जीवन के अनुभवों पर, मेरे मन के उद्घोषित शब्दों की अभिव्यक्ति है - कविता "जीवन कलश"। यूं, जीवन की राहों में, हर पल छूटता जाता है, इक-इक लम्हा। वो फिर न मिलते हैं, कहीं दोबारा ! कभी वो ही, अपना बनाकर, विस्मित कर जाते हैं! चुनता रहता हूँ मैं, उन लम्हों को और संजो रखता हूँ यहाँ! वही लम्हा, फिर कभी सुकून संग जीने को मन करता है, तो ये, अलग ही रंग भर देती हैं, जीवन में। "वैसे, हाथों से बिखरे पल, वापस कब आते हैं! " आइए, महसूस कीजिए, आपकी ही जीवन से जुड़े, कुछ गुजरे हुए पहलुओं को। (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Monday 4 January 2016
वो हो तुम..... !
Sunday 3 January 2016
है कौन सा वो प्रथम स्वर?
पराशक्ति ईश्वर से
Saturday 2 January 2016
मिलना-बिछड़ना! दोनो इक जैसे दिखते
बिछड़ने का दु:ख,
जैसे, सुबह की लालिमा,
संध्या वेला की लालिमा,
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!
फर्क बहुत थोड़ा इनमे,
मिलन में है माधूर्य,
सुबह की लालिमा की
मधुर ठंढ़क सी,
बिछड़ने की गर्म पीड़ा,
संध्या की लाली में
घुली उमस सी।
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!
कुछ क्षण पश्चात्,
शान्त दोनों हो जाते,
न मिलन का सुख,
न विरह का दुःख,
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!
भँवड़े मिलते फूलों से,
माधूर्य पी जाते फूलों का,
रस लेकर उड़ जाते हैं,
पर खिल उठता
फूलों का मन,
बिछड़ने की पीड़ा,
घुल जाती मिलन के,
खुशी भरे एहसास मे,
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!
वो पाषाण हृदय क्या जाने?
तू शोकाकुल मत हो!
फासले सदियों के
Friday 1 January 2016
विश्राम दे प्राणों को तू
पंथ महानिर्वाण का
महनिर्वाण मृत्यु मे शायद
Thursday 31 December 2015
समय और अनुबंध
Wednesday 30 December 2015
जल उठे है मशाल
जल उठे असंख्य मशाल,
शांति, ज्योति, प्रगति के,
उठ खड़े हुए अनन्त हाथ,
प्रशस्त मार्ग हुए उन्नति के।
अनन्त काल जलें मशाल,
अन्त असीम रात्रि-तम हो,
सामने हो प्रखर प्रशस्त प्रहर,
भय दूर हुए जिंदगी के।
ग्यान का उन्नत प्रकाश हो,
अशांति, अचेतन, क्लेश घटे,
धरा पे फैले चांदनी की लहर,
पू्र्ण कामना हुए मानवों के।
कर्मपथ का योद्धा
निर्दोष का कर्मपथ
आशा का दामन
Tuesday 29 December 2015
मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?
अतृप्त अन्तर्मन
Monday 28 December 2015
क्या बीते वर्ष मिला मुझको
सन्निकट अवसान
अवसान सन्निकट जीवन के,
छाए स्वत: हो रहे अब दीर्घ,
वेग-प्रवाह धीमे होते रक्त के,
सांसें स्वतः हो रहे अब प्रदीर्घ।
बीत रहा प्रहर निर्बाध अधीर,
अभिलाशाएँ हृदय की बहाती नीर,
सांझ जीवन की आती अकुलाई,
वश में कर सकै ऐसा कौन प्रवीर।
उत्थान-पतन और विहान-अवसान,
महाश्रृष्टि रचयिता के हैं दो प्रमाण,
जीर्ण होकर ही दे पाता ये नव जीवन,
कर्म अडिग कर, बना अपनी पहचान।