Sunday, 4 February 2024

उस रोज

नीरव से, बहते उस पल में,
ठहरे से, जल में,
हलचल कितने थे, उस रोज!

उस रोज!
ठहरा था, सागर पल भर को,
विवश, कुछ कहने को,
उस, बादल से,
लहराते, उस आंचल से!

उस रोज!
किधर से, बह आई इक घटा!
बदली थी, कैसी छटा!
छलकी थी बूंदे,
सागर के, प्यासे तट पे!

उस रोज,
चीर गया था, कोई सन्नाटों को,
छेड़ गया, नीरवता को,
अवाक था, मैं, 
प्रश्न कई थे, उस पल में!

उस रोज,
किससे कहता मैं, सुनता कौन!
खड़ा यूं ही, रहा मौन,
यूं गिनता कौन!
वलय कई थे धड़कन में!

नीरव से, बहते उस पल में,
ठहरे से, जल में,
हलचल कितने थे, उस रोज!

Saturday, 3 February 2024

ढ़लती सांझ

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ,
रुकेंगी, वो कब तलक,
ठहरेंगी, वो कैसे!
प्रबल होती निशा, सिमटती दिशा,
बंदिशें, वक्त के हैं बहुत!

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ,
लघुतर, जीवन के क्षण,
विरह का, आंगन,
वृहदतर, तप्त उच्छवासों के क्षण,
इन्हें कौन करे पराजित!

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ,
पर बिखेर कर, किरणें,
उकेर कर, सपने, 
क्षितिज पर, उतार कर सारे गहने,
कर जाएगी, अभिभूत!

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ,
कर, नैनों को विस्मित,
हर जाएगी, मन,
खोलकर, बंद कितने ही चिलमन,
कर जाएगी, आत्मभूत!

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ..

Monday, 29 January 2024

मृत्यु या मोक्ष

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

कुछ आशा,
कुछ निराशा के, ये कैसे पल!
बस होनी है, इक,
या आवागमन, या कोई घटना,
कुछ घटित, कुछ अघटित,
हो जाए समक्ष,
या परोक्ष!

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

टलता कब,
सहारे उस रब के, रहता सब,
ये उम्र, ढ़ले कब,
घेरे सांसों के, जाने टूटे कब!
और मोह रुलाए पग-पग,
परे, जीवन के,
दूजा पक्ष!

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

सजग निशा,
सुलग-सुलग, बुझ जाती उषा,
यूं चलता ही जाए,
निरंतर काल-चक्र का पहिया,
उस ओर, जहां है क्षितिज,
या, अंतिम इक,
काल-कक्ष!

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 25 January 2024

ऋतुओं के पहरे

लम्हों पर, ऋतुओं के पहरे,
वो, कब ठहरे!
रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

इक आए, इक जाए,
देखे ऋतुओं के, नित रूप नए,
अब कौन, उन्हें समझाए,
सरमाए, ख्वाबों के,
हों, कब पूरे!

रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

संशय में, पल सारे!
बदलते से, ऋतुओं संग गुजारे,
चलन रहा, यही सदियों,
ख्वाबों के, वो तारे,
रहे, बे-सहारे!

रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

है इक, दग्ध हृदय,
संदिग्ध सा, उधर, इक वलय,
रोके, वो कब रुक पाए,
धार सा, बहा जाए,
वो, लम्हे सारे!

लम्हों पर, ऋतुओं के पहरे,
वो, कब ठहरे!
रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे..

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 19 January 2024

अलिखित हस्तलिपि

अपितु, कठिन जरा!
पढ़ पाना,
जज्बातों की, अलिखित हस्तलिपि....

पीड़ बन, छलक पड़े जब संवेदना,
अश्रू, सिमटे ना,
कहती जाए, व्यथा की कथा,
सारे दर्द, सिलसिलेवार!

जटिल जरा,
मूक हृदय के, संघातो की ये संतति....

कोरों से छलके, जाए क्या कहके!
बतलाऊं कैसे?
कब इन्हें, शब्दों की दरकार?
वर्ण, लगे, बिन आकार!

है मूक बड़ा,
अनकहे जज्बातों की, ये प्रतिलिपि....

बूझे ही कब, जज्बातों की भाषा!
पाषाण हृदय,
जाने ही कब, मूक अभिलाषा,
अन्तः, पीड़ करे बेजार!

अपितु, कठिन जरा!
पढ़ पाना,
जज्बातों की, अलिखित हस्तलिपि....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 14 January 2024

कुहासे

थम जरा, ऐ तप्त सांसें,
सर्द हुई हवा,
हर ओर, जम रही ये दिशा,
चल रही, सर्द लहर,
जर्द ये कुहासे!

सफर, अब राहतों का,
तू थम जरा,
पल भर को, तू जम जरा,
ले आया, नव-विहान,
जर्द ये कुहासे!

जम चुका, ये आंगना,
ज्यूं भर रहा,
नव-संकल्प, नव-कल्पना,
रुख ही, वे बदल गईं,
जर्द से कुहासे!

लक्ष्य है, जरा धूमिल,
धूंध है भरा,
बस खुद पर, रख यकीन,
कुछ असर दिखाएगी,
जर्द ये कुहासे!

थम जरा, ऐ तप्त सांसें,
सर्द अब हवा,
सर्द हो चली, गर्म वो दिशा,
नव प्रवाह, भर गई, 
जर्द ये कुहासे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 13 January 2024

मरहम

यूं तो, यूं न थे हम!
गूंजती थी, हर पल कोई न कोई सरगम,
महक उठती थी पवन!

बह चला, वो दरिया,
करवटें लेती रही, अंजान सी ये जिंदगी,
और, बंदगी मेरी!
रह गई, कुछ अनसुनी सी..
यूं तो...

अब न, शीशे में मैं,
और ही शख्स कोई, अब परछाईयों में, 
महफिलें, सज रही, हर तरफ,
पर, गुमशुदा मैं!
यूं तो...

ईशारे, अब कहां!
गगन से, अब न पुकारते वो कहकशां,
बिखरी, भीगी सी वे बदलियां,
इन्तजार में, मैं!
यूं तो...

गम, एक मरहम,
इस एकाकी राह, अब वो ही, हमदम,
चुप हैं कितने, वे साजो-तराने,
खामोश सा, मैं!
यूं तो...

यूं तो सर झुकाए,  
सह गए, सजदों में वक्त के ये सितम,
और, बंदगी मेरी!
रह गई, कुछ अनसुनी सी..
यूं तो...

यूं तो, यूं न थे हम!
गूंजती थी, हर पल कोई न कोई सरगम,
महक उठती थी पवन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 6 January 2024

नजदीकियां

हुए सदियों, पर लगता है,
बस, अभी-अभी तो, लौटा हूँ...
उन गलियों से!

पहचाने से हैं, रस्ते उन गलियों के,
रिश्ते उन, रस्तों से,
करीबी हैं कितने ...
खबर है, जबकि मुझको,
फिर न पुकारेंगी,
वे राहें मुझे,
अपरिमित हो चली वो दूरियां,
अब कहां नजदीकियां?
उन गलियों से!

हुए सदियों, पर लगता है,
बस, अभी-अभी तो, लौटा हूँ...
उन गलियों से!

बसी है, इक खुश्बू अब तक इधर,
धड़कनों की, जुंबिश,
सांसों की तपिश...
उन एहसासों की, दबिश,
उन जज्बातों की,
इक खलिश, 
वे अपरिचित से लगे ही कब,
जाने, कैसा ये परिचय?
उन गलियों से!

हुए सदियों, पर लगता है,
बस, अभी-अभी तो, लौटा हूँ...
उन गलियों से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 23 December 2023

दरबदर

वही रास्ते, वो ही शहर,
वही दिन, वही रात, वो ही दोपहर,
न है, तो बस वो रहगुजर!

वो शोर, वो कोलाहल,
गुजरते उन कारवों का, हलाहल,
पल, वो सारे चंचल,
चल पड़े किधर!

विदा हो चले वो साए,
वो पल, वो दूर तलक जाती राहें,
वो विपरीत दिशाएं,
हो चले दरबदर!

यूं सूना, अब वो गगन,
ज्यूं, है कहीं काया कहीं धड़कन,
विरह का ये आंगन,
जगाए रात भर!

वही रास्ते, वो ही शहर,
वही दिन, वही रात, वो ही दोपहर,
न है, तो बस वो रहगुजर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 18 December 2023

बिटिया के नाम

ओ बिटिया, हम दूर तो होंगे....

नव-रिश्तों के, इक ताने-बाने में,
बांध चुकी, जन्मों का तुम गठबंधन,
घिरकर, मन के फेरों में,
कर चुकी, नव जीवन का आलिंगन,
बांधे, पांवों में पायल,
वो खुशियों के पल, कम न होंगे..

ओ बिटिया, हम दूर तो होंगे....

खेली तुम जिसमें, सूनी वो गोद,
सूना ये आंगन, तेरी राह निहारे रोज,
लड़कपन की, तेरी यादें, 
मीठी वो तेरी बातें, कैसे लाऊं खोज,
खनक तेरी बातों के,
सूने इस आंगन में, कम न होंगे...

ओ बिटिया, हम दूर तो होंगे....

अब उस घर से बंधे, भाग्य तेरे,
मर्यादा उस कुल की, अब हाथ तेरे,
नश्वर सी, इक ही पूंजी,
संस्कारों की, पग-पग होंगे संग तेरे,
विलुप्त होते, पल में,
जीवन के कल में, हम न होंगे....

ओ बिटिया, हम दूर तो होंगे....

पापा की, नन्हीं सी बिटिया तुम,
इस बगिया की, प्यारी चिड़िया तुम,
कंपित हो, इन प्राणों में,
आलोकित हो, इन दो नैनों में तुम,
सांसों मेें, हो आबद्ध,
एहसासों मे, पास सदा तुम होगे...

ओ बिटिया, हम दूर तो होंगे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)