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Wednesday 12 September 2018

यूँ भी होता

यूँ भी होता............

मन के क्षितिज पर,
गर कहीं चाँद खिला होता,
फिर अंधेरों से यहाँ,
मुझको न कोई गिला होता!

अनसुना ना करता,
मन मेरे मन की बातें सुनता,
बातें फिर कोई यहाँ,
मुझसे करता या न करता!

हो मन में जो लिखा,
गर कोई कभी पढ़ लेता,
लफ़्ज़ को यूँ शब्दों में,
ढ़लकर ना ही जलना होता!

करीब रहकर भी,
न फासला मिटा होता,
बेवजह गले मिल ले,
ऐसा न गर कोई मिला होता!

दिल तक पथ होता,
दूरी न ये तुम तक होता
थकता न ये पथिक,
मुश्किल भरा ना पथ होता!

गम से मन टूटता,
मन गैरों के गम में ही रोता,
भूले से भी गम कोई,
फिर दुश्मन को भी न देता!

यूँ भी होता..........

Sunday 1 April 2018

बिखरी लाली

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

श्रृंगकिरणों ने पट खोले हैं,
घूंधट के पट नटखट नभ ने खोले हैं,
बिखर गई है नभ पर लाली,
निखर उठी है क्षितिज की आभा,
निस्तेज हुए है अंधियारे,
वो चमक रही किरणों की बाली!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

श्रृंगार कर रही है प्रकृति,
किरणों की आभा पर झूमती संसृति,
मोहक रंगो संग हो ली,
सिंदूरी स्वप्न के ख्वाब नए लेकर,
नव उमंग नव प्राण लेकर,
खेलती नित नव रंगो की नव होली!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

खेलती है लहरों पर किरणें,
या लहरों से कुछ बोलती हैं किरणें!
आ सुन ले इनकी बोली,
झिलमिल रंगों की ये बारात लेकर,
मीठी सी ये बात लेकर,
चल उस ओर चलें संग आलि!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

Tuesday 27 February 2018

उभरते क्षितिज

शब्दों से भरमाया, शब्दों से इतराया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

शब्द कई, शब्दों के प्रारूप कई,
हर शब्द, इक नया स्वरूप ले आया,
कुछ शब्द शीर्षक बन इतराए,
कुछ क्षितिज की ललाट पर चढ़ भाए,
क्षितिज विराट हो इतराया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

चुप सा क्षितिज, चहका शब्दों से,
कूक उठा कोयल सा, मधुर तान में गाया,
नाचा मयूर सा, लहराकर शर्माया,
कितनी ही कविताएँ, क्षितिज लिख आया,
क्षितिज मंत्रनाद कर गाया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

सुनसान क्षितिज, गूंजा शब्दों से,
पूर्ण शब्दकोष, क्षितिज पर सिमट आया,
गद्य, पद्य क्षितिज पे आ उतरे,
कवियों का मेला, लगा है अब क्षितिज पे,
क्षितिज महाकाव्य रच आया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

शब्दों से भरमाया, शब्दों से इतराया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

Sunday 25 February 2018

फागुन में तुम याद आए

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

तन सराबोर, हुआ इन रंगों से,
तन्हा दूर रहे, कैसे कोई अपनों से?
भीगे है मन कहाँ, फागुन के इन रंगों से,
तब भीगा वो तेरा स्पर्श, मुझे याद आए.....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

घटाओं पे जब बिखरे है गुलाल,
हवाओं में लहराए है जब ये बाल,
फिजाओं के बहके है जब भी चाल,
तब सिंदूरी वो तेरे भाल, मुझे याद आए....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

नभ पर रंग बिखेरती ये किरणें,
संसृति के आँचल, ये लगती है रंगने,
कलिकाएँ खिलकर लगती हैं विहँसने,
तब चमकते वो तेरे नैन, मुझे याद आए....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

फागुनाहट की जब चले बयार,
रंगों से जब तन को हो जाए प्यार,
घटाओं से जब गुलाल की हो बौछार,
तब आँखें वो तेरी लाल, मुझे याद आए....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

Sunday 21 January 2018

आवाज न देना

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....
सदियों की नीरवता से, मैं लौटा हूँ अभी अभी ।

सदियों तक था तुझमें ही अनुरक्त मै,
पाया ही क्या, जब तुझसे ही रहा विरक्त मैं?
मिली बस पीड़ा और बेचैन घड़ी,
अंतहीन प्रतीक्षा और यादों की लड़ी,
उस वीहड़ घाटी से मैं लौटा हूँ अभी अभी...

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....

डूबा था मैं क्षितिज की नीरवता में,
तुम ही ले आए थे मुझको उस वीहड़ में!
असहनीय उदासीनता के क्षण में
पग-पग नीरवता के उस गहरे वन में,
उस निर्वात से बस मैं लौटा हूँ अभी अभी...

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....

बिताई अरसों मैने इक प्रतीक्षा में,
तटस्थ रहा दुनिया से इक तेरी इच्छा में!
काटी तन्हा कितनी निर्जन रातें,
पाई है अंतहीन प्रतीक्षा की सौगातें,
उस प्रतीक्षा से बस मैं लौटा हूँ अभी-अभी....

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....
सदियों की नीरवता से, मैं लौटा हूँ अभी अभी ।

Thursday 23 November 2017

डोल गया मन

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
सर रखकर 
इठलाई रवि किरण,
झील में 
तैरते फाहों पर, 
आई रख कर चरण,
आह, उस सौन्दर्य का 
क्या करुँ वर्णन
पल भर को
मूँद गए मेरे मुग्ध नयन....

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
श्रृंगार कर गया कोई,
नैनों में काजल
मस्तक पर
लालिमा सी फैली
सिंदूरी रंग
उफक पर भर गया कोई,
रौशन मुख
पीत वस्त्र
चमकीले आभूषण
मन हर गए श्वेत वर्ण...

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
तैरते से तल पर
जैसे हो
तैरते से भ्रम
कौन जाने
जल में है कुंभ या
है कुंभ में जल,
घड़ा जल में 
या है जल घड़े में
असमंजस में
भ्रम की स्थिति में रहे हम...

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

Sunday 23 April 2017

उल्लास

इशारों से वो कौन खींच रहा क्षितिज की ओर मेरा मन!

पलक्षिण नृत्य कर रहा आज जीवन,
बज उठे नव ताल बज उठा प्राणों का कंपन,
थिरक रहे कण-कण थिरक रहा धड़कन,
वो कौन बिखेर गया उल्लास इस मन के आंगन!

नयनों से वो कौन भर लाया मधुकण आज इस उपवन!

पल्लव की खुशबु से बौराया है चितवन,
मधुकण थोड़ी सी पी गया मेरा भी यह जीवन,
झंकृत हुआ झूमकर सुबासित सा मधुबन,
जीर्ण कण उल्लासित चहुंदिस हँसता उपवन!

इशारों से वो कौन खींच रहा क्षितिज की ओर मेरा मन!

Sunday 16 April 2017

क्षितिज की ओर

भीगी सी भोर की अलसाई सी किरण,
पुरवैयों की पंख पर ओस में नहाई सी किरण,
चेहरे को छूकर दिलाती है इक एहसास,
उठ यार! अब आँखे खोल, जिन्दगी फिर है तेरे साथ!

ये तृष्णगी कैसी, फिर है मन के आंगन,
ढूंढती है किसे ये आँखे, क्युँ खाली है ये दामन,
अब न जाने क्युँ अचेतन से है एहसास,
चेतना है सोई, बोझिल सी इन साँसों का है बस साथ!

ये किस धुंध में गुम हुआ मन का गगन,
फलक के विपुल विस्तार की ये कैसी है संकुचन,
न तो क्षितिज को है रौशनी का एहसास,
न ही मन के धुंधले गगन पर, उड़ने को है कोई साथ!

पर भीगती है हर रोज सुबह की ये दुल्हन,
झटक कर बालों को जगाती है नई सी सिहरन,
मन को दिलाती है नई सुखद एहसास,
कहती है बार बार! तु चल क्षितिज पर मैं हूँ तेरे साथ!

Wednesday 29 June 2016

ख्याल

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

तब रूह को छू जाती हैं बरबस यादें तेरी,
जल उठते है माहताब दिल के अंधियारे में कहीं,
महक उठती है ख्यालों से सूनी सी ये तन्हाई,
मद्धम सुरों में उभरता आलाप एक सुरमई।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

मन पूछने लगता है पता खुद से खुद का ही,
भूल सा जाता है ये मन के तुम कहीं हो ही नहीं,
बस इक परछाईं सी हो तुम कोई अक्स नहीं,
गुमसुम सा विकल ये मन मानता ही नहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

राख बन कर ही सही उर रहीं हैं यादें तेरी,
गहरा धुआँ सा छा रहा हैं मन के गगन पर मेरी,
क्या मिलोगे मुझे उस क्षितिज के किनारे कहीं,
इस रूह की गहराईयों में तुम छुपे हो कहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

Monday 20 June 2016

तुम्हें क्या

तुम्हें क्या.....?
लेकिन तुम्हें क्या, तुम्हें क्या, तुम्हें क्या...?

जाने किन एहसासों के तले दबा हूँ,
जन्मों के अंजान बंधन से हर पल जुडा हूँ,
संवेदनाओं के बूँदों से हरदम रीता हूँ,
बादल हूँ भीगा सा हर क्षण यूँ ही बरसा हूँ
सावन अंजाना सा, एकाकी संध्या वेला हूँ.........

लेकिन तुम्हें क्या, तुम्हें क्या, तुम्हें क्या...?

लहराते करुणा का अगम्य सागर हूँ,
अंजाने स्वर वेदना के जन्मों से रचता हूँ,
मन के प्रस्तर कोलाहल में खोता हूँ,
सागर खारा हूँ प्यासा हर क्षण यूँ ही रहता हूँ,
क्षितिज विशाल सा, एकाकी संध्या वेला हूँ........

लेकिन तुम्हें क्या, तुम्हें क्या, तुम्हें क्या...?

Wednesday 8 June 2016

प्रशस्त प्रखर मंजिल

क्षितिज को निहार तू, विस्तृत जरा आयाम कर,
विशाल सोंच को बना, मन की गगन का विस्तार कर,
प्रतिभा की चाँदनी से, आसमाँ में प्रकाश भर,
क्षितिज की आगोश में, मंजिल का तू विस्तार कर।

मंजिलों से आगे, कितने ही मुकाम हैं बाँकी,
अभी तो जिन्दगी के, यहाँ किस्से तमाम हैं बाँकी,
हसरतों के पंखों को, तू जरा फैला कर देख,
इन बादलों से उपर, अभी कई आसमाँ हैं बाँकी।

यह नहीं मंजिल तेरी, प्रहर है यह विराम की,
ठहर इक पल जरा, मंजिल प्रशस्त कर अपनेे मार्ग की,
कर्म की लाठी हाथों मे ले, निरस्त तू बाधाओं को कर,
दिखेगी तुझको राह नई, मंजिलें हो जाएंगी प्रखर।

विश्राम तो बस मौत है, गतिशील हैं राहें यहाँ,
मंजिलों से बेखबर, जीवन की अनगिनत चाहें यहाँ,
कुशाग्र प्रखर रौशनी में, राह तू खुद अपनी बना,
इन मंजिलों के आगे कहीं, तू छोड़ जा अपने निशां।

Tuesday 19 April 2016

अधूरे सपने

अधूरे सपने ! ये संग-संग ही चलते है जीवन के!

अधूरे ही रह जाते कुछ सपने आँखों में,
कब नींद खुली कब सपने टूटे इस जीवन में,
कब आँख लगी फिर जागे सपने नैनों में।

अधूरे सपने ! सोते जगते साथ साथ ही जीवन में!

सपनों की सीमा कहीं उस दूर क्षितिज में,
पंख लगा उड़ जाता वो कहीं उस दूर गगण में,
कब डोर सपनों की आ पाई है हाथों में।

अधूरे सपने ! पतंगों से उड़ते जीवन के नील गगन में!

पलकों के नीचे मेरी सपनों का रैन बसेरा,
बंद होती जब ये पलकें सपनों का हो नया सवेरा,
अधूरे उन सपनो संग खुश रहता है मन मेरा।

अधूरे सपने ! ये प्यार बन के पलते हैं मेरे हृदय में।

Wednesday 23 March 2016

वो कौन

वो कौन जो पुकार रहा क्षितिज की ओर इशारों से।

पलक्षिण नृत्य कर रहा आज जीवन के ,
बौराई हैं सासें मंजरित पल्लव की खुशबु से,
थिरक रहीं हैं हर धड़कन चितवन के,
वो कौन जो भर लाया है मधुरस आज उपवन सेे।

जीर्णकण उल्लासित चहुंदिस उपवन के,
जैसे घूँट मदिरा के पी आया हो मदिरालय से,
झंकृत हो उठे है तार-तार इस मधुबन के,
वो कौन जो बिखेर रहा उल्लास मन के आंगन में।

मधुकण अल्प सी पी गया मैं भी जीवन के,
बज उठे नवीन सुरताल प्राणों के अंतःकरण से,
गीत नए स्वर के छेर रहे तार मन वीणा के,
वो कौन जो पुकार रहा क्षितिज की ओर इशारों से।

Thursday 3 March 2016

ध्रुव सा यह स्मृति क्षण

ढ़लता सांध्य गगन सा जीवन!

क्षितिज सुधि स्वप्न रँगीले घन,
भीनी सांध्य का सुनहला पन,
संध्या का नभ से मूक मिलन,
यह अश्रुमती हँसती चितवन!

भर लाता ये सासों का समीर,
जग से स्मृति के सुगन्ध धीर,
सुरभित  हैं जीवन-मृत्यु  तीर,
रोमों में पुलकित  कैरव-वन !

आदि-अन्त दोनों अब  मिलते,
रजनी दिन परिणय से खिलते,
आँसू हिम के सम कण ढ़लते,
ध्रुव सा है यह स्मृति का क्षण!

Thursday 28 January 2016

पुकारता क्षितिज

खुलता हुआ वो क्षितिज,
मन के सन्निकट ही कहीं,
पुकारता है तुझको बाहें पसारे।

तिमिर सा गहराता क्षितिज,
हँसता हैं उन तारों के समीप कहीं,
पुकारता अपने चंचल अधरों से ।

मधुर हुए क्षितिज के स्वर,
मध टपकाते उसके दोनो अधर,
हास-विलास करते काले बालों से।

आ मिल जा क्षितिज पर,
कर ले तू भी अपने स्वर प्रखर,
तम क्लेश मिट जाए सब जीवन के।

Tuesday 5 January 2016

तू रहता कहाँ?

आकाश और सागर के मध्य,
क्षितिज के उस पार कहीं दूर,
जहाँ मिल जाती होंगी सारी राहें,
खुल जाते होंगे द्वार सारे मौन के,
क्या तू रहता है दूर वहीं कही?

क्षितिज के पार गगन मे उद्भित,
ब्रम्हांड के दूसरे क्षोर पर उद्धृत,
शांत सा सन्नाटा जहां है छाता,
मिट जाती जहां जीवन की तृष्णा,
क्या तू रहता क्षितिज के पार वहीं?

कोई कहता तू घट-घट बसता,
हर जीवन हर निर्जीव मे रहता,
कण कण मे रम तू ही गति देता,
क्षितिज, ब्रह्मान्ड को तू ही रचता,
मैं कैसे विश्वासुँ तू हैं यहीं कहीं?