Friday, 10 December 2021

रूठ चला साया

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

रही बैठी, संग-संग ठहरी, भर दोपहरी, 
कुछ वो चुप, कुछ हम गुमसुम,
क्षण सारा, बीत चला,
असमंजस में, ये सांझ ढ़ला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

रिक्त ढ़ले, इक दुविधा में सारे ही क्षण,
हरजाई सी, अपनी ही परछाईं,
मेरे ही, काम न आई,
एकाकी, ये दिन रात ढ़ला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

शब्द-विहीन ये पल, अर्थ-हीन कितने,
वाणी बिन तरसे, शब्द घुमरते,
रह गए होंठ, सिले से,
ये तन, सायों से ऊब चला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 6 December 2021

लगाव

धुंधला सा, वो कल का सवेरा!
मुकम्मल है, या है अधूरा!
कल्पनाओं का बसेरा, वो एक डेरा।

खोल दो, कल की सारी खिड़कियां,
झांक तो लूं, मैं जरा,
क्या धरे भेष वो, कौन सा परिवेश वो,
है किधर, जाने परदेश वो,
लिखे, क्या कहानी, 
बेजुबानी,
दे न जाए, कोई अनचाही निशानी,
परिवेश मेरा!

अनायास, मिल न जाए, मोड़ कोई,
संभल जाऊं, मैं जरा,
ये अन्तहीन, सर्प सरीखी, राहों के घेरे,
विस्तृत, गुमसुम से ये फेरे,
कल, छीन ले सगा,
रहूं, मैं ठगा,
हठात्, दे न जाए, कल इक दगा,
ये वक्त मेरा!

मुझे लगाव, हर एक पल से आज,
जी लूं आज, मैं जरा,
नींव, कल की, आज ही एक डाल दूं,
मन के, भरास निकाल लूं,
क्यूं रहे, ये मन डरा,
यूं भरा-भरा,
हर वक्त ये पल, ये क्षिण, ये धरा,
बस रहे मेरा!

धुंधला सा, वो कल का सवेरा!
मुकम्मल है, या है अधूरा!
कल्पनाओं का बसेरा, वो एक डेरा।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 30 November 2021

जीवंतता

चाहा, रोक लूं पवन को, शाख बन कर,
रख लूं, यूं ही कहीं, हाथ धर कर!

पर वो, इक क्षणिक बुलबुला,
चंचल चित्त, चंचला,
निराश मन, पर छोड़े कहां, आस मन,
न तोड़े, कल्पना, 
न चाहे, इक पल भूलना,
न देखे, रात-दिन!
चाहा रोक लूं, पवन को, शाख बन कर!

अनन्त राह, अलग ही, प्रवाह,
इक, अलग ही चाह,
निरंतर, इक दिशा लपक जाए पवन,
ना करे, परवाह,
ना ही धरे, वो बाँह कोई,
खुद में ही, खोई!
कैसे रोक लूं, पवन को, शाख बन कर!

यूं, गति ही, उसकी जीवंतता,
गति, एक विवशता,
जड़ जाए, जड़ता में, कैसे वो जीवंत!
एक कोरी कल्पना,
पलकों में, ये पल बांधना,
बस, एक सपना!
कैसे रोक लूं, पवन को, हाथ धर कर!

चाहा रोक लूं, पवन को, शाख बन कर,
रख लूं, यूं ही कहीं, हाथ धर कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

एक झौंका

हौले से, तन को जरा छू कर,
बह चला, एक झौंका, न जाने किधर!

रह गया वो, बस इक, एहसास बनकर,
या, बना सहचर, साँस बनकर,
या, चल रहा संग, वो हर कदम पर,
एक झौंका, न जाने किधर!

कल तलक, ऐसा न था कोई एहसास,
पर अब तक, कहाँ कोई पास!
गुम कहीं, वो तोड़कर मेरा विश्वास,
एक झौंका, न जाने किधर!

रोके कब रुकी, वो खुश्बू हो या पवन,
यूं होती जुदा, ज्यूं बूंदों से घन,
मुड़ चला, झंझोरकर शाख के तन,
एक झौंका, न जाने किधर!

शंकाओं से घिरा, हृदय का, हर शिरा,
जाने कहीं झंझावातों में घिरा,
भटकता हो, सुनसान राहों में पड़ा,
एक झौंका, न जाने किधर!

हौले से, तन को जरा छू कर,
बह चला, एक झौंका, न जाने किधर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 27 November 2021

अक्सर

अक्सर, वो बिसरा गाँव ढ़ूंढ़ता हूँ,
ज्यूं, चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ!

यूँ, रुक भी ना सकूं, इस मोड़ पर,
सफर के, इक लक्ष्य-विहीन, छोर पर,
अक्सर, खुद को, रोकता हूँ,
अन्तहीन पथ पर, ठांव ढ़ूंढ़ता हूँ!

ज्यूं, चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ!

अपनत्व, ज्यूं हो महज शब्द भर,
बेगानों में, लगे सहज कैसे, ये सफर,
अक्सर, प्रश्नों में, डूबता हूँ,
ममत्व भरा, वही गाँव ढ़ूंढ़ता हूँ!

ज्यूं, चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ!

कभी, यूँ ही रहा, लबों को सी के,
जाने कब, हम हुए, पीकू. से. पी.के.,
अक्सर, खुद को, टोकता हूँ,
इस सांझ में, इक भोर ढ़ूंढ़ता हूँ!

अक्सर, वो बिसरा गाँव ढ़ूंढ़ता हूँ,
ज्यूं, चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 24 November 2021

28 साल

मुझसे, जब मिले थे तुम, पहली बार,
और जब, आज फिर मिले हो, 28 वर्षों बाद,
मध्य, कहीं ढ़ल चला है, इक अन्तराल,
पर, वक्त बुन चला है, इक जाल,
और, सिमट चुके हैं साल!

अजनबी सी, हिचकिचाहटों के घेरे,
गुम हुए कब, तन्हाईयों में घुलते सांझ-सवेरे,
सितारों सी, तुम्हारे, बिंदियों की चमक,
बना गईं, जाने कब, बे-झिझक,
बीते, पल में यूँ, 28 साल!

इक दिशा, बह चली, अब दो धारा,
कौन जाने, किधर, मिल पाए, कब किनारा,
ना प्रश्न कोई, ना ही, उत्तर की अपेक्षा,
कामना-रहित, यूँ बहे अनवरत,
संग-संग, साल दर ये साल!

सुलझ गई, तमाम थी जो, उलझनें,
ठौर पा गईं, उन्मादित सी ये हमारी धड़कनें,
बांध कर, इक डोर में, रख गए हो तुम,
बिन कहे, सब, कह गए हो तुम,
शेष, कह रहे वो 28 साल!

ये वक्त, कल बिखेर दे न एक नमीं,
ढ़ले ये सांझ, तुम ढ़लो कहीं, और, हम कहीं,
मध्य कहीं, ढ़ल चले ना, इक अन्तराल,
ग्रास कर न ले, क्रूर सा ये काल,
शेष, जाने कितने हैं साल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 21 November 2021

पुरानी तस्वीरें

बिखर सी गई, कितनी ही, परछाईंयाँ,
उलझकर, जालों में रह गई कितनी ही तस्वीरें,
कभी झांकती है, वे ही दरों-दीवार से!

अजनबी से, हो चले, किरदार कई,
गैरों में अपना सा कोई, गैर से, अपनों में कई,
महकते फूल, या, राह के वो शूल से!

ले गए जो, पल शुकून के, मेरे सारे,
वो ही कभी, कर जाते हैं विचलित, कर इशारे,
वही, छूकर गुजर जाते हैं करीब से!

पछतावा, उन्हें भी तो होगा शायद,
लिख सकी ना, जिनकी कहानी, कोई इबारत,
शिकायत क्या करे, बे-रहम वक्त से!

मिट सी गई, कितनी जिन्दगानियाँ,
लिपट कर वो फूलों में, बन गई पुरानी तस्वीरें,
झांकते है वो ही, इस दरों-दीवार से!

उभरती हैं कोई, शख्सियत अंजानी,
लिख गईं जो, इस दरों-दीवार पर इक कहानी,
पढ़ रहे सब, वो कहानी, अब गौर से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)