Thursday, 19 March 2020

धुंधलाहट

हैं कहीं, कोहरे सी जमीं?
या फिर, धुंधलाने लगा है जरा सा!
पारदर्शी सा, ये शीशा!

कुछ भी, पहले सा नहीं!
पटल वही, दृश्य वही, साँसें हैं वही!
कुछ, नया भी तो नहीं!

शायद, घुल रहा हो भ्रम?
भ्रमित हो मन, डरा हो अन्तःकरण!
दिशाएँ, हो रही हो नम!

कहीं, बारिश भी तो नहीं!
तपिश है, जलन है, गर्माहट है वही!
फिर क्यूँ, नमीं सी जमीं!

चुप होने लगी, हैं तस्वीरें!
ख़ामोश होने लगी हैं, सारी तकरीरें!
मिटने लगी हैं ये लकीरें!

भटकने लगे, हैं ये कदम!
हलक तक, आकर रुकी है जान ये!
अटक सी, गई ये साँसें!

है अपारदर्शी, ये व्यापार!
मनुहार, चल रहा शीशे के आर पार!
धुआँ सा, उठता गुबार!

हैं कहीं, कोहरे सी जमीं?
या फिर, धुंधलाने लगा है जरा सा!
पारदर्शी सा, ये शीशा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 17 March 2020

रातों की गहराई में

रातों की गहराई में!
जब ये सृष्टि सारी, ढ़ँक जाती है,
प्रयत्न करता हूँ फिर मैं भी,
खुद को ढ़ँक लेने की,
जीवन के कड़वे सच से,
मुँह मोड़ लेने की,
दिन सा मैं भी,
अंधियारों में छुप जाता हूँ,
संज्ञाहीन बन जाता हूँ,
बिछ जाती है रातों की चादर,
सत्य, जरा ढ़ँक जाता है,
पर, अन्दर, 
फूलती-चलती है साँसें, 
गहराता है सत्य,
जग उठती है, ये शुन्य मति,
टूटती है संज्ञाहीनता,
भान सा होता है,
दूर क्षितिज पे कहीं,
फूटती है रौशनी,
सत्य, भला कब सोता है,
रातों की गहराई में!

गहराते अंधियारे में!
सन्नाटों के, बढ़ते शोर-शराबे में,
सत्य, कहाँ घबराता है,
हरपल अडिग,
अनवरत संघर्षरत,
कर देता है,
अंधियारे को नतमस्तक,
खुल जाते हैं चौंधकर, 
मेरे दो पलक,
विस्मयकारी यह सत्य,
सोचता है मन,
क्या,
मुँह मोड़ लेना,
ही है
जीवन?
जलता-बुझता है क्षितिज,
आजीवन!
नित ले आती है,
नई प्रभा,
चकाचौंध आभा,
जग पड़ती है, सोई संज्ञा,
रातों की गहराई में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 15 March 2020

मन चाहे

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

संदर्भ नए, फिर लिख डालूँ,
नजर, विकल्पों पर फिर से डालूँ,
कारण, सारे गिन डालूँ,
हारा भी, तो मैं,
क्यूँ हारा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

खोए से वो पल, दोहरा लूँ,
जीवन से, बिखरे लम्हे पा डालूँ,
मोती, बिखरे चुन डालूँ,
बिखरा तो, वो पल,
क्यूँ बिखरा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

ख्वाब अधूरे, चाहत के सारे,
जीवन के, भटकावों से हम हारे,
खुद को ही, समझा लूँ,
ठहरा भी, तो मैं,
क्यूँ ठहरा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

अक्सर, ये मन

चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!

जाने, क्या-क्या रखा है मन के तहखाने?
सुख-दु:ख के, अणगिण से क्षण!
या कोई पीड़-प्रवण!
क्षणिक मिलन,
या हैं दफ्न!
दुरूह, विरह के क्षण!

चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!

संताप कोई, या, अकल्प सी बात कोई?
शायद, अधूरा हो संकल्प कोई!
कहीं, टूटा हो दर्पण!
बिखरा हो मन,
या हैं दफ्न!
गहरा सा, राज कोई!

चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!

किसने डाले, इस अभिव्यक्ति पर ताले?
जज़्बातों के, ये कैसे हैं प्याले?
गुप-चुप, पीता है मन!
सोती है धड़कन,
या हैं दफ्न!
चीखती, आवाज कोई!

चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 14 March 2020

अक्सर

कुछ बातें, अक्सर!
आकर, रुक जाती हैं होठों पर!

निर्बाध, समय बह चलता है,
जीवन, कब रुकता है!
खो जाती हैं सारी बातें, कालचक्र पर,
पथ पर, रह-रह कर,
कसक कहीं, उठती है मन पर,
कह देनी थी, वो बातें,
रुक जाती थी जो आकर,
इन होंठों पर, 
अक्सर!

ठहरी सी, बातों के पंख लिए,
पखेरू, बस उड़ता है!
हँसता है वो, जीवन के इस छल पर,
रोता है, रह-रह कर,
मंडराता है, विराने से नभ पर,
कटती हैं, सूनी सी रातें, 
अनथक, करवट ले लेकर,
जीवन पथ पर, 
अक्सर!

कल-कल, बहता सा ये निर्झर,
रोके से, कब रुकता है!
फिसलन ही फिसलन, इस पथ पर,
नैनों में, बहते मंजर,
फिसलते हांथो से, वो अवसर,
देकर, यादों की सौगातें, 
चूमती हैं, आगोश में लेकर,
इन राहों पर,
अक्सर!

कुछ बातें, अक्सर!
आकर, रुक जाती हैं होठों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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Wednesday, 11 March 2020

पुकार लो

छोड़ो दर्प, पुकार लो, फिर उसे!

जीर्ण हो, या नवीन सा श्रृंगार हो,
नैन से नैन का, चल रहा व्योपार हो,
फिर ये शब्द, क्यूँ मौन हों?
ये प्रेम, क्यूँ गौण हो?
बेझिझक, होंठ ये खोल दो,
पुकार लो, फिर उसे!

गर्भ में समुद्र के, दबी कितनी ही लहर,
दर्प के दंभ में, जले भाव के स्वर,
डूब कर, गौण ही रह गए, 
वो लहर, वो भँवर, मौन जो रह गए, 
तैर कर, पार वे कब हुए!
उबार लो, फिर उसे!

अतिवृष्टि हो, अल्प सा तुषार हो,
मेघ से मेह का, बरस रहा फुहार हो,
फिर आकाश, क्यूँ मौन हो?
प्रकाश, क्यूँ गौण हो?
बेझिझक, गांठ ये खोल दो,
निहार लो, फिर उसे!

छोड़ो दर्प, पुकार लो, फिर उसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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दर्प: - अहंकारघमंडगर्व; मन का एक भावजिसके कारण व्यक्ति दूसरों को कुछ न समझे; अक्खड़पन। 


Tuesday, 10 March 2020

घुले गुलाल

हर सवाल, यूँ ही बन उड़े गुलाल!

अंग-अंग, घुल चुके अनेक रंग,
लग रहे हैं, एक से,
क्या पीत रंग, क्या लाल रंग?
गौर वर्ण या श्याम वर्ण!
रंग चुके एक से,
हुए हैं आज हल, कई सवाल!

हर सवाल, यूँ ही बन उड़े गुलाल!

प्रश्नों की झड़ी, यूँ ही थी लगी,
भिन्न से, सवाल थे!
बड़े ही अजीब से, जवाब थे!
वो अजनबी से जवाब,
एक स्वर में ढ़ले,
धुल चुके हैं आज, हर मलाल!

हर सवाल, यूँ ही बन उड़े गुलाल!

अभिन्न से बने, वो विभिन्न रंग,
ढ़ंके रहे, गुलाल से,
सर्वथा भिन्न-भिन्न, से ये रंग!
बड़े अजीज, हैं ये रंग,
हरेक प्रश्न से परे,
खुद गुलाल, कर रहे सवाल!

हर सवाल, यूँ ही बन उड़े गुलाल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

होली 2020
सामाजिक समरसता की कामनाओं सहित बधाई

Monday, 9 March 2020

पहाड़ों पे

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

विशाल हृदय, वो स्नेह भरा दामन, 
इक सम्मोहन, वो अपनापन,
विस्मित करते, वो आकर्षण के पल,
बसे, नज़रो में हैं, हर-पल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

रोक रही राहें, खुली पर्वत सी बाँहें,
इक परदेशी, लौट कैसे जाए,
यूँ बांध गए थे, पाँवों में बेरी वो पल,
था तिलिस्म कोई, उस पल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

संदेश कोई, ले आई थी मंद पवन, 
मैं, एकाग्र-चित्त, ध्यान मग्न,
सांध्य किरण, लाई थी इक सिहरन,
ठहरे वो पल, थे बड़े चंचल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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"पहाड़" हमेशा से ही हमारी अनुभूतियों को सजग करने में सक्षम रहे हैं,  जब भी इनकी ऊच्च शिखरों को देखता हूँ तो अनायास ही उस ओर खींचा चला जाता हूँ और लगता है जैसे "खुद को छोड़ आया हूँ उन पहाड़ों में ...."  -  पहाड़ों में 

मेरी परछाईं

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

बीती, जब जीवन की अमराई,
मंद पड़ी, जब जीवन की जुन्हाई,
पास कहीं ना, वो दिखती थी,
शायद, वो थी अब घबराई!

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

शायद वो थी, बस इक हरजाई!
कदमों की लय पर, वो चलती थी,
धूप ढ़ले, बस वो भी ढ़लती थी,
इन, बाहों में, कब आई?

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

ता-उम्र, साथ रही मेरी परछाईं,
थी फिर भी, मेरे हिस्से ही तन्हाई,
गुमसुम, बस चुप वो रहती थी,
पीड़ मेरी, वो पढ़ ना पाई!

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

मुझ बिन, कैसे झेलेगी तन्हाई?
कौन कहेगा, चल ऐ मेरी परछाई,
पीड़ वही, अब वो भी झेलेगी,
कल तक, थी जो इतराई!

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 8 March 2020

रंग

ओ 
बेजार से रंग,
छलक 
जाओ!

बड़े 
बेरंग हैं, 
कई दामन,
बड़े 
बदरंग हैं 
कई
आँचल,
जाओ, 
रंग उनमें, 
जरा 
भर आओ!

हो 
उदासीन बड़े!
क्यूँ हो?
तुम,
दूर खड़े,
तुम तो,
खुद
बिसरे
कि
तुम 
हो रंग
बड़े,
कर दो
दंग,
जरा
बिखर जाओ,
हैं,
रंगहीन से,
कई
सपने,
सप्त-रंग सा,
उमर
जाओ!

तुम 
जो रूठे 
हो तो
रूठी 
है 
ये दुनियाँ,
सूनी
है 
मांग कई,
हुई 
फीकी
सी
नई 
चूड़ियाँ,
कोई
रंग,
बेरंग न हो,
बरस
जाओ!

ओ 
बेजार से रंग, 
छलक 
जाओ! 

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)