तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!
फिर क्यूँ, मुड़ गई ये राहें!
मिल के भी, मिल न पाई निगाहें!
हिल के भी, चुप ही रहे लब,
शब्द, सारे तितर-बितर,
यूँ न था मिलना!
तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!
कैसी, ये परिचय की डोर!
ले जाए, मन, फिर क्यूँ उस ओर!
बिखरे, पन्नों पर शब्दों के पर,
बना, इक छोटा सा घर,
सजा ले, कल्पना!
तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!
यूँ तो फूलों में दिखते हो!
कुनकुनी, धूप में खिल उठते हो!
धूप वही, फिर खिल आए हैं,
कई रंग, उभर आए हैं,
बन कर, अल्पना!
तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)