Wednesday 20 January 2016

पीड़ा सृष्टि के कण-कण में

शशि प्रखर फिर भी कहीं आलोक नही है उनमे,
पीड़ा असंख्य पल रहा सृष्टि के कण कण में!

हृदय कभी जलता धू धू रवि अनल सा,
तमता मानस पटल फिर भूतल तवा सा,
तब साँसे चलती जैसे सन सन पवन सी,
तन से पसीना बहता दुष्कर निर्झर सा।

पीड़ा अनेको पी गया समझ गरल जीवन में।

घनघोर वर्षा कर रहा क्रंदन गगन गर्जन ,
वज्र वर्जन से मची कोलाहल मन प्रांगण,
अँधेरी सियाह रात मौत सा छाया आंगन,
शीत प्रलय कर रहा थरथराता मानव मन।

भू से भिन्न पीड़ा का दूसरा ही लोक जीवन में,
शशि प्रखर फिर भी कहीं आलोक नही है उनमे।

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