Sunday, 4 July 2021

आशियाँ

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यहीं सांझ, यहीं सवेरा!

भटक जाता हूँ, कभी...
उड़ जाता हूँ, मानव जनित, वनों में,
सघन जनों में, उन निर्जनों में,
है वहाँ, कौन मेरा?

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

यहाँ बुलाए, डाल-डाल,
पुकारे पात-पात, जगाए हर प्रभात,
स्नेहिल सी लगे, हर एक बात,
है यही, जहान मेरा!

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

सुखद कितनी, छुअन,
छू जाए मन को, बहती सी ये पवन, 
पाए प्राण, यहीं, निष्प्राण तन,
मेरे साँसों का ये डेरा!

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

डर है, आए न पतझड़,
पड़ न जाए, गिद्ध-मानव की नजर,
उजड़े हुए, मेरे, आशियाने पर,
अधूरा है अनुष्ठान मेरा!

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 3 July 2021

मन भरा-भरा

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

यकीं था कि, पाषाण है, ये मन मेरा!
सह जाएगा, ये चोट सारा,
झेल जाएगा, व्यथा का हर अंगारा,
लेकिन, व्यथा की एक आहट,
पर ये भर्राया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

भरम था कि, अथाह है ये मन मेरा!
जल, पी जाएगा ये खारा,
लील जाएगा, ये गमों का फव्वारा,
लेकिन, बादल की गर्जनाओं,
पर ये थर्राया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

गिरी, इक बूँद, टूटा भरम ये सारा!
छूटा, मन पे यकीं हमारा,
लबा-लब सी भरी, मन की धरा,
बेवश, खड़ा हूँ किनारों पर,
मन, चरमराया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 30 June 2021

दो रोटियाँ

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!
इसलिए, वो जागता होगा!

वो भला, सो कर क्या करे!
जिन्दा, क्यूँ मरे?
जीने के लिए, 
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!

क्या ना कराए, दो रोटियाँ!
दर्द, सहते यहाँ!
उम्मीदें लिए,
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!

यूँ जिक्र में, फिक्र कल की!
जागते, छल की,
आहटें लिए,
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!

फिर भी, जीतने की जिद!
वही, जद्दो-जहद,
ललक लिए,
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!

जलाकर, उम्मीदों के दिए!
आस, तकते हुए,
चाहत लिए,
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!
इसलिए, वो जागता होगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 29 June 2021

रुबरू वो

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

थाम कर अपने कदम, रुक चला यूँ वक्त,
पहर बीते, उनको ही निहार कर,
लगा, बहते पलों में, समाया एक छल हो,
ज्यूँ, नदी में ठहरा हुआ जल हो,
यूँ हुए थे, रूबरू वो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

शायद, भूले से, कोई लम्हा आ रुका हो,
या, वो वक्त, थोड़ा सा, थका हो,
देखकर, इक सुस्त बादल, आ छुपा हो,
बूँद कोई, तनिक प्यासा सा हो,
रुबरू, यूँ हुए थे वो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

पवन झकोरों पर, कर लूँ, यकीन कैसे!
रुक जाए किस पल, जाने कैसे,
मुड़ जाएँ, बिखेर कर, कब मेरी जुल्फें,
बहा लिए जाए, दीवाना सा वो,
बेझिझक, रुबरू हो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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- Dedicated to someone to whom I ADMIRE & I met today and collected Sweet Memories & Amazing Fragrance...
It's ME, to whom I met Today...

फिर याद आए

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

था कोई साया, जो चुपके से पास आया,
थी वही, कदमों की हल्की सी आहट,
मगन हो, झूमते पत्तियों की सरसराहट,
वो दूर, समेटे आँचल में नूर वो ही,
रुपहला गगन, मुझको रिझाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

हुआ एहसास, कि तुझसे मुक्त मैं न था,
था रिक्त जरा, मगर था यादों से भरा,
बेरहम तीर वक्त के, हो चले थे बेअसर,
ढ़ल चला था, इक, तेरे ही रंग मैं,
बेसबर, सांझ ने ही गीत गाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

ढ़लते गगन संग, तुम यूँ, ढ़लते हो कहाँ,
छोड़ जाते हो, कई यादों के कारवाँ,
टाँक कर गगन पर, अनगिनत से दीये,
झांकते हो, आसमां से जमीं पर,
वो ही रौशनी, मुझको जगाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 26 June 2021

अभिमान

मृदु थे तुम, तो कितने मुखर थे,
मंद थे, तो भी प्रखर थे,
समय के सहतीर पर, वक्त के प्राचीर पर,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?

उठाए शीष इतना, खड़े हो दूर क्यूँ?
कोई झूलती सी, शाख हो, तो झूल जाऊँ,
खुद को तुझ तक, खींच भी लाऊँ,
मगर, कैसे पास आऊँ!

खो चुके हो, वो मूल आकर्षण,
सादगी का, वो बांकपन,
जैसे बेजान हो चले रंग, इन मौसमों संग,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?

तू तो इक खत, मृत्यु, सत्य शाश्वत,
जाने इक दिन किधर, पहुँचाए जीवन रथ,
तेरे ही पद-चिन्हों से, बनेंगे पथ,
लिख, संस्कारों के खत!

शायद, भूले हो, खुद में ही तुम,
मंद सरगम, को भी सुन,
संग-संग, बज उठते हैं जो, तेरे ही धुन पर,
अन्जाने से हो, इतने तुम क्यूँ?

प्रहर के रार पर, सांझ के द्वार पर,
सफलताओं के तिलिस्मी, इस पहाड़ पर,
रख नियंत्रण, उभरते खुमार पर,
इस, खुदी को मार कर!

फूल थे तुम, तो बड़े मुखर थे,
बंद थे, तो भी प्रखर थे,
विहँसते थे खिल कर, हवाओं में घुल कर,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 21 June 2021

चाँदनी कम है जरा

उतर आइए ना, फलक से जमीं पर,
यहाँ चाँदनी, कम है जरा!

कब से हैं बैठे, इन अंधेरों में हम,
छलकने लगे, अब तो गम के ये शबनम,
जला दीजिए ना, दो नैनों के ये दिए,
यहाँ रौशनी, कम है जरा!

उतर आइए ना, फलक से जमीं पर,
यहाँ चाँदनी, कम है जरा!

इक भीड़ है, लेकिन तन्हा हैं हम,
बातें तो हैं, पर कहाँ उन बातों में मरहम,
शुरू कीजिए, फिर वो ही सिलसिले,
यहाँ बानगी, कम हैं जरा!

उतर आइए ना, फलक से जमीं पर,
यहाँ चाँदनी, कम है जरा!

नजदीकियों में, समाई हैं दूरियाँ,
पास रह कर भी कोई, दूर कितना यहाँ,
दूर कीजिए ना, दो दिलों की दूरियाँ, 
यहाँ बन्दगी, कम हैं जरा!

उतर आइए ना, फलक से जमीं पर,
यहाँ चाँदनी, कम है जरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 20 June 2021

नजारे

हसीन कितने, हैं ये नजारे,
पर, अब भी, 
तुझे ही, देखते हैं वो सारे!

तुम ही तो लाये थे, झौंके पवन के,
ये नूर तेरे ही, नैनों से छलके,
बिखरे फलक पर, बनकर सितारे,
बादलों के किनारे!

हसीन कितने, हैं ये नजारे,
पर, अब भी, 
तुझे ही, देखते हैं वो सारे!

रोकती हैं, हसरत भरी तेरी निगाहें,
रौशन है तुझसे, घटाटोप राहें,
उतरा हो जमीं पर, वो चाँद जैसे,
पलकों के सहारे!

हसीन कितने, हैं ये नजारे,
पर, अब भी, 
तुझे ही, देखते हैं वो सारे!

बिखर सी गई, उम्र की, ये गलियाँ,
निखर सी गईं, और कलियाँ,
यूँ तूने बिखेरा, खुशबू का तराना,
आँचलों के सहारे!

हसीन कितने, हैं ये नजारे,
पर, अब भी, 
तुझे ही, देखते हैं वो सारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 15 June 2021

ये पल और वो कल

भूल कर, ये पल,
हम तलाशते रहे, वो कल!
कहीं, गौण वर्त्तमान,
मौन, अंजान!

इधर मुझे, ढ़ूँढ़ते रहे, कई पल,
करते, मेरा इन्तजार,
तन्हा, बेजार,
ठहरे, वो अब भी वहीं!

इन्हीं बेजार से, पलों के, मध्य,
कहीं, गौण वर्त्तमान,
मौन, अंजान,
संग, भविष्य भी वहीं!

पनपे, घने कुंठाओं के अरण्य,
हुई, रौशनी नगण्य,
चाहतें अनन्य,
कहीं, भटक रही वहीं!

क्यूँ ना मैं, जी लूँ ये पल यहीं,
वो कल तो है यही,
जीवंतता लिए,
मुझे सींचती, पल यही!

भूल कर, ये पल,
हम तलाशते रहे, वो कल!
कहीं, गौण वर्त्तमान,
मौन, अंजान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 13 June 2021

झिझक

झिझक, संकोच, हिचकिचाहट!
काश, दुविधाओं के ये, बादल न होते!
इन्हीं स्मृति के दायरों में, हम तुम्हें रोक लेते,
यूँ न, धुँध में, तुम कहीं खोते!

किस मोड़, जाने मुड़ गईं राहें!
विवश, न जाने, किस ओर, हम चले!
दरमियाँ, वक्त के निशान, फासले कम न थे,
उस धुँध में, कहाँ, तुझे ढूंढ़ते!

तुम तक, ये शायद, पहुँच जाएँ!
शब्द में पिरोई, झिझकती संवेदनाएँ,
कह जाएँ वो, जो न कह सके कहते-कहते!
रोक लें तुझे, यूँ चलते-चलते!

ओ मेरी, स्मृति के सुमधुर क्षण!
बे-झिझक खनक, सुरीली याद संग,
स्मृतियों के, इन दायरों में, आ रोक ले उन्हें,
यूँ न खो जाने दे, धुँध में उन्हें!

झिझक, संकोच, हिचकिचाहट!
काश, झिझक के, दुरूह पल न होते,
उन्हीं स्मृति के दायरों में, हम तुम्हें रोक लेते,
यूँ न, धुँध में, तुम कहीं खोते!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)