Monday, 3 February 2020

अकेले प्रेम की कोशिश-2

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

प्रेम बस अक्षर नहीं, जिसे लिख डालें,
शब्दों का मेल नहीं, जिसे हर्फो से पिस डालें,
उष्मा है ये मन की, जो पत्थर पिघला दे,
ठंढ़क है ये, जलते मन को जो सहला दे,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो ठंढ़क, वही उष्मा जीवन में नित भरने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

प्रवाहित हो जैसे नदी, है ये प्रवाह वही,
बलखाती धारा सी, चंचल सी ये चाह वही,
बरसाती नदिया सी, ये कोई धार नही,
सदाबहार प्रवाह ये, हिमगिरी से जो बही,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो प्रवाह, वही चंचल धारा संग ले चलने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

है पुष्प वही, जो मुरझाने तक सुगंध दे,
योग्य हो पुष्पांजलि के, ईश्वर के शीष चढ़े,
चुने ले वैद्य जिसे, रोगों में उपचार बने,
संग-संग चिता चढ़े, जलते जलते संग दे,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो सुगंध, बस वही अनुराग उत्पन्न करने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

शब्दों में ढल जाएंगे, जब मेरे भाव यही,
हर्फों से मिल ही जाएंगे, फिर मेरे शब्द वही,
अक्षर प्रेम के, इन फिज़ाओं में उभरेंगे,
पिघल जाएंगे पाषाण, प्रेम की इस भाफ से,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो भाव, उन्ही हर्फों से कुछ अक्षर लिखने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....
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"अकेले प्रेम की कोशिश" भाग-1 को पढ़ने के विए यहाँ क्लिक करें 👉   "अकेले प्रेम की कोशिश"
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

बसंत के दरख्त-2

ऐ आलि!
ये दरख्त, ये वक्त, बसंत के!
क्या, सूख जाएंगे?
चुप्पी साधेंगे पंछी, या दूर कहीं उड़ जाएंगे!

संध्या की लाली,
इठलाते, बसंत की हरियाली,
चक्र है, ये जीवन का,
क्या जाने?
माली!
सूखे थे कब, बसंत के ये दरख्त, 
ऐ आलि,
गुनगाएंगे अलि,
पंछी, कल फिर से आएंगे,
दूर कहाँ जाएंगे!
टूटेगी चुप्पी,
दरख्तों पर, फिर छाएगी हरियाली!
ऐ आलि!

रंग, नए उभरेंगे,
उमंग नए, अंग-अंग जागेंगे,
बदलेंगे, थोड़े ये चेहरे,
अभिव्यक्त,
फिर से ये होंगे,
बौराई बातें, अंतरंग सी संवादें,
उभरेंगी,
वो ही सिलवटें,
चहचहाते, फिर आएंगे पंछी,
झूम जाएंगी डाली,
लता गाएंगी,
झूल जाएगी, झूलों सी ये मतवाली,
ऐ आलि!

नादान हैं वो,
ना समझ, समझे ना बसंत को,
पंछी बेचारे, 
अपनी, विपदा के मारे,
चुप, हैं आधे,
कुछ, दम को साधे,
देखो ना, बसंत की हरियाली,
चुप साधे, 
संध्या, 
लाई है लाली,
मुरझाई सी, वो किरणें शर्मीली,
ऐ आलि!

चुप वो पंछी,
गुप-चुप, कल फिर गाएंगे,
ये वक्त, ये दरख्त!
गीत वही बासंती, झूम-झूम कल फिर गाएंगे!
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"बसंत के दरख्त" (भाग-1) इस लिंक पर पढ़ें "बसंत के दरख्त" भाग-1
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 2 February 2020

बसंत के दरख्त-1

गुजर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, सँवर सा गया हूँ?
बसंत के ये, दरख्त जैसे!

कई रंग, अंग-अंग, उभरने लगे,
चेहरे, जरा सा, बदलने लगे,
शामिल हुई, अंतरंग सारी लिखावटें,
पड़ने लगी, तंग सी सिलवटें,
उभर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, निखर सा गया हूँ?
कभी था, अव्यक्त जैसे!

बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!

ये सांझ, धूमिल होने को आए,
जैसे, हर-पल, कोई बुलाए,
हासिल हुई, पनपती थी जो हसरतें 
हुई खत्म, सारी शिकायतें,
अदल सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, बदल सा गया हूँ?
ना हूँ मैं, आश्वस्त जैसे!

बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!

दुलारे लगे, ऋतुओं के नजारे,
नदी के, दो बहते से धारे,
ओझल हुई, नजरों से वो नाव अब,
दिखने लगा, वो गाँव अब,
पिघल सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, उबल सा गया हूँ?
नसों में, बहे रक्त जैसे!

बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!

गुजर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, सँवर सा गया हूँ?
बसंत के ये, दरख्त जैसे!
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"बसंत के दरख्त" (भाग-2) इस लिंक पर पढ़ें  "बसंत के दरख्त-2"
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 31 January 2020

चल कहीं-ऐ दिल

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

बहा गई, आँधियाँ,
रहा न शेष, कुछ भी अब यहाँ,
ना वो, इन्तजार है!
अब न कोई, बे-करार है!
रास्ते, वो खो चुके,
तेरे वास्ते, थोड़ा वो रो चुके!
है कौन? 
जिनके वास्ते, तू रुके!
ख्वाब, ना सुना!
न कर, तू ये नादानियाँ!

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

न देख, तू ये ख्वाब,
तेरी तरह, है प्यासा ये तालाब,
बचा न वो, आब है!
सूखा सा, अब चेनाब है!
पंक बनी, वो धार,
कहीं दूर, हो चली वो धार!
रिक्त अंक!
अंक-पाश, किसे भरे?
साहिल, ये सूना!
कर न, तू मनमानियाँ!

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 30 January 2020

लम्हा

सामने, मेरे खड़ा,
होता है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

वो बहती, सी धारा,
डगमगाए, चंचल सी पतवार सा,
आए कभी, वो सामने,
बाँहें, मेरी थामने,
कभी, मुझको झुलाए,
उसी, मझधार में,
बहा ले जाए, कहीं, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

कितना, करीब वो,
है दूर उतना, बड़ा ही, अजीब वो,
न, बाहों में, वो समाए,
न, हाथों में आए,
रहे, यादों में ढ़लकर,
इसी, अवधार में, 
कहाँ ले जाए, वही, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

लम्हे, कल जो भूले,
ना वो फिर मिले, कहीं फिर गले,
कभी, वो अपना बनाए,
कभी, वो भुलाए,
करे, विस्मित ये लम्हे,
इसी, दोधार में, 
भूला है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

सामने, मेरे खड़ा,
होता है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 29 January 2020

अन्तिम शब्द तेरे

शब्द वो! 
अन्तिम थे तेरे....

कोई हर्फ, नहीं, 
गूंजती हुई, इक लम्बी सी चुप्पी,
कँपकपाते से अधर,
रूँधे हुए स्वर,
गहराता, इक सूनापन,
सांझ मद्धम,
डूबता सूरज,
दूर होती, परछाईं,
लौटते पंछी,
खुद को, खोता हुआ मैं,
नम सी, हुई पलकें,
फिर न, चलके,
कभी थी, वो सांझ आई,
वो हर्फ,
खोए थे, मेरे!

शब्द वो!
अन्तिम थे तेरे....

वही, संदर्भ,
शब्दविहीन, अन्तहीन वो संवाद,
सहमा सा, वो क्षण,
मन का रिसाव,
टीसता, वही इक घाव,
घुटती चीखें,
कैद स्वर,
न, मिल पाने का डर,
उठता सा धुआँ,
धुँध में, कहीं खोते तुम,
कहीं मुझमें होकर, 
गुजरे थे, तुम,
हर घड़ी, गूँजते हैं अब,
वो हर्फ, 
जेहन में, मेरे!

शब्द वो! 
अन्तिम थे तेरे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 28 January 2020

धरोहर - इक चुनौती

ये सिरमौर मेरा, ये अभिमान हैं हमारे,
गर्व हैं इन पर हमें, ये हैं हमारे.... 

वर्षों पुरातन, सभ्यता हमारी,
आठ सौ नहीं, हजारों सदियाँ गुजारी,
नाज मुझे, मेरी संस्कृति पर,
कुचलने चले तुम, मेरे सारे धरोहर,
पर हैं जिन्दा, ये आज भी,
लिए गोद में, तेरी हर निशानी, 
ज़ुल्म की, तेरी हर कहानी,
और संजोये, नैनों में सपने सुनहरे,
कितनी ही, काँटों से गुजरे....

यूँ ही रहेंगे डटे, हमेशा ये सामने तेरे,
भले ये पथ, कंटकों से गुजरे...

जलती राह में, बिखरे अंगारे,
जलते रहे, भटके ना ये कदम हमारे,
विपत्तियों में, अंधेरों ने घेरे,
हर कदम, नए उलझनों के फेरे,
हर युग, चुनौतियों से गुजरे,
मिट ना सकी, संस्कृति हमारी,
जिन्दा है, ये धरोहर हमारी,
गर्व हमको, हैं यही अभिमान मेरे,
हम हर, अभिशाप से उबरे....

हिमगिरी सा, है खड़ा ये सामने तेरे,
भले ये पथ, कंटकों से गुजरे...

मिटाने चले थे, वो जो सभ्यता,
वो लूटेरा! भला क्या हमको लूटता,
कुछ लुटेरे, रह गए हैं देश में,
ये उनके वंशज, बदले से वेश में,
उगलते हैं, अब भी आग वो,
छेड़ जाते हैं, अलग ही राग वो,
जरा गर, लेते है साँस वो,
इक चुनौती, वही अब सामने घेरे,
चल हम, रूप अपना धरें....

ये सिरमौर मेरा, ये अभिमान हैं हमारे,
गर्व हैं इन पर हमें, ये हैं हमारे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 25 January 2020

26 जनवरी : ऐ देश!

ऐ देश, तू अब जाग जरा,
देखे जो, स्वप्न तूने,
जा, पा उसे,
उनके पीछे, तू भाग जरा!

ऐ देश, तू वही लहू बन,
नस-नस, में दौर,
ना, ठहर,
जन-जन में, तू भाग जरा!

ऐ देश, तू लहर हर मन,
बन जा, तीन रंग,
संगीत, सा,
साँसों में भर, तू राग जरा!

ऐ देश, तू पीछे ना मुड़,
कर्म-पथ पर, चल,
आगे ही बढ़,
दे विश्व को, तू ज्ञान जरा!
प्रथम गणतंत्र समारोह में सम्मलित होने, घोड़े की बग्घी में, राजपथ पर जाते देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद।

आपको यह जानकर हैरानी होगी कि आजादी पूर्व 26 जनवरी 1930 से लेकर 26 जनवरी 1947 तक, हम देशवासी 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते रहे हैं।

वस्तुतः दिसम्बर 1929 के लाहौर अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की गई कि अंग्रेज सरकार, 26 जनवरी 1930 तक, भारत को स्वायत्त-उपनिवेश (Dominion) का दर्जा प्रदान करे, नहीं तो, उस दिन से भारत की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति तक, सक्रिय आंदोलन चलता रहेगा, और, 26 जनवरी 1930 से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति तक, भारत में, 26 जनवरी, स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा।

इसके पश्चात, स्वतंत्रता प्राप्ति के वास्तविक दिन, अर्थात् 15 अगस्त, को भारत के स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्वीकार किया गया।

भारत की आज़ाद के पश्चात्  संविधान सभा (Constituent Assembly) की घोषणा हुई। संविधान सभा के सदस्य, भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुने गए। डॉ० भीमराव अम्बेडकर, डाॅ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद आदि जैसे प्रमुख सहित, कुल मिलाकर 308 सदस्य थे।

संविधान निर्माण में कुल 22 समितियाँ थी जिसमें  प्रारूप समिति (Drafting Committee) सबसे प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण समिति थी और इस समिति का कार्य संपूर्ण ‘संविधान लिखना’ या ‘निर्माण करना’ था।इसके अध्यक्ष, विधिवेत्ता डॉ० भीमराव अम्बेडकर थे। प्रारूप समिति नें, 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन में भारतीय संविधान का निर्माण पूर्ण किया और इसे, संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को, 26 नवम्बर 1949 को सुपूर्द किया, इसलिए 26 नवम्बर को भारत में संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है।

संविधान सभा ने, संविधान निर्माण के समय, कुल 114 बैठकें की। इन बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। अनेक सुधारों और बदलावों के बाद सभा के 308 सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को, संविधान की दो हस्तलिखित कॉपियों पर हस्ताक्षर किये, और इसके दो दिन पश्चात्,अर्थात् 26 जनवरी को, भारतीय संविधान, देश भर में लागू हो गया।

इसी दिन, सन् 1950 को भारत सरकार अधिनियम (एक्ट) (1935) को हटाकर भारत का संविधान लागू किया गया।

26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए, इसी दिन संविधान निर्मात्री सभा (Constituent Assembly), द्वारा संविधान में, भारत के गणतंत्र स्वरूप को, मान्यता प्रदान की गई। 

तभी से, 26 जनवरी को, भारत में गणतंत्र दिवस (Republic Day) को राष्ट्रीय पर्व के रूप में, मनाया जाता है।
- सभी देशवासियों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

ऐ देश, तू अब जाग जरा,
देखे जो, स्वप्न तूने,
जा, पा उसे,
उनके पीछे, तू भाग जरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

तन्हाई में कहीं

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

मन को चीर रही, ये शोर, ये भीड़,
हो चले, कितने, ये लोग अधीर,
हर-क्षण है रार, ना मन को है करार, 
क्षण-भर न यहाँ, चैन जरा!

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

सुई सी चुभे, कही-अनकही बातें,
मन में ही दबी, अनकही बातें,
कैसे, कर दूँ बयाँ, दर्द हैं जो हजार,
समझा, इस मन को जरा!

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

वो छाँव कहाँ, मिले आराम जहाँ,
वो ठाँव कहाँ, है शुकून जहाँ,
नफ़रतों की, चली, कैसी ये बयार,
बहला, मेरे मन को जरा!

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 24 January 2020

और, मैं चुप सा

कितनी सारी, बातें करती हो तुम!
और, मैं चुप सा!

बज रही हो जैसे, कोई रागिनी,
गा उठी हो, कोयल,
बह चली हो, ठंढ़ी सी पवन,
बलखाती, निश्छल धार सी तुम!
और, मैं चुप सा!

गगन पर, जैसे लहराते बादल,
जैसे डोलते, पतंग,
धीरे से, ढ़लका हो आँचल, 
फुदकती, मगन मयूरी सी तुम!
और, मैं चुप सा!

कह गई हो, जैसे हजार बातें, 
मुग्ध सी, वो रातें,
आत्ममुग्ध, होता ये दिन,
गुन-गुनाती, हर क्षण हो तुम!
और, मैं चुप सा!

कितनी सारी, बातें करती हो तुम!
और, मैं चुप सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)