Sunday 21 July 2019

मैला मन

मैला ये तन ही क्यूं?
शायद!
ये अभिमानी मन भी हो!

वहम है या इक भ्रम है, हर इक मन,
है श्रेष्ठ वही इक, बाकि सारे हैं धूल-कण,
भूला है, शायद इस भूल-भुलावे में,
ये अभिमानी मन!

माटी के पुतले हम, है माटी का तन,
गुण-अवगुण दोनों, हैं गुंधे माटी के संग,
न जाने, फिर पलता किस भ्रम में,
ये अभिमानी मन!

कर के लाख जतन, साफ किए तन,
दोषी है खुद, पर करता है दोषा-रोपण,
झांके ना, खुद को ही इस दर्पण में,
ये अभिमानी मन!

औरों की गलती पर, हँसता है जग,
भूल करे जब खुद, होता है राग अलग,
न जाने, भटका किस संगत में,
ये अभिमानी मन!

भ्रम में तन ही क्यूं?
शायद!
ये अभिमानी मन भी हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 18 July 2019

स्पर्श....छू कर जरा सा

छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!

थम सा चुका था, ये वक्त,
किसी पर्वत सा, जड़! यथावत!
गुजरती ही नहीं थी, आँखो से वो तस्वीर,
निरर्थक थी सारी कोशिशें,
दूर कहीं जाने की,
बस, विपरीत दिशा में, सरपट भागता रहा मन,
कहीं उनसे दूर!

छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!

जैसे, मन पर लगे थे पहरे,
पर्वतों के वो डेरे, अब भी थे घेरे!
आते रहे पास, बांधते रहे वो एहसास,
निरंतर ही करते रहे स्पर्श,
पुकारते रहे सहर्ष,
खींचते रहे, अपनी ओर, बस भागता रहा मन,
कहीं उनसे दूर!

छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!

डरा-डरा, था ये मन जरा!
चाहता न था, ये बंधनों का पहरा!
हो स्वच्छंद, तोड़ कर भावनाओं के बंध,
उड़ चला, ये सर्वदा निर्बंध,
स्पर्श के वो डोर,
रहे बंधे उनकी ही ओर, बस भागता रहा मन,
कहीं उनसे दूर!

छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 17 July 2019

ये विदाई

विदाई, पल ये फिर आई,
बदरी सावन की, नयनन में छाई,
बूँदों से, ये गगरी भर आई,
रोके सकें कैसे, इन अँसुवन को,
ये लहर, ये भँवर खारेपन की,
रख देती हैं, झक-झोर!

भीग चले हैं, हृदय के कोर,
कोई खींच रहा है, विरहा के डोर,
समझाऊँ कैसे, इस मन को,
दूर कहाँ ले जाऊँ, इस बैरन को,
जिद करता, है ये जाने की,
हर पल, तेरी ही ओर!

धड़कता था, जब तेरा मन,
विहँसता था, तुम संग ये आँगन,
कल से ही, ये ढ़ूंढ़ेगी तुझको,
इक सूनापन, तड़पाएंगी इनको,
कोई डोर, तेरे अपनत्व की,
खीचेंगी, तेरी ही ओर!

विदा तो, हो जाओगे तुम,
मन से जुदा, ना हो पाओगे तुम,
ले तो जाओगे, इस तन को,
ले जाओगे कैसे, इस मन को,
छाँव घनेरी, इन यादों की,
राहों को, देंगी मोड़!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 14 July 2019

वर्षों हुए दिल को टटोले

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

इक दौड़ था, इन धड़कनों में, जब शोर था,
गूँजती थी, दिल की बातें,
जगाती थी, वो कितनी ही रातें,
अब है गुमसुम सा, वो खुद बेचारा!
है वक्त का, ये खेल सारा,
बेरहम, वक्त के, पाश में जकड़ा,
भाव-शून्य है, बिन भावनाओं में डोले!

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

देखा तो, लगा चुप सा, वो बहुत आजकल,
जैसे, खुद में ही सिमटा,
था अपनी ही, सायों से लिपटा,
न था साथी कोई, न था कोई सहारा!
तन्हाईयों में वर्षों गुजारा,
फिरता रहा था, वो मारा-मारा,
बिन होंठ खोले, बिना कोई बात बोले!

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

वो रात थी, गुजरे दिनों की ही, कोई बात थी,
कई प्रश्न, उसने किए थे,
बिन बात के, हम लड़ पड़े थे,
बस कहता रहा, वो है साथी हमारा!
संग तेरे ही, बचपन गुजारा,
था तेरी यौवन का, मैं ही सहारा,
खेल, न जाने कितने, हमने संग खेले!

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

गिनते थे कभी, जिस दिल की, धड़कनें हम,
अनसुनी थी, वो धड़कनें,
ना ही कोई, आया उसे थामने,
टूटा था, उस दिल का, भरम सारा!
संवेदनाओं से, वो था हारा,
फिर भी, धड़कता रहा वो बेचारा,
बिन राज खोले, बिना कोई लफ्ज़ बोले!

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 12 July 2019

किताब

बहते चिनाब से,
मिल गई, इक किताब!

उम्र, जो है अब ढ़ली,
सोचता था,
गुजर चुकी है, अब वो गली,
अब न है राफ्ता,
शायद, अब बन्द हो वो रास्ता,
पर, टूटा न था वास्ता,
रह गईं थी,
कुछ यादें, वही मखमली,
संग-संग चली,
उम्र के इस चिनाब में,
इक किताब सी,
मन में,
ढ़ली वो मिली!

बहते चिनाब से,
मिल गई, इक किताब!

बातें वही, बहा ले गई,
यादें पुरानी,
नई सी लगी, थी वो कहानी,
फिर बना राफ्ता,
पर, अब तो बन्द था वो रास्ता,
रह गया था, इक वास्ता,
वो किस्से पुराने,
यादों में ढ़ले, वो ही तराने,
अब सताने लगे,
वो पन्ने, फरफराने लगे,
बंद किताब की,
हर बात,
तड़पाती ही मिली!

बहते चिनाब से,
मिल गई, इक किताब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 8 July 2019

बहल जा दिल

चल बहल जा, यूं ही बातों से, ऐ मेरे दिल....

नाराज है क्यूं, दूर बैठा  क्यूं ऐसे आज है तू?
माना, बस दिखावे की, यहाँ है दिल्लगी,
मिठास बस बातों में है, पर हर बात में है ठगी,
कुछ ऐसी ही है, वश में कहाँ है जिन्दगी?

चल बहल जा, यूं ही बातों से, ऐ मेरे दिल....

है ये कैसी बेरुखी, तू इतना भी, क्यूं है दुखी?
साथ तेरे, हाथ थामे, चल रही है जिन्दगी,
तू जरा ये जाम ले, खुद को जरा सा थाम ले,
हँस ले जरा, चाहे जितना सताए जिन्दगी!

चल बहल जा, यूं ही बातों से, ऐ मेरे दिल....

है तुझे क्या वास्ता, गर, कोई बदल ले रास्ता?
मान ले, हर पल, जिन्दगी है इक हादसा,
है ये मयखाना, कहाँ टूटे पैमानों से है वास्ता,
अजीब रंग कितने, दिखाएगी ये जिन्दगी!

चल बहल जा, यूं ही बातों से, ऐ मेरे दिल....

माना, हिस्से में तेरे, अजीबोगरीब है किस्से!
फूल चुनने हैं तुझे, राहों के इस शूल से,
सीखनी है बन्दगी, बिखरे हुए इस धूल से,
हर भूल से, कुछ तो सिखाएगी जिन्दगी!

चल बहल जा, यूं ही बातों से, ऐ मेरे दिल....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

इस हुजूम में

कौन हैं हम? न जाने इस भीड़ में क्यूं मौन हैं हम!
इक प्रश्न है हर नजर में, हर प्रश्न में गौण हैं हम,
अनुत्तरित हैं, असंख्य ऐसे प्रश्न इस हुजूम में!

चेहरा एक तेरा, एक मेरा भी है चेहरों के हुजूम में!
ढ़ोए जा रहा है, यही भीड़, तुझको और मुझको,
अन्तहीन सा दौड़ है, गुम है सब इस हुजूम में!

उदास से हैं चेहरे, उन पर बदहवासियों के हैं पहरे!
शायद, खुद का पता, खुद ही तलाशती है आँखें,
वजूद, कुछ तेरा और मेरा भी है इस हुजूम में!

अपनत्व है इक दिखावा, साथ तो है इक छलावा!
जी ले कोई अपनी बला से, या कोई मरता मरे,
इन्सानियत गिर चुका है, इतना इस हुजूम में!

कौन दावा करे? झूठा दंभ कोई क्यूं खुद पर भरे!
कभी शह, कभी मात है, वक्त की ये विसात है,
खुद ही जिन्दगी, छल चुकी है इस हुजूम में!

चेहरा एक तेरा, एक मेरा भी है चेहरों के हुजूम में!
ढ़ोए जा रहा है, यही भीड़, तुझको और मुझको,
अन्तहीन सा दौड़ है, गुम है सब इस हुजूम में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 2 July 2019

निःस्तब्धता

टूटी है वो निस्तब्धता,
निर्लिप्त जहाँ, सदियों ये मन था!

खामोश शिलाओं की, टूट चुकी है निन्द्रा,
डोल उठे हैं वो, कुछ बोल चुके हैं वो,
जिस पर्वत पर थे, उसको तोल चुके हैं वो,
निःस्तब्ध पड़े थे, वहाँ वो वर्षों खड़े थे,
शिखर पर उनकी, मोतियों से जड़े थे,
उनमें ही निर्लिप्त, स्वयं में संतृप्त,
प्यास जगी थी, या साँस थमी थी कोई,
विलग हो पर्वत से, हुए वो स्खलित,
टूटी थी उनकी, वर्षो की तन्द्रा,
भग्न हुए थे तन, थक कर चूर-चूर था मन,
अब बस, हर ओर अवसाद भरा था,
मन में बाक़ी, अब भी, इक विषाद रहा था,
पर्वत ही थे हम, सजते थे जब तक,
तल्लीन थे, तपस्वी थे तब तक,
टूटा ही क्यूँ तप, बस इक शोर हुआ था जब?
अन्तर्मन, इक विरोध जगा था जब,
सह जाना था पीड़, न होना था इतना अधीर!
सह पाऊँ मैं कैसे, टूटे पर्वत का पीड़!

टूटी है वो निस्तब्धता,
निर्लिप्त जहाँ, सदियों ये मन था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा