का डर,
उठता सा धुआँ,
धुँध में, कहीं खोते तुम,
कहीं मुझमें होकर, 
गुजरे थे, तुम,
हर घड़ी, गूँजते हैं अब,
वो हर्फ, 
जेहन में, मेरे!

शब्द वो! 
अन्तिम थे तेरे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)