Friday 19 April 2019

वादों का नया संस्करण

रुक गए थे जहाँ, पल भर को कदम,
ठहरी है वहीं, वो ठंढ़ी सी पवन,
और बिखरे हैं वहीं, रूठे से कई ख्वाब भी,
चलो मिल आएं हम,
फिर, ख्वाबों से, उन्ही पगडंडियों पर!

लहराए थे तुमने, कभी आँचल जहाँ,
सूना सा है, आजकल वो जहां,
रह रही हैं वहाँ, कुछ चुभन और तन्हाईयाँ,
चलो मिटा आएं हम,
फिर, ये तन्हाईयाँ, उन्हीं पगडंडियों पर!

रख दिए थे जहाँ, मन के सारे भरम,
कहीं होके जुदा, तुम और हम,
न जाने उनपर हुए, वक्त के कितने सितम,
चलो तोड़ आएं हम,
फिर वो भरम, उन्हीं पगडंडियों पर!

जहाँ वादों का था, इक नया संस्करण,
हुआ ख्वाबों का, पुनर्आगमण,
शायद बनने लगे, भ्रम के नए समीकरण,
चलो कर आएं हम,
फिर कुछ वादे, उन्हीं पगडंडियों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 17 April 2019

रुहानी बातें-पुरानी बातें

बड़ी ही रुहानी, थी वो पुरानी बातें!

सजाए बदन पर, संस्कारों का गहना,
नजरों का उठना, वो पलकों का गिरना,
लबों का हिलना, मगर कुछ भी न कहना,
शर्मो-हया की, वो ही पर्दों की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

सुबह-सबेरे, उनकी गलियों के फेरे,
भरी दोपहरी, अमुआ के बागों में डेरे,
संध्या-प्रहर, रेडियो संग प्रियजनों के घेरे,
रूमानी रातें, संग सितारों की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें!

शिष्टता में, कुछ बुजुर्गों से न कहना,
खिदमत में उनकी, गर्व महसूस करना,
प्रथम आशीर्वचन, उन बुजुर्गों से ही लेना,
शिष्टाचार और परम्पराओं की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

खेत-खलिहानों की, वो पगडंडियाँ,
ओस में भीगी हुई, गेहूँ की वो बालियाँ,
भींगकर पैरों में सटी, नाजुक सी पत्तियाँ,
फर्स पर घास की, कई सुहानी बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 15 April 2019

पूछती है राहें

न जाने क्यूँ, इक मुझे ही टोक कर,
शायद, तन्हा सफर में देख कर!
थाम कर मेरी बाहें, पूछती है मुझसे ही राहें....

तुम तो हो, बस इक मुसाफिर,
तुम भी, गुजर ही जाओगे,
मैं हूँ इक राह बस, फिर लौट कर न आओगे!

गुजरे कई, गुजरी न ये तन्हाई,
सह गई, विरह और जुदाई,
वर्षों मैं तन्हा रही, क्षणभर न ऐसे रह पाओगे!

इक आग में, मैं सदियों जली,
बिना अनुराग, वर्षों पली,
राहगीर हो तुम, छाँव राहतों के न दे पाओगे!

मिले कई, अपना सा न मिला,
मन में रहा, बस ये गिला,
अपने तो हो तुम भी, अपनापन न दे पाओगे!

अनगिनत रास्ते, हैं तेरे वास्ते,
एक तुझसे, मेरा वास्ता,
हर शै छोड़ गई तन्हा, तुम भी छोड़ जाओगे!

मन पर अंकित हैं, ये रेखाएँ,
जख्म किसे दिखलाएँ,
रेखाएँ के इक मकरजाल, तुम भी दे जाओगे!

न जाने क्यूँ, इक मुझे ही टोक कर,
शायद, तन्हा सफर में देख कर!
थाम कर मेरी बाहें, पूछती है मुझसे ही राहें....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 13 April 2019

पदचिन्ह

पदचिन्ह हैं ये किसके....

क्या गाती विहाग, नींद से जागी प्रभात?
या क्षितिज पे प्रेम का, छलक उठा अनुराग?
या प्रीत अनूठा, लिख रहा प्रभात!

पदचिन्ह हैं ये किसके....

ये निशान किस के, अंकित हैं लहर पे!
क्या आई है प्रभा-किरण, करती नृत्य-कलाएँ?
या आया है कोई, रंगों में छुपके?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

स्थिर-चित्त सागर, विचलित हो रहा क्यूँ?
हर क्षण बदल रही, क्यूँ ये अपनी भंगिमाएं?
हलचल सी मची, क्यूँ निष्प्राणों में?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

चुपके से वो कौन, आया है क्षितिज पे?
या किसी अज्ञात के, स्वागत की है ये तैयारी!
क्यूँ आ छलके है, रंग कई सतरंगे?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

टूट चली है मेरी, धैर्य की सब सीमाएँ!
दिग्भ्रमित हूँ अब मैं, कोई मुझको समझाए!
तनिक अधीर, हो रहा क्यूँ सागर?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा।

Thursday 11 April 2019

संकेत

प्रथमतः, संकेत मुखर हो,
प्रबल कोई आशा, फिर प्रत्युत्तर की हो!

संकेत बसंत का पाकर,
झूमी ये वसुधा,
नव श्रृंगार किए पल्लव नें,
रसपान किया भौरों ने,
कूकी कोयल,
गूंजा एक स्वर, जय-जय बसंत की हो!

प्रथमतः, संकेत मुखर हो,
प्रबल कोई आशा, फिर प्रत्युत्तर की हो!

संकेत मिला जब सावन का,
करती नृत्य क्रीड़ा,
बरसी झूम-झूमकर बदरा,
भींगी हरित हो वसुधा,
लहलहाए फसल,
गूंजा प्राणों में स्वर, सावन की जय हो!

प्रथमतः, संकेत मुखर हो,
प्रबल कोई आशा, फिर प्रत्युत्तर की हो!

संंकेत, मौन व्योम की भाषा,
जीने की अभिलाषा,
मुखरित चेतना की जिज्ञासा,
लिख जाते हैं दो नैंना,
संकेतों में गजल,
गूंजा है ओम, चराचर व्योम की जय हो!

प्रथमतः, संकेत मुखर हो,
प्रबल कोई आशा, फिर प्रत्युत्तर की हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 8 April 2019

कहीं हम न हैं

तुम हो, मैं हूँ, सब हैं, पर कहीं न हम हैं!

बस भीड़ है, शून्य को चीड़ता इक शोर है,
अंतहीन सा, ये कोई दौर है,
तुम से कहीं, तुम हो गुम,
मुझसे कहीं, मैं हो चुका हूँ गुम,
थके से हैं लम्हे, लम्हों में कहीं न हम हैं!

जिन्दा हैं जरूरतें, कितनी ही हैं शिकायतें,
मिट गई, नाजुक सी हसरतें,
पिस गए, जरूरतों में तुम,
मिट गए, इन शिकायतों में हम,
चल रही जिन्दगी, जिन्दा कहीं न हम हैं!

वश में न, है ये मन, है बेवश बड़ा ही ये मन,
इसी आग में, जल रहा है मन,
तिल-तिल, जले हो तुम,
पलभर न खुलकर जिये हैं हम,
इक आस है, पास-पास कहीं न हम है!

चल रहे हैं रास्ते, अंतहीन रास्तों के मोड़ हैं,
दूर तक कहीं, ओर है न छोड़ है,
गुम हो, इन रास्तों में तुम,
गुम हैं कहीं इन फासलों में हम,
सफर तो है, हमसफर कहीं न हम हैं!

दूर कहीं दूर, खड़ी है जिन्दगी,
तुम हो, मैं हूँ, सब हैं, पर कहीं न हम हैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 6 April 2019

फीकी सी चाय

चंद बातें, फीकी सी पड़ती इक चाय....

एक रूह, एक मैं,
एक तुम, एक पल एक संग,
एक एहसास, बेवजह एक बकवास,
एक ही जिद, विछोह भरे वो पल,
और एक तुम!

एक ही हकीकत,
एक चाहत, कितने ही ख्वाब,
एक सपना, गमगीन कितनी ही रात,
भँवर से उठते, हजारों जज़्बात,
और एक तुम!

साथ वो एहसास,
कुम्भलाता, कभी इतराता,
गहराता, उन पलों के नजदीक लाता,
कहीं धूँध में लिपटी एक परछाई,
और एक तुम!

सितारों भरी रातें,
खुली ये आँखें, भूली सी बातें,
एक तड़प, करवटो के दोनों ही तरफ,
ताकती दो आँखें, एक ही चेहरा,
और एक तुम!

यादें, भूले से वादे,
फीकी सी पड़ती एक चाय,
कई रातें, हजार करवटें, कई सिलवटें,
कई सुबह, बिन चीनी इक चाय,
और एक तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 5 April 2019

चुप्पी

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

मन के कोलाहल, क्या सुन पाओगे?
उठते है जो शोर, कदापि ना सह पाओगे,
बवंडर है, इसमें ही फ़ँस जाओगे!

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

मन के आईने में, अक्श ही देखोगे,
बेदाग सा दामन, कहाँ खुद का पाओगे,
सच का सामना, कैसे कर पाओगे!

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

असह्य सी होती हैं, रातों की चीखें,
अंधियारों में, कौन भला किसी को टोके,
वो चीख, भला कैसे सुन पाओगे!

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

चुप्पी साधे, रहता हूँ मन को बांधे,
कितने गिरह, मन की इस गठरी में डाले,
गाँठें मन की, कैसे छुड़ा पाओगे!

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 4 April 2019

जीवन-मृत्यु

प्रवाह में जीवन के, क्यूँ मृत्यु की परवाह करूँ!

गहन निराशा के क्षण, मुखरित होते हैं दो प्रश्न,
दो ही विकल्प, समक्ष रखता है जीवन?
मृत्यु स्वीकार करूँ, या जीवन अंगीकार करूँ!
जग से प्रयाण करूँ, या कुछ प्रयास करूँ!

जीवन के हर संदर्भ में, पलता है दो भ्रम!
किस पथ है मंजिल, मुकम्मल कौन सी चाहत?
सारांश है क्या? क्यूँ होता है मन आहत?
क्या रखूँ, क्या छोड़ूँ, क्या भूलूँ, क्या याद करूँ?

धुन जीवन के सुन लूँ, या मृत्यु ही चुन लूँ!
संदर्भ कोई आशा के, निराश पलों से चुन लूँ!
गर्भ में मृत्यु के, क्या चैन पाता है जीवन?
उलझाते हैं प्रश्न, इक क्षण मिलती नहीं राहत!

अटल है मृत्यु, पर शाश्वत सत्य है जीवन भी....
मृत्यु के पल भी, जीती है जीने की चाहत!
क्यूँ ना, जीवन जी लूँ, क्यूँ मृत्यु को याद करूँ!
जीवन के साथ चलूँ, जीने की चाह बुनूँ!

प्रवाह में जीवन के, क्यूँ मृत्यु की परवाह करूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 2 April 2019

वक्त के संग

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

ठहरा कहीं न जीवन, शाश्वत है परिवर्तन,
गतिशील वक्त, हो वन में जैसे हिरण,
न छोड़ता कहीं, अपने पाँवों की भी निशानी,
चतुर-चपल, फिर करता है ये चतुराई,
वक्त बड़ा ही निष्ठुर, जाने कब कर जाए छल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

न की थी वक्त ने, कोई हम पे मेहरबानी,
करवटें खुद ही, बदलता रहा हर वक्त,
तन्हाई खुद की, है उसे किसी के संग मिटानी,
सोंच कर यही, रहता वो संग कुछ पल,
फिर मौसमों की तरह, बस वो जाता है बदल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

हैं बड़े ही बेरहम, वक्त के ज़ुल्मों-सितम,
चल दिए तोड़ कर, मन के सारे भरम,
यूँ न कोई किसी से करे, छल-कपट बेईमानी,
ज्यूं कर गया है, वक्त अपनी मनमानी,
बिन धुआँ इक आग यह, इन में न जाएं जल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा