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Tuesday 27 February 2018

उभरते क्षितिज

शब्दों से भरमाया, शब्दों से इतराया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

शब्द कई, शब्दों के प्रारूप कई,
हर शब्द, इक नया स्वरूप ले आया,
कुछ शब्द शीर्षक बन इतराए,
कुछ क्षितिज की ललाट पर चढ़ भाए,
क्षितिज विराट हो इतराया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

चुप सा क्षितिज, चहका शब्दों से,
कूक उठा कोयल सा, मधुर तान में गाया,
नाचा मयूर सा, लहराकर शर्माया,
कितनी ही कविताएँ, क्षितिज लिख आया,
क्षितिज मंत्रनाद कर गाया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

सुनसान क्षितिज, गूंजा शब्दों से,
पूर्ण शब्दकोष, क्षितिज पर सिमट आया,
गद्य, पद्य क्षितिज पे आ उतरे,
कवियों का मेला, लगा है अब क्षितिज पे,
क्षितिज महाकाव्य रच आया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

शब्दों से भरमाया, शब्दों से इतराया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

Friday 26 January 2018

परछाँई

उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

मैं आज भले हूँ सामने,
कल शायद ना रह पाऊँगा!
शब्दों के ये तोहफे,
फिर तुझे ना दे पाऊँगा!
दिन ढ़ले इक टीस उठे जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

हूँ बस इक परछाँई मैं,
शब्दों में ही ढ़लता जाऊँगा!
कुरेदुँगा भावों को मै,
मन में ही बसता जाऊँगा!
सांझ ढ़ले ये अश्क गले जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

लिख जाऊँगा गीत कई,
इन नग्मों में ही बस जाऊँगा!
भाव पिरोकर शब्दों में,
अश्कों में बहता जाऊँगा!
मन की महफिल सूनी हो जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

न बाट जोहना तुम मेरा,
कल वापस भी न आ पाऊँगा!
यादों की किताब बन,
"कविता कलश" दे जाऊँगा!
कभी हो जीवन में तन्हाई जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

मैं, आज भले हूँ सामने.......
कल शायद!  ना.... रह पाऊँगा..!
इक कविता "जीवन कलश"....
मैं आँचल में रखता जाऊँगा!
एकाकीपन के अंधेरे हों जब-जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

Saturday 9 December 2017

संगतराश

जिंदादिल हूँ, कारीगर हूँ, हूँ मैं इक संगतराश...
तराशता हूँ शब्दों की छेनी से दिल,
बातों की वेणी में उलझाता हूं ये महफिल,
कर लेना गौर, न करना यूँ आनाकानी,
उड़ाना ना तुम यूँ मेरा उपहास,
संगतराश हूँ अलबेला.....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
प्रेम की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

करता हूँ कुछ मनमानी, कुछ थोड़ा सा हास... 
गढ़ जाता हूँ बिंदी उन सूने माथों पे,
सजाता हूँ लरजते से होठों पे कोई तिल,
शरमाता हूँ, यूँ हीं करके कोई नादानी,
ना करना तुम यूँ मेरा परिहास,
मैं संगतराश हूँ अकेला....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
हास की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

तन्हाई में ये मेरा दिल, संजोता है सपने खास....
कल्पना आँखों में, उड़ते रंग गुलाल,
साकार सी मूरत, मन में उभरता मलाल,
वही शक्ल, वही सूरत जानी पहचानी,
यूँ ही फिर उड़ाती मेरा उपहास,
मैं संगतराश हूँ मतवाला....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
नैनों की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

Thursday 7 December 2017

व्यर्थ का अर्थ

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

लुप्त होते रहे एक-एककर शब्द सारे,
यूँ पन्नों से विलीन हुए, वो जीने के मेरे सहारे,
शायद कमजोर हुई थी ये मेरी नजर,
या शायद, शब्द ही कहीं रहे थे मुझसे मुकर....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

अर्थ शब्दों के, समझ से परे थे सारे,
व्यर्थ थे प्रयत्न, विलुप्त थे शब्दों के वो नजारे,
शायद वक्त ने की थी ये सरगोशी,
लुप्त हुई थी ये हँसी, फैली हुई थी खामोशी....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

ढूंढने चला हूँ मैं, अब वो ही शब्द सारे,
वक्त की सरगोशियों में, जो कर गए थे किनारे,
शायद सुन जाएंगे वो मेरी अनकही,
विलुप्त से वो शब्द, मेरे मन की ही थी कही...

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

क्या व्यर्थ ही जाएंगे, मेरे वो प्रयास सारे?
अर्थपूर्ण से वो शब्द, क्या थे सरगोशियों के मारे?
शायद पन्नों में कहीं छुपे थे वो शब्द,
करके कानाफूसी, मुझे कर गए थे वो निःशब्द....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

Thursday 23 November 2017

अरुचिकर कथा

कोई अरुचिकर कथा,
अंतस्थ पल रही मन की व्यथा,
शब्दवाण तैयार सदा....
वेदना के आस्वर,
कहथा फिरता,
शब्दों में व्यथा की कथा?
पर क्युँ कोई चुभते तीर छुए,
क्युँ भाव विहीन बहे,
श्रृंगार विहीन सी ये कथा,
रोमांच विहीन, दिशाहीन कथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

किसी के कुछ कहने,
या किसी से कुछ कहने, या
इससे पहले कि
कोई मन की बात करे 
या फिर रस की बरसात करे, 
दिल के जज्बात 
लम्हातों मे आकर कोई भरे, 
खींच लेता वो शब्दवाण,
पिरो लेता बस
अपने शब्दों में अपनी ही कथा...
अपनी पीड़ा, अपनी व्यथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

सबकी अपनी पीड़ा,
अपनी-अपनी सबकी व्यथा,
पीड़ा की गठरी
सब के सर इक बोझ सा रखा,
कोई अपनी पीड़ा
जीह्वा मे भरकर
घुटने टेक,
सर के बल लेट,
शब्दों पर लादकर चल रहा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

व्यथा की कथा रच-रच....
वाल्मीकि रामायण रच गए,
तुलसी रामचरितमानस,
वेदव्यास महाभारत,
और कृष्ण गीतोपदेश दे गए,
पढे कौन, क्युँ कोई पढे,
है कौन व्यथा से परे!
मैं शब्दों में बोझ भरूँ कैसे?
शब्दवाण बींधूँ कैसे,
एकाकी पलों में 
खुद से खुद कहता व्यथा की कथा!
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

Friday 18 August 2017

अधर

सुंदर हैं वो अधर, मेरे शब्दों में जो भरते हैं स्वर...

ओ संगनिष्ठा, मेरे कोरे स्वर तू होठों पे बिठा,
जब ये तेरे रंगरंजित अधरों का आलिंगन ले पाएंगे,
अंबर के अतिरंजित रंग इन शब्दों मे भर जाएँगे!

शब्दों के मेरे रंगरंजित स्वर, रंग देंगे ये तेरे अधर...

ओ बासंती, कोकिल कंठ तू शब्दों को दे जा,
प्रखर से ये तेरे स्वर लेकर ही, ये मुखरित हो पाएंगे,
सुर के ये सप्तम स्वर मेरे शब्दों में भर जाएँगै।

अधरों की सुरीली चहचहाहट में डूबे हैं मेरे स्वर....

ओ अधरश्रेष्ठा, कंपन होठों की इनको दे जा,
चंचल से दो अधरों के कंपन की जब उष्मा ये पाएंगे,
अर्थ मेरे इन शब्दों के कहीं व्यर्थ नहीं जाएँगे।

अधरों की कंपित वीणा मे होंगे ये मेरे स्वर प्रखर...

Wednesday 10 May 2017

मोहब्बत

शब्दों की शक्ल में ढलती रही, इक तस्वीर सी वो!

युँ ही कुछ लिखने लगा था मैं,
शब्दों से कुछ भाव मन के बुनने लगा था मैं,
दूर...खुद से कहीं दूर होने लगा था मैं,
फिर याद नहीं, ये क्या लिखने लगा था मै?

तस्वीर से निकल दबे पाँव, तावीर में ढली सी वो!

युँ ही कुछ कहने लगी थी वो,
जरा सा भाव उस मन के सुनने लगा था मैं,
न जाने क्युँ कुछ खोने सा लगा था मैं,
फिर याद नहीं, ये क्या लिखने लगा था मै?

शायद शब्दों से निकल, किसी बुत में ढली सी वो!

युँ ही अब कुछ करीब थी वो,
महसूस बुत की धड़कनें करने लगा था मैं,
शायद अब मोहब्बत करने लगा था मैं,
फिर याद नहीं, ये क्या लिखने लगा था मै?

शब्दों की स्पंदनो में ढलती रही, इक तावीर सी वो!

Wednesday 10 August 2016

उभरते जख्म

शब्दों के सैलाब उमरते हैं अब कलम की नींव से.....
जख्मों को कुरेदते है ये शब्दों के सैलाब कलम की नोक से.....

अंजान राहों पे शब्दों ने बिखेरे थे ख्वाबों को,
हसरतों को पिरोया था इस मन ने शब्दों की सिलवटों से,
एहसास सिल चुके थे शब्दों की बुनावट से,
शब्दों को तब सहलाया था हमने कलम की नोक से।

ठोकर कहीं तभी लगी इक पत्थर की नोक से,
करवटें बदल ली उस एहसास ने शब्दो की चिलमनों से,
जज्बात बिखर चुके थे शब्दों की बुनावट से,
कुचले गए तब मायने शब्दों के इस कलम की नोक से।

अंजान राहों पर भटक चले थे कलम की नींव ये,
शब्दो को बेरहमी से तब कुचला था कलम की नींव ने,
मायने शब्दों के बदल चुके बस एक ठोकर से,
जज्बात नहीं सैलाब उमरते है अब कलम की नोक से।

शब्दों के सैलाब उमरते गए कलम की नींव से.....
जख्मों को कुरेदते रहे शब्दों के सैलाब कलम की नोक से.....

Monday 8 August 2016

कुछ लम्हे मेरी शब्दों के संग

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.........

आँखें मिली जो आपसे शब्दों के जैसे नींद उड़ गए,
शब्दों को जैसे सुर्खाब के पर लग गए,
सुरूर कुछ छाया ऐसा शब्दों के जेहन पर,
कोरे कागज पर जज्बातों के ये प्रहर से लिख गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

नैनों मे खोए शब्द कभी हँस परे खिलखिलाकर,
कुछ के जज्बात बूँदों में बह निकले,
कुछ शब्दों के वाणी रूँधकर लड़खड़ाए,
कोरे कागज पर मिश्रित से कई तस्वीर उभर गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

शुरू हुई फिर शब्दों में नोंक-झोंक के सिलसिले,
कुछ कहते, वो आए थे मुझसे मिलने गले,
कुछ कहते मेरी चाहत में थे उनके दामन गीले,
कोरे कागज पर शब्दों में अंतहीन जंग से छिड़ गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

अब उन्हीं लम्हों को ढूंढ़ते मेरे शब्द पन्नों पर,
अनकहे जज्बात कई लिख डाले मैंने इन पन्नों पर,
मेरे शब्दों के स्वर और भी मुखर हो गए,
कोरे कागज पर इन्तजार के वो लम्हे बिखर से गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

Saturday 6 August 2016

किसे कह दूँ

किसे कह दूँ मैं शब्दों में अपनी व्यथा?
है कौन जो सुने इस व्यथित मन की अरूचिकर कथा?

दुरूह सबकी अपनी-अपनी व्यथा,
मैं शब्दों मे व्यथा का बोझ भरूँ फिर कैसे?
मुस्काते होठ, चमकीली आँखों मे मैं इनको भर लेता,
व्यंगों की चटकीली रंगों से कहता व्यथा की कथा!

व्यथा का आभाष तनिक न उनको,
व्यथा के शब्दों से बींधूँ कैसे उनकी तन को,
हृदय के कोष्ठों, पलकों की चिलमन मे इनको भर लेता,
एकाकी पलों में खुद से खुद कहता व्यथा की कथा!

किसे कह दूँ मैं शब्दों में अपनी व्यथा?
है कौन जो सुने इस व्यथित मन की अरूचिकर कथा?

Saturday 9 April 2016

शब्द

फैले हैं जाल शब्द के, मायने उलझती ही रहीं!

शब्द बच गए थे पोटली में,
बातें इक तरफा ही रहीं,
शेष बातों के लिए शब्द तड़पती ही रहीं!

अब बिन मायनों के शब्द वे,
इकहरे दुबले पतले से,
पोटली के दायरों में शब्द सिमटती ही रही!

उस शब्द की विसात क्या,
सुन न पाए हम जिन्हे,
जज्बात विखरते रहे शब्द विलखती ही रही!

खोल दी है मैनें उस पोटली को,
खुल के साँस शब्द लें सकें,
व्यक्त हो रहे भाव अब शब्द हँसती ही रही!

पर ये क्या?

शब्द ही उलझे है शब्द से,
जाल शब्दों के बने,
एहसास शिथिल हैं अब शब्द बिखरती रही!

Thursday 7 April 2016

स्पर्श रूह तक

स्पर्श कर गया वो लम्हा, तन्हाईयों में मचलकर!

रूह में उठती रही लहरें,
रूह को कोमल स्पर्श मिला,
तन्हा वो गुजरते रहे, रूह की साहिलों से होकर!

तरन्नुम की बात चली,
शब्दों को इक नया मोड़ मिला
भीगते रहे पाँव उनके, रूह की लहरों में चलकर!

मन में घुलते रहे शब्द वो,
रूह को शब्दों का कंपन मिला,
रूह तक भीगे हैं अब वो, इन लहरों में उलझकर!

रूह भींगती रही हदों तक,
मन कों एहसास-ए-शुकून मिला,
मन चाहता मिल जाएँ वो, तन्हाईयों से निकलकर!

काश! स्पर्श उन लम्हों के, साथ-साथ हों यूँ ही उम्र भर!

Monday 14 March 2016

एहसास गुमनाम गुम हुए

कुछ कण......!
क्षितिज पर अव्यवस्थित...!
क्या ताज्जुब हो,
गर वो रौशनी में गुम हुए.........!
वो रात सपनों का आना, भोर में उनका खो जाना,
बस कुछ रात्रि स्वप्न सुर रह गए,
जो प्रात दिवा में गुम हुए.........!

कुछ शब्द......!
एहसासों पर अव्यवस्थित...!
न कोई दहशत,
न खुद के खोने का डर........!
कुछ बुझें संवाद, कुछ अनकहे संबोधन,
कोई ग्रन्थ कोई संग्रह नहीं,
क्या हुआ गर गुम हुए.........!

कुछ चाहत......!
कभी चित्कार,कहकहे,क्रंदन,
सब यहीं कहीं हवा में घुल कर,
सांसों में गुम हुए........!
ओस के चंद कतरें ...
मिल बूंद बने, फिर गुम हुए़़......!
खुद जलकर ....
रोशनी को जलाने का अहसास,
बूझकर आँधी में,
धधककर जलने की शिद्दत में,
दिलों मे सुलगते अरमाँ गुम हुए.......!

कुछ क्षण.......!
आओं कोई मुठ्ठियों में भीजों मुझे,
कण कण समेट,
बूँद सदृश बंनाओ मुझे,
मै हूँ भी या नहीं,
मेरे होने का अहसास कराओं मुझे,
ढीली पड़ी जो मुठ्ठियाँ,
फिर ना कहना जो हम गुम हुए......!

आते जाते सड़कों की भीड़ में, हम गुमनाम गुम हुए...!

Sunday 13 March 2016

स्नेह स्वर

अपनत्व के वे चंद शब्द,
गुंज उठे थे तब इन कानों में,
भ्रमित सा मन बावरा,
अटका उन शब्दों की जालों में,
स्वरों के लय की जादूगरी,
कैसी थी उन शब्दों में,
बाँध गया जो जीवन,
अदृश्य मोह के अटूट धागों में।

शब्दों के ये आ-स्वर,
जब मिल जाते हैं मन की भावों से,
शब्दों की मधुर रागिनी,
तब घुल मिल जाते हैं प्राणों से,
गीत नए शब्दों के बन,
मिल जाते हैं स्वर की लय से,
स्नेह स्वर इन शब्दों की,
जोड़ती है डोर मन की मन से।

Saturday 20 February 2016

मैं एक अनछुआ शब्द

मैं अनछुआ शब्द हूँ एक!
किताबों में बन्द पड़ा सदियों से,
पलटे नही गए हैं पन्ने जिस किताब के,
कितने ही बातें अंकुरित इस एक शब्द में,
एहसास पढ़े नही गए अब तक शब्द के मेरे।

एक शब्द की विशात ही क्या?
कुचल दी गई इसे तहों मे किताबों की,
शायद मर्म छुपी इसमे या दर्द की कहानी,
शून्य की ओर तकता कहता नही कुछ जुबानी,
भीड़ में दुनियाँ की शब्दों के खोया राह अन्जानी।

एक शब्द ही तो हूँ मैं!
पड़ा रहने दो किताबों में युँ ही,
कमी कहाँ इस दुनियाँ में शब्दों की,
कौन पूछता है बंद पड़े उन शब्दों को?
कोलाहल जग की क्या कम है सुनने को?

अनछुआ शब्द हूँ रहूँगा अनछुआ!
इस दुनियाँ की कोलाहल दे दूर अनछुआ,
अतृप्त अनुभूतियों की अनुराग से अनछुआ,
व्यक्त रहेगी अस्तित्व मेरी "जीवन कलश" में अनछुआ,
अपनी भावनाओं को खुद मे समेट खो जाऊँगा अनछुआ।

Wednesday 10 February 2016

रुके हुए शब्द

छलकते नैनों से बह गए हैं नीर निर्झर,
थरथराते लबों के शब्द गए हैं  निःशब्द,
ओस की बूंदों सी छलकी हैं नीर नीरव,
कहानी कोई अनकही रह गई है शायद।

झर झर निर्झर सी बह रही है अब आँखें,
खामोशियाँ की जुबाँ कह गई है सब बातें,
छलकते नीर शब्द बन गईं हैं अब लबों पे,
आह, दारुणिक कथा कितनी इन नैनों के।

रोक लेता कोई नीर, नैन छलकने से पहले,
निःशब्द को जुबाँ देता कोई कहने से पहले,
काँपते अधरों को शब्द दे जाता कोई पहले,
व्यथा कोई सुन लेता नैन छलकने से पहले।

Sunday 17 January 2016

पिघलते शब्दों के नश्तर

पिघलते शब्दों के नश्तर,
स्वर वेदना के नासूर वाण बन,
छलनी कर जाते हृदय के प्रस्तर।

शब्दों मे होती इक कम्पन,
गुंजायमान करती वसुधा के मन,
जीवन की वीणा को ये छेड़ती निरंतर।

कम्पन गुम मेरे हृदय की,
शब्द वो पिघलते कहाँ अब मेरे मन,
ध्वनी के मधुर स्वर मिलते कहाँ परस्पर।

क्या कभी अब हँस पाऊँगा?
धुन हृदय प्रस्तर की क्या सुन पाऊँगा?
वेदना के वाण रह-रह चुभते हृदय पर।

Monday 4 January 2016

शब्दों को होठों का कंपन दे दो

मेरे शब्दों को तुम स्वर दे दो,
तुम इनको जीवन अंबर दे दो,
मुखरित तभी ये हो पाएंगे,
कंठ सभी के बस जाएंगे।
मेरे शब्दों को अपनी होठों का कंपन दे दो।

कहते है शब्दों से भाषा बनती,
पर मेरे शब्दों के परिश्रम व्यर्थ क्युँ जाते,
ये शब्द भाषा मे क्युँ नही ठल पाते,
तेरे स्वर मे है वीणापाणि बसती,
तुम इनको मुखरित स्वर दे दो,
मेरे शब्दों को अपनी होठों का आलिंगन दे दो।

Friday 25 December 2015

शब्द मुझ तक पहुँच नही पाते

तुम्हारे शब्द मुझ तक पहुँच नहीं पाते,
होठों से मंद मंद फूटे शब्दों के कंपन,
आँखों से निकली प्रकाश की किरण,
चाहें बंधन तोड़ युगों से मुझ तक आने को।
पर शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?

दूरी तय करते युग बीते शब्दों को,
फासले ये तय कर नही पाते हैं ?
कंपन किरण से कब जीत पाते हैं?
शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?

प्रकाश की प्रस्फुटन, शब्दों की ध्वनि से तेज,
आंखों की चंचल भाषा, मृदु आवाज़ से चतुर,
शब्दों से पहले पहुँच, ये ठहर जाते हैं।
पर शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?

आँखों की चपल भाषा, मैं मूरख क्या जानूं,
शब्द-स्पंदन से ही, मैं भावों को पहचानुं,
पर मर्यादाओं की सीमाओं में सिमटे शब्द,
उल्लंघित करने का दुस्साहश नही कर पाते हैं,
शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?