Wednesday, 20 January 2016

जनम जनम का वादा


वादा हमने किया था मिलेंगे अगले जनम,
लो हम तुमसे मिल गए दिलबर इस जनम।

एतबार तुमने हम पर किया पिछले जनम,
प्रीत हमने भी निभा दी प्रियतम इस जनम।

तुम करती रहना वादा मिलने का हर जनम,
हम आते रहेंगे तुमसे मिलने जनम जनम।

सात वचनों के बंधन से बंधे तुमसे इस जनम,
 एक वचन तुम भी दो करोगे वादा हर जनम। 

तुम्हारी यादों के संग

दिल तन्हा भटक रहा वादियों में,
सुरमई यादों के साये,
उड़ रहा बादलों के संग मे।

तुम छिपे हो किन परछाईयों मे,
मेरे गीत तुझको पुकारते,
मचल कर हवाओं के संग में।

शमां बदल रहा है मदहोशियों मे,
दिये जल रहे सुलगते,
बेचैनियाँ अब तन्हाईयों के संग में।

गुफ्तगु कर रहा दिल विरानियों मे,
अपनी ही परछाईयों से,
दब चुके खामोशियों के संग में।

माँ का आशीर्वचन

मंगलमय हो नया सवेरा,

उतरे किरण स्वर्ग की भू पर,
सपनों का उजियारा लेकर,
पुलक उठे जन-जन का अन्तर,
यह नववर्ष तुम्हारे जीवन को,
खुशियों से पूरित कर दे,
गुरुजन का आशीष कवच बन,
प्रतिक्षण तेरी रक्षा कर दे,
परमपिता परमेश्वर से यही विनती,
तेरी प्रगति के पथ को विस्तृत कर दे,

मंगलमय हो नया सवेरा।

(यह मेरी माँ, श्रीमति सुलोचना वर्मा, के द्वारा अपनी आवाज में भेजी गई आशीर्वचन का रुपान्तरण है)
माता जी विदुषी तथा हिन्दी की अध्यापिका थी और अब 70 वर्ष से अधिक की हैं। मेरी शिक्षा उन्हीं के सानिध्य में हुई।

पीड़ा सृष्टि के कण-कण में

शशि प्रखर फिर भी कहीं आलोक नही है उनमे,
पीड़ा असंख्य पल रहा सृष्टि के कण कण में!

हृदय कभी जलता धू धू रवि अनल सा,
तमता मानस पटल फिर भूतल तवा सा,
तब साँसे चलती जैसे सन सन पवन सी,
तन से पसीना बहता दुष्कर निर्झर सा।

पीड़ा अनेको पी गया समझ गरल जीवन में।

घनघोर वर्षा कर रहा क्रंदन गगन गर्जन ,
वज्र वर्जन से मची कोलाहल मन प्रांगण,
अँधेरी सियाह रात मौत सा छाया आंगन,
शीत प्रलय कर रहा थरथराता मानव मन।

भू से भिन्न पीड़ा का दूसरा ही लोक जीवन में,
शशि प्रखर फिर भी कहीं आलोक नही है उनमे।

लक्ष्य

क्या लक्ष्य तेरा कहीं भटक चुका है?

साथ चला तू,
जिसे लेकर जीवन भर,
जिसकी फिक्र तू,
करता रहा सारी उमर,
वह मात्र स्थुल शरीर नहीं हो सकता?

क्या मार्ग तेरा गलत दिशा मुड़ चुका है?

तेरी चिन्ता तो,
तेरी काया के भी परे है,
पर भटकता तू,
सदा भौतिक सुख के पीछे है!
यश कीर्ति कहाँ रही तेरी प्राथमिकता?

क्या जीवन तेरा कहीं पर खो चुका है?

नभ पर तू,
ऊँचा उड़ता गिद्ध को देख,
उस ऊचाई पे,
उसे अहम के वहम ने है घेरा,
क्या कर्म उसके दे पाएगी उसे प्रभुसत्ता?

क्या कर्म पथ तेरा कहीं भटक चुका है?

पतवार जीवन का

खे रहा पतवार जीवन का,
चल रहा तू किस पथ निरंतर,
अनिश्चित रास्तों पर तू दामन धैर्य का धर,
है पहुँचना तुझे उस कठिन लक्ष्‍य पर।

देख बाधाएँ सम्मुख विकट,
छोडना़ मत पतवार तुम,
निश्चित होकर तू अपना कर्म कर,
कर्म तेरा तुझको ले जाएगा लक्ष्य पर।

अनिश्चित सदा ही कर्म फल,
पर कर्म से यदि रहा यह पथ वंचित,
हो न पाएगा यश तेरा संचित,
धैर्य तेरा ले जाएगा तुझे उस लक्ष्य पर।

निशान कठिन रास्तों के भी,
मिलते नही लक्ष्य शिखर पर कभी,
तू बचा सका गर अपना अस्तित्‍व,
मिल जाएगा अपनत्‍व तुझे उस लक्ष्य पर।

जोगन और बटोही

युगों से द्वार खड़ी वाट जोहती वटोही का वो!

शायद भूल चुका वादा अपना चितचोर वो वटोही,
मुड़कर वापस अबतक वो क्युँ ना आया?
यही सोचती वो जोगन वाट जोहती!

वो निष्ठुर हृदय उसको तनिक भी दया न आई,
मैं अबला उसने मेरी ही क्युँ चित चुराई?
चित चुराने ही आया था वो सोचती!

फिर सोचती! होगी कोई मजबूरी उसकी भी,
चितचोर नही हो सकता मेरा परदेशी!
समझाती मन को फिर राह देखती!

मेरे विश्वास का संबल बसता हिय उस परदेशी के,
बल मेरे संबल का क्या इतना दुर्बल?
वाट जोहती जोगन रहती सोचती!

भाग्य रेखा मेरे ही हाथों की है शायद कमजोर,
कर नही पाती मदद जो ये मेरे प्रीतम की,
बार-बार अपने मन को समझाती!

अब तो बाल भी सफेद हो गए आँखें कमजोर,
क्या मेरा वटोही अब देखेगा मेरी ओर?
झुर्रियों को देख अपनी सिहर जाती!

युगों तक बस वाट जोहती रही उस वटोही का वो!

जोगन की विश्वास का संबल दे गया अथाह खुशी,
वक्त की धूंध से वापस लौट आया वो परदेशी!
अश्रुपूर्ण आखें एकटक रह गई खुली सी।

हिय लगाया उस जोगन को काँपता वो परदेशी,
व्यथा जीवन सारी आँखों से उसने कह दी,
निष्ठुर नहीं किश्मत का मारा था वो वटोही!

खिल उठी विरहन सार्थक उसकी तपस्याा हुई!
युगों युगों तक फिर वो जोगन, उस वटोही की हो गई।

अब सोचती! मेरा प्रीतम चितचोर था, पर निष्ठुर नही!


Tuesday, 19 January 2016

निशा स्नेह निमंत्रण

निशा रजनी फिर से खिल आई,
कोटि दीप जल करती अगुवाई,
कीट-पतंगें उड़ती भर तरुणाई।

खिल उठेे मुखमंडल रात्रिचर के
अदभुत छटा छाई नभमंडल पे,
गूंज उठी रात्रि  स्वर कंपन से।

झिंगुर, शलभ, कीट, पतंगे  गाते,
विविध नृत्य कलाओं से मदमाते,
आहुति दे अपनी उत्सव मनाते।

नववधु अातुर निशा निमंत्रण को,
सप्तश्रृंगार कर बैठी आमंत्रण को,
हृदय धड़कते नव गीत गाने को ।

स्नेह की बूँद निशा ने भी बरसाए,
मखमली शीत की चादर बिछाए,
 स्नेहिल मदिरा मकरंद सी मदमाए।

रंग

रंग असंख्य जीवन की बगिया के, 
                      चटक रहे कुछ ऐसे घुल मिल के,
अद्भुद  छटा  की  सुंदर आभा से, 
                        पुलकित कर जाते प्राण हृदय के।

 चमकीले रंगों मे ही छिपा है जीवन, 
                      कुछ लुभावने रंग  तुम भी चुन लो,
सराबोर कर दो तुम इनमे खुद को 
                       मनचाहे रंगो से तुम जग को रंग दो।

जब खुद को तुम पूरा खोल पाओगे, 
                      इन रंगो सा तुम भी निखर जाओगे,
जीवन नाचती गाती इर्द-गिर्द पाओगे,
                         मतलब होली का तब समझ पाओगे।

विविध  स्वरूप  रंगों के  खिल आते, 
                        जब रंग अनेक अापस में मिल जाते, 
सराबोर करने की लग जाती है होड़, 
                         तू ले चल मुझे भी उन रंगों की ओर।

मुझे सींचकर तुम क्या पाओगे?

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

मैं एक पुलिंदा हूँ संवेदनाओं का,
रख दी गई है जो समेट उस कोने में,
व्यर्थ गई भावनाएँ मन को समझाने में।
बन चुका बस एक फसाना बेगाने में।

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

मैं एक पुलिंदा हुँ अरमानों का,
साँस छूट चुके है जिनके घुट-घुट के,
छुपा दी गई जिन्हे पीछे उस झुरमुट के,
कुछ मोल नहीं इन निश्छल जज्बातों के।

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

मैं एक पुलिंदा हूँ कल्पनाओं का,
असंख्य तार टूट चुके हैं कल्पनाओं के,
गुजरेगी अब कैसे कंपन वेदनाओं के,
मृत हो चुके हैं संभावना संवेदनाओं के।

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?