जीवन के अनुभवों पर, मेरे मन के उद्घोषित शब्दों की अभिव्यक्ति है - कविता "जीवन कलश"। यूं, जीवन की राहों में, हर पल छूटता जाता है, इक-इक लम्हा। वो फिर न मिलते हैं, कहीं दोबारा ! कभी वो ही, अपना बनाकर, विस्मित कर जाते हैं! चुनता रहता हूँ मैं, उन लम्हों को और संजो रखता हूँ यहाँ! वही लम्हा, फिर कभी सुकून संग जीने को मन करता है, तो ये, अलग ही रंग भर देती हैं, जीवन में। "वैसे, हाथों से बिखरे पल, वापस कब आते हैं! " आइए, महसूस कीजिए, आपकी ही जीवन से जुड़े, कुछ गुजरे हुए पहलुओं को। (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Wednesday, 20 January 2016
तुम्हारी यादों के संग
माँ का आशीर्वचन
उतरे किरण स्वर्ग की भू पर,
सपनों का उजियारा लेकर,
पुलक उठे जन-जन का अन्तर,
यह नववर्ष तुम्हारे जीवन को,
खुशियों से पूरित कर दे,
गुरुजन का आशीष कवच बन,
प्रतिक्षण तेरी रक्षा कर दे,
परमपिता परमेश्वर से यही विनती,
तेरी प्रगति के पथ को विस्तृत कर दे,
मंगलमय हो नया सवेरा।
(यह मेरी माँ, श्रीमति सुलोचना वर्मा, के द्वारा अपनी आवाज में भेजी गई आशीर्वचन का रुपान्तरण है)
माता जी विदुषी तथा हिन्दी की अध्यापिका थी और अब 70 वर्ष से अधिक की हैं। मेरी शिक्षा उन्हीं के सानिध्य में हुई।
पीड़ा सृष्टि के कण-कण में
लक्ष्य
पतवार जीवन का
जोगन और बटोही
युगों से द्वार खड़ी वाट जोहती वटोही का वो!
शायद भूल चुका वादा अपना चितचोर वो वटोही,
मुड़कर वापस अबतक वो क्युँ ना आया?
यही सोचती वो जोगन वाट जोहती!
वो निष्ठुर हृदय उसको तनिक भी दया न आई,
मैं अबला उसने मेरी ही क्युँ चित चुराई?
चित चुराने ही आया था वो सोचती!
फिर सोचती! होगी कोई मजबूरी उसकी भी,
चितचोर नही हो सकता मेरा परदेशी!
समझाती मन को फिर राह देखती!
मेरे विश्वास का संबल बसता हिय उस परदेशी के,
बल मेरे संबल का क्या इतना दुर्बल?
वाट जोहती जोगन रहती सोचती!
भाग्य रेखा मेरे ही हाथों की है शायद कमजोर,
कर नही पाती मदद जो ये मेरे प्रीतम की,
बार-बार अपने मन को समझाती!
अब तो बाल भी सफेद हो गए आँखें कमजोर,
क्या मेरा वटोही अब देखेगा मेरी ओर?
झुर्रियों को देख अपनी सिहर जाती!
युगों तक बस वाट जोहती रही उस वटोही का वो!
जोगन की विश्वास का संबल दे गया अथाह खुशी,
वक्त की धूंध से वापस लौट आया वो परदेशी!
अश्रुपूर्ण आखें एकटक रह गई खुली सी।
हिय लगाया उस जोगन को काँपता वो परदेशी,
व्यथा जीवन सारी आँखों से उसने कह दी,
निष्ठुर नहीं किश्मत का मारा था वो वटोही!
खिल उठी विरहन सार्थक उसकी तपस्याा हुई!
युगों युगों तक फिर वो जोगन, उस वटोही की हो गई।
अब सोचती! मेरा प्रीतम चितचोर था, पर निष्ठुर नही!