Monday, 14 March 2016

एहसास गुमनाम गुम हुए

कुछ कण......!
क्षितिज पर अव्यवस्थित...!
क्या ताज्जुब हो,
गर वो रौशनी में गुम हुए.........!
वो रात सपनों का आना, भोर में उनका खो जाना,
बस कुछ रात्रि स्वप्न सुर रह गए,
जो प्रात दिवा में गुम हुए.........!

कुछ शब्द......!
एहसासों पर अव्यवस्थित...!
न कोई दहशत,
न खुद के खोने का डर........!
कुछ बुझें संवाद, कुछ अनकहे संबोधन,
कोई ग्रन्थ कोई संग्रह नहीं,
क्या हुआ गर गुम हुए.........!

कुछ चाहत......!
कभी चित्कार,कहकहे,क्रंदन,
सब यहीं कहीं हवा में घुल कर,
सांसों में गुम हुए........!
ओस के चंद कतरें ...
मिल बूंद बने, फिर गुम हुए़़......!
खुद जलकर ....
रोशनी को जलाने का अहसास,
बूझकर आँधी में,
धधककर जलने की शिद्दत में,
दिलों मे सुलगते अरमाँ गुम हुए.......!

कुछ क्षण.......!
आओं कोई मुठ्ठियों में भीजों मुझे,
कण कण समेट,
बूँद सदृश बंनाओ मुझे,
मै हूँ भी या नहीं,
मेरे होने का अहसास कराओं मुझे,
ढीली पड़ी जो मुठ्ठियाँ,
फिर ना कहना जो हम गुम हुए......!

आते जाते सड़कों की भीड़ में, हम गुमनाम गुम हुए...!

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