Friday, 20 May 2016

पुकारता मन का आकाश

पुकारता है आकाश, ऐ बादल! तू फिर गगन पे छा जा!

बार बार चंचल बादल सा कोई,
आकर लहराता है मन के विस्तृत आकाश पर,
एक-एक क्षण में जाने कितनी ही बार,
क्युँ बरस आता है मन की शान्त तड़ाग पर।

घन जैसी चपल नटखट वनिता वो,
झकझोरती मन को जैसे हो सौदामिनी वो,
क्षणप्रभा वो मन को छल जाती जो,
रुचिर रमणी वो मन को मनसिज कर जाती जो।

झांकती वो जब अनन्त की ओट से,
सिहर उठता भूमिधर सा मेरा अवधूत मन,
अभिलाषा के अंकुर फूटते तब मन में,
जल जाता है यह तन विरह की गहन वायुसखा में।

मन का ये आकाश आज क्युँ है सूना सा,
कही गुम सा वो बादल क्षणप्रभा है वो खोया सा,
सूखे है ये सरोवर मन के, फैली है निराशा,
पुकारता है आकाश, ऐ बादल! तू फिर गगन पे छा जा!

Thursday, 19 May 2016

रिश्ता

रिश्तों की नर्म भूमि पर ही,
सोते, जगते और सपने देखते हैं हम,
ये रिश्ते दिलों के करीब ना हों तो,
उम्र भर बस रोते और सिसकते हैं हम।

जुड़ते हैं जब रिश्ते नाजुक नए,
कई आँखों को नम कर जाते हैं ये,
फिसले जो हाथों से कुछ रिश्ते,
आँखों के बंद होने तक तड़पाते हैं ये।

खेलते हैं जो ऱिश्तों में भावना से,
वो हृदय कोमल नहीं पत्थर का है इक टुकड़ा,
कच्चे धागों की गर्माहट से है दूर वो,
इस भीड़ में जीवन की बस तन्हा ही वो रहा ।

नभ पर वो तारा

नभ पर हैं कितने ही तारे, एकाकी क्युँ मेरा वो संगी?

वो एकाकी तारा! धुमिल सी है जिसकी छवि,
टिमटिमाता वो प्रतिक्षण जैसे मंद-मंद हँसता हो कोई,
टिमटिमाते लब उसके कह जाती हैं बातें कई,
एकाकी सा तारा वो, शायद ढूंढ़ता है कोई संगी?

वो एकाकी तारा! नित छेड़ता इक स्वर लहरी,
पुकारता वो प्रतिक्षण जैसे चातक व्यग्र सा हो कोई,
टिमटिमाते लब जब गाते गीत प्यारी सी सुरमई,
है कितना प्यारा वो, पर उसका ना कोई संगी!

वो एकाकी तारा! मैं हूँ अब उसका प्रिय संगी,
कहता वो मुझसे प्रतिक्षण मन की सारी बातें अनकही,
टिमटिमाते लब उसके हृदय की व्यथा हैं कहती,
एकाकी तारे की करुणा में अब मैं ही उसका संगी!

यादों की एकान्त वेला

मन एकान्त सा होता नही यादों में जब होते वो संग,
आह ! यह एकान्त वेला, फिर याद लेकर उनकी आई...!

अतिशय उलझा है मन फिर ये कैसी रानाई,
घटाएँ उनके यादों की बदली सी इस मन पर छाई,
निस्तब्ध इस एकान्त वेला में ये कैसी है तन्हाई....?

यादों में पल पल वो झूलों से आते लहराकर,
मुखरे पर वही भीनी सी मंद मुस्कान बिखराकर,
कर जाते वो निःशब्द मुझको अपनाकर....!

लहराते जुल्फों की छाँवो में ही रमता है ये मन,
उनकी यादों की गाँवों में ही बसता है अब ये मन,
मन चल पड़ता उस ओर पाते ही एकान्त क्षण....!

तन्हाई डसती नहीं उनकी यादें जब हो संग,
मन एकान्त सा होता नही यादों में जब होते वो संग,
काश! क्षण उम्र के यूँ ही गुजरे यादों में उनकी संग....!

Wednesday, 18 May 2016

प्रतीक्षामय निस्तब्ध निशा

निशा स्तब्ध सी है आज फिर कैसी,
क्या फिर कोई मन प्रतीक्षा में बिखरा है यहाँ?

रजनी रो पड़ी है ज्यूँ ओस की बूँदों मे,
निमंत्रण यह कैसा अब इस सुनसान निशा में,
क्या फिर कोई मन पुकार रहा प्रतीक्षा में यहाँ?

तम सी सुरम्य काया खोई विरान निशा में,
रजनीगंधा भी भूली है खुश्बु इस स्तब्ध निशा में,
ये पल प्रतीक्षा के क्या हो चले हैं दुष्कर वहाँ?

मन कहता है जाकर देखूँ कैसी है यह निशा,
प्रतीक्षा के बोझिल पल वो खुद कैसे है गुजारता?
क्युँ कोई पढ़ नहीं पाता प्रतिक्षित मन की दुर्दशा?

प्रतीक्षा में बीतेगी कैसे यह निस्तब्ध सी निशा?
जा कह दे उस बैरी से कोई सूख चुकी रजनीगंधा,
छलक रहे नीर नयनों में पलक्षिण दुष्कर यहाँ!

निशा स्तब्ध सी है आज फिर कैसी,
क्या फिर कोई मन प्रतीक्षा में बिखरा है यहाँ?

Tuesday, 17 May 2016

अजनबी भँवरा

भँवरों के गीत सब, अजनबी हो चुके हैं अब,
गुनहुनाहटों में गीत की, अब कहाँ वो कसक,
थक चुका है वो भँवरा,  गीत गा-गा के अब।

वो भी क्या दिन थे, बाग में झूमता वो बावरा,
धुन पे उस गीत की,  डोलती थी कली-कली,
गीत अब वो गुम कहाँ, है गुम कहाँ वो कली।

जाने किसकी तलाश में अब घूमता वो बावरा,
डाल डाल घूमकर,  पूछता उस कली का पता,
बेखबर वो बावरा, कली तो हो चुकी थी फना।

अब भी वही गीत प्रीत के,  गाता है वो भँवरा,
धुन एक ही रात दिन, गुनगुनाता है वो बावरा,
अजनबी सा बाग में, मंडराता अब वो बावरा।

Sunday, 15 May 2016

दूरियों के दरमियाँ

हमको जुदा न कर सकेंगी ये दूरियों के दरमियाँ!

हम मिलते रहे हैं हर पल यूँ दूरियों के दरमियाँ,
रीत ईक नई बनती गई दूरियों के दरमियाँ,
समय यूँ गुजरता प्रतिपल इन दूरियों के दरमियाँ !

बदल रहा ये रूप ये रंग इस समय के दरमियाँ,
न बदले हैं हम कभी इस समय के दरमियाँ,
वक्त लेता रहा करवटें तुम संग समय के दरमियाँ!

ये दूरियों के दायरे रहे उम्र भर तेरे मेरे दरमियाँ,
वक्त कभी न भर सका दूरियों के दरमियाँ,
मेरे हृदय में रहे सदा तुम इन दूरियों के दरमियाँ!