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Monday 4 January 2016

वो हो तुम..... !

वो हो तुम..... !

आभामंडल मुखरित,
नयनों मे रतरजिनी,
होठों पर रज पंखुरी,
प्रकाश पुंज आँखों मे,
कंठ में गीत मधु कामिनी,
स्वर में वीणा का कंपन,
तेज सरस्वती सम्।

वो हो तुम..... !

आशाओं के स्वर,
जीवन ज्योत पुंज,
सप्तरागिणी प्रभात की,
तुम नवगति नवलय ताल,
जड़ जीवन के गीत तुम,
जड़ चेतन का प्राण,
स्पर्श मधुमास सम्।

वो हो तुम..... !

Sunday 3 January 2016

है कौन सा वो प्रथम स्वर?

है कौन सा वो प्रथम स्वर,
आरंभ जहां से होता जीवन संगीत,
फूटते जहाँ से प्राणो के निर्झर,
क्या वो "सा" है? शायद नहीं!
संगीत जीवन का इससे भी है सुन्दर,
सोचता मन अक्सर, है कौन सा वो स्वर?

"सा" तो है महज कल्पना मानस की,
इसने कोशिश की है मात्र,
स्वर को इक देने की सीमा,
जीवन तो है कल-कल बहता निर्झर,
सात स्वरों की सीमाओं मे ये बंधा है कब,
सोचता मन अक्सर, है कौन सा वो स्वर?

प्रथम स्वर उस माता का है शायद,
गर्भ मे सुना जिसको शिशु नवजात ने,
पहला स्वर या फिर ब्रह्मांड का है,
प्रकृति ने सुन जिसको छेड़ी रागिणी,
कलकल सरिताओं ने पर्वत के भेदे हृदय,
सोचता मन अक्सर, है कौन सा वो स्वर?

पराशक्ति ईश्वर से

प्राण बसते उस सूक्ष्म पराशक्ति में,
रमता है जो घट-घट मे,
वो आँसूओं में वो क्रंदन में,
वेदनाओं मे निराशाओं मे,
सन्नाटों के घन आहटों मे,
रमता वो हिम के वियावानों में,
तुम हृदय बसो तभी तुम्हे मानूँ।

तेरे बगैर आँसुओं के मौन,
वेदनाओं के करुण क्रन्दन,
निराशाओं के घनघोर घन,
आहटों के प्रतिपल तेज चरण,
साए चुपचाप, प्रतिविम्ब मौन,
सन्नाटों के क्षण व्याकुल मन,
वेदना तुम झेलो तभी तुम्हे मानूँ।

जग की तुम संताप हर लो,
वेदना जन-जन की ले लो,
आशाओं की नव रश्मि दो,
प्रतिविम्ब को विम्बित कर दो,
मौन को स्वर साधना दे दो,
ब्रहमांड में तुम हुंकार भर दो,
पीड़ा जग की हरो तभी तुम्हे मानूँ।

तुम अगम तुम अगोचर,
विराट तुम पर अन्तर्धान,
मैं तुच्छ तुझे कैसे पहचानूँ,
दृष्टि है पर तू नही दृष्टिगोचर,
महादृष्टि दो तुझे देख पाऊँ,
तुम हृदय बसो तभी तुम्हे मानूँ।
जग के संताप हरो तभी तुम्हे सम्मानूँ।

Saturday 2 January 2016

मिलना-बिछड़ना! दोनो इक जैसे दिखते

मिलने का सुख,
बिछड़ने का दु:ख,
जैसे, सुबह की लालिमा,
संध्या वेला की लालिमा,
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!

फर्क बहुत थोड़ा इनमे,
मिलन में है माधूर्य,
सुबह की लालिमा की
मधुर ठंढ़क सी,
बिछड़ने की गर्म पीड़ा,
संध्या की लाली में
घुली उमस सी।
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!

कुछ क्षण पश्चात्,
शान्त दोनों हो जाते,
न मिलन का सुख,
न विरह का दुःख,
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!

भँवड़े मिलते फूलों से,
माधूर्य पी जाते फूलों का,
रस लेकर उड़ जाते हैं,
पर खिल उठता 
फूलों का मन,
बिछड़ने की पीड़ा,
घुल जाती मिलन के,
खुशी भरे एहसास मे,
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!

वो पाषाण हृदय क्या जाने?

वो पाषाण हृदय क्या जाने?
हृदय है तो, पीड़ा भी होगी!

व्यथा होती है सागर सी गहरी,
पीड़ा होती है कितनी असह्य,
टूटते हैं तार कितने ही जीवन के,
आशाओं की, उम्मीदों की, भावनाओं की,
वो पाषाण हृदय क्या जाने?
हृदय है तो, पीड़ा भी होगी!

तोड़ते है जो हृदय किसी का,
आशाओं के फूल वो मसल देते हैं,
तोड़ जाते है तार मन के प्रांगण के,
देख मगर कहाँ पाता है कोई आँसू, 
विह्वलता का, नीरवता का, अधीरता का,
वो पाषाण हृदय क्या जाने?
हृदय है तो, पीड़ा भी होगी!

गर रखते हो भावुक हृदय,
मत तोड़ना किसी हृदय की आशा,
समझो आँखों की विवश भाषा,
आशाओं में बसता इक जीवन,
भावुकता का, विवशता का, आकंक्षाओं का,
वो पाषाण हृदय क्या जाने?
हृदय है तो पीड़ा भी होगी!

तू शोकाकुल मत हो!

तू शोकाकुल मत हो!

एक जीवन ही तो छूटा है,
शाखा था ईक विशाल,
बस शाखा ही तो टूटा है,
छाए थे जिनके फलदार घने,
विधि ने बस इतना ही तो लूटा है।

तू शोकाकुल मत हो!

शाख गुलशन में और भी हैं,
निराशा तज, नई शाखा तू चुन,
एहसास जीवन का पाने को,
अधीर न हो, सहारा तू इक नई ढूंढ़,
या नीर तू खुद विशाल बन जा,
शीतल तू बन गैरों का तू छाया बन जा।

तू शोकाकुल मत हो!

फासले सदियों के

सदियों के हैं अब फासले,
दिल और सुकून के दरमियाँ,
पीर-पर्वतों के हैं अब दायरे,
सागर और साहिल के दरमियाँ।

खामोंशियों को गर देता कोई सदाएँ,
दिल की गहराईयों मे कोई उतर जाए,
साहिल की अनमिट प्यास बुझा जाए,
दूरियाँ ना रहे अब इनके दरमियाँ।

सागर-लहरों को मिल जाता किनारा,
पर्वत झूम उठता देख दिलकश नजारा,
साहिलों के भी सूखे होठ भीग जाते,
फासले जो हैं दरमियाँ वो मिट जाते।

Friday 1 January 2016

विश्राम दे प्राणों को तू

उत्कृष्ठ आकांक्षाओं की उत्कंठा,
अति से अतिशय पाने की इक्षाएं,
हर क्षण मधु पीने की अतिशयता,
विश्राम कहाँ देती प्राणों को!

असंतुष्ट इक्षाओं की पराकाष्ठा,
जगाती अतृप्त तृष्णा प्राणों मे,
हर क्षण नया आसमान की उत्कंठा,
विश्राम कहाँ देती प्राणों को!

कुछ क्षण ठहर जा असंतुष्ट मन,
मधु की चाहत, इच्छाओं को तू तज,
शांत कर उत्कंठा, मिल जाएगी पराकाष्ठा,
मिले कुछ क्षण विश्राम प्राणों को।

पंथ महानिर्वाण का

उत्कर्ष के हों या अवसान का,
राहें तमाम ले जाती उस ओर,
निवास जहाँ उस परब्रम्ह का है,
वो पंथ जहाँ महा निर्वाण है।

आकांक्षाएँ जीवन की सारी,
शायद पूरी हो जाती इक जगह,
विषाद मनप्रांगण की मिट जाती,
वो पंथ जहाँ महा निर्वाण है।

राहें प्यासी जीवन की सारी,
शायद मिलती हैं इक जगह,
केन्द्रित ये इक जगह हो जाती,
वो पंथ जहाँ महा निर्वाण है।

तज सांसारिक इच्छाएं सारी,
सत्य को परख तू उस जगह,
अवसाद विसाद जहां मिट जाती,
वो पंथ जहाँ महा निर्वाण है।

महनिर्वाण मृत्यु मे शायद

महनिर्वाण मृत्यु मे शायद!

पंथ जिसपर ईश्वर का निवास है,
आत्माएँ विलीन जहाँ हो जाती है,
विकार मन के जहाँ घुल जाते हैं,
महानिर्वाण शायद वहीं मिलता है।

ईश तत्वग्याण का प्रारंभ जहाँ है,
किरण सत्यमार्ग का फूटता जहाँ है,
आशा-निराशा का उत्थान जहाँ है,
महानिर्वाण शायद वहीं मिलता है।

आधार स्तम्भ जो जीवन का है,
प्रारंभ वही तो महाजीवन का है,
जीवन मृत्यु जिसकी सीमा रेखा है,
महानिर्वाण शायद वहीं मिलता है।

Thursday 31 December 2015

समय और अनुबंध

अनुबंधों में हम बंध सकते हैे,
समय नही अनुबंधों में बंधता,
समय निरंकुश क्या बंध पाएगा,
अनुबंधों की परिधियां तोड़ता,
गंतव्य की ओर निकल जाएगा।

मानव विवश है समय सीमा में,
सुख-दुख दोनों समय के हाथों,
अनुबंध की शर्तें विवश समय मे,
समय सत्ता जो समझ पाएगा,
अनुबंधो के पार वही जा पाएगा।

Wednesday 30 December 2015

जल उठे है मशाल

जल उठे असंख्य मशाल,
शांति, ज्योति, प्रगति के,
उठ खड़े हुए अनन्त हाथ,
प्रशस्त मार्ग हुए उन्नति के।

अनन्त काल जलें मशाल,
अन्त असीम रात्रि-तम हो,
सामने हो प्रखर प्रशस्त प्रहर,
भय दूर हुए जिंदगी के।

ग्यान का उन्नत प्रकाश हो,
अशांति, अचेतन, क्लेश घटे,
धरा पे फैले चांदनी की लहर,
पू्र्ण कामना हुए मानवों के।

कर्मपथ का योद्धा

कर्मपथ पर चल निर्बाध अग्रसर,
नित समर बाधाओं से तू ना डर,
इस कर्मपथ का है तू अजेय योद्धा,
तू हर बाधा पर विजय कर।

विचलित तुझको न कर सकेंगे,
अंजान राहों के घनघोर अंधेरे,
निर्बाध गति से तू बढ़ निरन्तर,
 इस पथ ही समक्ष मिलेंगे सवेरे।

हिम्मत के आगे निराशा निरूत्तर,
मेहनत के आगे असफलता विफल,
प्रतिभा को कर तू इतना प्रखर,
लक्ष्य खुद हो जाए तेरा सफल।

निर्दोष का कर्मपथ

कर्म-पथ की इन राहों पर,
मानदण्डों के उच्च शिखर,
सदा स्थापित मैं करता रहा,
फिर क्युँ कर मैं दोषी हुआ?

षडयंत्र को मैं जान न पाया,
हाथ पकड़ जिसने करवाया,
अब तक उसको दोस्त सा पाया,
फिर वो कैसे निर्दोष हुआ?

ईश्वर इसकी करे समीक्षा,
दोष-निर्दोष का है वो साक्षी,
देनी हो तो दे दो मुझे दीक्षा,
दोषी मैं वो निर्दोष कैसे हुआ?

आशा का दामन

प्याले जो टूटे तो क्या,
क्षणभंगूर इन्हें टूटना ही था,
भाग्य मे लिखा है इनके,
टूटना! टूट बिखर फिर जाना क्या।

नियति पर किसका चलता,
अपनी हाथों मे कहाँ कुछ होता,
अपनी हाथों किस्मत की रेखा,
तो फिर इनका शोक मनाना क्या।

हे मानव! तू कर्म किए जा,
आशा का दामन तू रह थामे,
राह कितने भी हो कठिन,
इन राहों पे रुक जाना भी क्या।

Tuesday 29 December 2015

मेरा एकाकीपन

मैं अकेला,
अग्यात् रश्मिकण,
जीवन की सांध्य वेला।

मेरा एकाकीपन
देकर स्नेह चुंबन,
बांधती जाती मुझे अकेला।

पी गया मैं
गरल जीवन का,
समझ मधुघट अलबेला।

मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?

मिटती नही मन की क्युँ प्यास !

जैसे जीवन में गायन हो कम,
गायन में हों स्वर का अधूरापन,
स्वर में हो कंपन का विचलन,
कंपन में हो साँसों का तरपन ।

मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?

जीवन दो क्षण सुख के मिले,
और प्यास मिली रेगिस्तानों सी,
मृगतृष्णा अनंत अरमानों के मिले,
प्यास मिली कितनी प्रबल सी।

मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?

अतृप्त अन्तर्मन

अतृप्ति कितना अन्तर्मन में,
विह्वल प्राण आकुल तन में,
पीड़ा उठते असंख्य प्रतिक्षण में,
अतृप्त कई अरमान जीवन में।

मधु चाहता पीना ये हर क्षण,
अगणित मधु प्यालों के संग,
चाहे मादकता के कण-कण,
आह! अतृप्त कितना है जीवन।

असंख्य मधु-प्याले पीकर भी,
बुझ पाती नही मन की प्यास,
शायद तृप्ति ही है यह क्षणिक,
आह! अतृप्ति अटल अन्तर्मन में।

Monday 28 December 2015

क्या बीते वर्ष मिला मुझको

पथ पर ठहर मन ये सोचे,
क्या बीते वर्ष मिला है मुझको।

चिरबंथन का मधुर क्रंदन या
लघु मधुकण के मौन आँसू।

स्वच्छंद नीला विशाल आकाश या
अनंत नभमंडल पर अंकित तारे।

चिन्ता, जलन, पीड़ा सदियों का या,
दो चार बूँद प्यार की मधुमास।

अवसाद मे डूबा व्यथित मन या
निज जन के विछोह की अमिट पीड़ा।

मौन होकर ठहर फिर सोचता मन,
क्या बीते वर्ष मिला है मुझको।

सन्निकट अवसान

अवसान सन्निकट जीवन के,
छाए स्वत: हो रहे अब दीर्घ,
वेग-प्रवाह धीमे होते रक्त के,
सांसें स्वतः हो रहे अब प्रदीर्घ।

बीत रहा प्रहर निर्बाध अधीर,
अभिलाशाएँ हृदय की बहाती नीर,
सांझ जीवन की आती अकुलाई,
वश में कर सकै ऐसा कौन प्रवीर।

उत्थान-पतन और विहान-अवसान,
महाश्रृष्टि रचयिता के हैं दो प्रमाण,
जीर्ण होकर ही दे पाता ये नव जीवन,
कर्म अडिग कर, बना अपनी पहचान।