Friday, 19 February 2021

याचक तेरा

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

किसी सुन्दरता का, बन पाता श्रृंगार,
किसी गले का, बन पाता हार,
पर, आकर्षण इतना भी नहीं मुझमें, 
सुंदर इतना भी, नहीं मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

कौन पूछता, बेजान पड़े पत्थरों को,
सदियों से, उजड़े हुए घरों को,
जीवन्त कोई, उपसंहार नहीं जिसमे,
कुछ-कुछ, ऐसा ही मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

मैं तो, दूर पड़ा था, एकान्त बड़ा था,
इस मन में, व्यवधान जरा था,
कौन यहाँ, जो संग मेरे पथ पर चले,
इस लायक भी नही मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

है इस उर में क्या, समझे कौन यहाँ,
नादां सा मन, ऐसा और कहाँ!
पर, विराना सा, जैसे हो इक वादी,
वैसा ही, फरियादी मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

एहसान बड़ा, जो, आ बसे मुझ में, 
स्वर लहरी बन, गा रहे उर में,
अपलक, सुनता हूँ अनसुना गीत,
बन कर, इक राही मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

श्रृंगार बन सका तेरा, उद्गार ले लो,
इन साँसों का, उपहार ले लो,
इक निर्धन, और दे पाऊँ भी क्या,
याचक हूँ, तेरा ही मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 17 February 2021

कैसा भँवर

जाने क्यूँ? बह पड़े हैं, सारे भाव!
अन्तः, जाने कैसा है भँवर!
पीड़ असहज, दे रहे हृदय के घाव!
ज्यूँ फूट पड़े हैं छाले!

पर, अब तक, बड़ा सहज था मैं!
या, कुछ ना-समझ था मैं?
शायद, अंजाना सा, यह प्रतिश्राव,
आ लिपटा है मुझसे!

शायद, जाग रही, सोई संवेदना,
या, चैतन्य हो चली चेतना!
या, हृदय चाहता, कोई एक पड़ाव,
आहत होने से पहले!

जाने क्यूँ, अनमनस्क से हैं भाव!
अन्तः, उठ रहा कैसा ज्वर!
कंपित सा हृदय, पल्पित सा घाव!
ज्यूँ छलक रहे प्याले!

भँवर या प्रतिश्राव, तीव्र ये बहाव,
समेट लूँ, सारे बहते भाव!
रोक लूँ, ले चलूँ, ऊँचे किनारों पर,
बिखर जाने से पहले!

जरा, समेट लूँ, यह आत्म-चेतना,
फिर कर पाऊंगा विवेचना!
व्याकुल कर जाएगा, ये प्रतिश्राव,
संभल जाने से पहले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 14 February 2021

एक कशमकश

सोचता हूँ, कह ही दूँ!
सूई सा दंश ये, क्यूँ अकेला ही मैं सहूँ!

चाह कर भी, असंख्य बार,
कह न पाया, एक बार,
पहुँच चुका,
उम्र के इस कगार,
रुक कर, हर मोड़ पर, बार-बार,
सोचता हूँ,
गर, वक्त रहे, सत्य को सकारता,
मुड़ कर, उन्हें पुकारता,
दंश, ये न झेलता,
पर अब,
भला, कुछ कहूँ या ना कहूँ!

सोचता हूँ, कह ही दूँ!
सूई सा दंश ये, क्यूँ अकेला ही मैं सहूँ!

रोकती रही, ये कशमकश,
कर गई, कुछ विवश,
छिन चला,
इस मन का वश,
पर रहा खुला, ये मन का द्वार,
सोचता हूँ,
इक सत्य को, गर न यूँ नकारता,
भावनाओं को उकेरता,
दंश, ये न झेलता,
पर अब,
भला, कहूँ भी तो क्या कहूँ!

सोचता हूँ, कह ही दूँ!
सूई सा दंश ये, क्यूँ अकेला ही मैं सहूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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जो कहना हो, समय रहते कह देना ही बेहतर....
Happy Valentine Day

Tuesday, 9 February 2021

खोखली प्रगति

विध्वंस रचा हमने, यह नहीं कोई निर्माण!
आधार-विहीन प्रगति पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!

प्रलय, ले आई है, भविष्य की झांकी,
त्रिनेत्र, अभी खुला है हल्का सा,
महाप्रलय, बड़ी है बाकी!
प्रगति का, कैसा यह सोपान?
चित्कार, कर रही प्रकृति,
बैठे, हम अंजान!
यह पीड़ जरा, पहले तू पहचान,
अवशेषों के, इस पथ पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!

विध्वंस रचा हमने, यह नहीं कोई निर्माण!

तेरी ही संतति, कल हँसे न तुझ पर!
छींटे कसे न, पीढियाँ तुझ पर,
कर नवप्रयान की तैयारी,
दे संतति को, इक नवविहान!
फिर पुकारती है, प्रकृति,
बन मत, अंजान!
ये हरीतिमा, यूँ ना हो लहुलुहान,
रक्तिम सी इस प्रगति पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!

विध्वंस रचा हमने, यह नहीं कोई निर्माण!
आधार-विहीन प्रगति पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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(दिनांक 07.02.2021 को उत्तराखंड में आई भीषण प्राकृतिक त्रासदी से प्रभावित)

Sunday, 7 February 2021

दूर कितना

है, दूर कितना, कितने पास!
मेरा आकाश!

छू लेता हूँ, कभी, हाथों को बढ़ाकर,
कभी, पाता हूँ, दूर कितना!
पल-पल, पिघलता हो, जैसे कोई एहसास, 
द्रवीभूत कितना, घनीभूत कितना,
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

हो दूर लेकिन, हो एहसासों में पिरोए,
बांध लेते हो, कैसे बंधनों में!
पल-पल, घेर लेता हो, जैसे कोई एहसास,
गुम-सुम, मौन, पर वाचाल कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

गुजरते हो, कभी, मुझको यूँ ही छूकर,
जगा जाते हो, कभी जज्बात,
पल-पल, भींच लेते हो, भरकर अंकपाश,
शालीन सा, पर, चंचल है कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

काश, ख्वाहिशों के, खुले पर न होते,
इतने खाली, ये शहर न होते!
गूंज बनकर, न चीख उठता, ये आकाश,
वो, एकान्त में, है अशान्त कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!
मेरा आकाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
    (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 6 February 2021

परिणति

धूमिल सांझ हो, या जगमग सी ज्योति!
जाने क्या हो, परिणति!
आहुति या पूर्णाहुति!
एक जिद है, तो जिए जाना है!
तपिश में, निखर जाना है!

इक यज्ञ सा जीवन, मांगती है आहुति!
हार कर, जो छोड़ बैठे!
तीर पर ही, रहे बैठे!
ये तो धार है, बस बहे जाना है!
डुबकियाँ ले, पार जाना है!

भूल जा, उन यादों को मत आहूत कर!
हो न जाए, सांझ दुष्कर!
राह, अपनी पकड़!
ठहराव ये, थोड़े ही ठिकाना है!
ये बंध सारे, तोड़ जाना है!

सुबह और शाम, ढूंढते ये अल्पविराम!
संघर्ष, स्वीकारते सहर्ष!
चलते, बिन विराम!
ये संसृति, खुद में ही तराना है!
राग ये ही, सीख जाना है!

गहन अंधेरी रात हो, या प्रदीप्त ज्योति!
जाने क्या हो, परिणति!
आहुति या पूर्णाहुति!
एक प्रण है, तो, पार पाना है!
अगन में, सँवर जाना है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 29 January 2021

अर्धसत्य सा

सत्य है यह, या थोड़ा सा अर्धसत्य!

सत्य, क्या महज इक नजरिया?
या समक्ष होकर, कहीं कुछ है विलुप्त!
फिर, जो समक्ष है, उसका क्या?
जो प्रभाव डाले, उसका क्या?

सत्य है यह, या थोड़ा सा अर्धसत्य!

पहाड़ों पर, वो तलाशते हैं क्या?
वो अनवरत, पत्थरों को सींचते हैं क्यूँ?
सजदे में क्यूँ, झुक जाते हैं सर?
क्यूँ दुआ कर जाती है असर?

सत्य है यह, या थोड़ा सा अर्धसत्य!

जो समक्ष है, क्या वही है सत्य?
या इक दूसरा भी रुख है, नजर के परे!
जो नजर ना आए, उसका क्या?
जो, महसूस हो, उसका क्या?

सत्य है यह, या थोड़ा सा अर्धसत्य!

उलझा सा, ये द्वन्द या जिज्ञासा!
क्यूँ लगे समान, दुविधा या समाधान?
क्यूँ, ये दो पहलू, संयुक्त सर्वदा?
असत्य के मध्य, सत्य छिपा!

सत्य है यह, या थोड़ा सा अर्धसत्य!

मानो, तो ईश्वर, ना, तो पत्थर!
विकल्प दोनों, पलते मन के अन्दर!
इक कल्पना, या इक आकार!
क्या ये सत्य, बिना आधार!

सत्य है यह, या थोड़ा सा अर्धसत्य!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 26 January 2021

मन कह न पाए अलविदा

जीवन के क्षणों में,
जीवन, बस रहा, कहीं उन निर्जनों में!

कभी हो जाए, कोई विदा,
फिर भी, मन कह न पाए, अलविदा!
शायद, यही इक सुख-सार,
है यही, संसार,
धागे जोड़ ले मन, 
दुरूह, विदाई के क्षणों में ....

भटके ये मन, बंधे, कहीं उन निर्जनों में!

मन से परे, मन के अवयव,
मन सुने, उस अनसुने, गीतों की रव!
कंप-कंपाते, मन की पुकार,
मन की, गुहार,
दूर, कैसे रहे मन,
कंपित, जुदाई के क्षणों में .....

भटके ये मन, बंधे, कहीं उन निर्जनों में!

ढ़ूँढ़े वहाँ मन अपना साया,
विकल्प सारे, वो, जहाँ छोड़ आया!
क्षीण कैसे, हो जाए मल्हार,
नैनों के, फुहार,
कैसे संभले ये मन,
निष्ठुर, रिहाई के क्षणों में .....

जीवन के क्षणों में,
जीवन, बस रहा, कहीं उन निर्जनों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 24 January 2021

क्या रह सकोगे

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

यूँ तो, विचरते हो, मुक्त कल्पनाओं में, 
रह लेते हो, इन बंद पलकों में,
पर, नीर बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

वश में कहाँ, ढ़ह सी जाती है कल्पना,
ये राहें, रोक ही लेती हैं वर्जना, 
इक चाह बन, रह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

यूँ ना होता, ये स्वप्निल आकाश सूना!
यूँ, जार-जार, न होती कल्पना,
इक गूंज बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

तुम कामना हो, या, बस इक भावना,
कोरी.. कल्पना हो, या साधना,
यूँ, भाव बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

ढूंढूं कहाँ, आकाश का कोई किनारा,
असंख्य तारों में, प्यारा सितारा,
तुम, दिन ढ़ले ढ़ल जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 19 January 2021

झुर्रियाँ

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

उम्र, दे ही जाती हैं आहट!
दिख ही जाती है, वक्त की गहरी बुनावट!
चेहरों की, दहलीज पर, 
उभर आती हैं.....
आड़ी-टेढ़ी, वक्र रेखाओं सी ये झुर्रियाँ,
सहेजे, अनन्त स्मृतियाँ!

वक्त, कब बदल ले करवट!
खुरदुरी स्मृति-पटल, पे पर जाए सिलवट!
चुनती हैं एक-एक कर,
उतार लाती हैं.....
जीवन्त भावों की, गहरी सी ये पट्टियाँ,
मृदुल छाँव सी, झुर्रियाँ!

घड़ी अवसान की, सन्निकट!
प्यासी जमीन पर, ज्यूँ लगी हो इक रहट!
इस, अनावृष्ट सांझ पर,
न्योछार देती हैं...
बारिश की, भीगी सी हल्की थपकियाँ, 
कृतज्ञ छाँव सी, झुर्रियाँ!

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)