Wednesday, 2 December 2020

राजनीति

नीति-अनीति, यथार्थ या भ्रम,
कहते हैं किसे!
शायद, जायज है, सब इसमें,
राजनीति!
कहते है शायद जिसे!

यूँ तो, गैरों की सुनता हूँ,
अनुभव, चुनता हूँ,
अनुभूतियाँ, शब्दों को देकर,
कविता बुनता हूँ!
पर समझ सका न, इस भ्रम को,
बुनता रहा, इक अधेरबुन,
चुन पाया ना, यथार्थ,
शायद, यहाँ, होता सब परमार्थ!
यूँ इस भ्रम में,
सारे ज्ञान, हुए धूमिल,
पर, मिल पाया ना, इक बिस्मिल!
नीति कहाँ!
और, किधर अनीति!
सर्वथा,
इतर रही राजनीति!

अधिकार, कर्तव्यों पर हैं हावी,
संस्कार, ऐसे!
शायद, जायज है, सब इसमें,
राजनीति!
कहते है शायद जिसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 1 December 2020

अलविदा 2020

तू तकता किसकी राह, ऐ अन्तिम माह!
तू जाए तो, ये साल बिसारूँ!
हाल सम्हालूँ, बिगरे हालात बना लूँ!

तेरे होने का ही तो, बस, इक रोना था!
संग होकर भी, तू, संग ना था!
करना ही क्या था, जब कोरोना था!

अपनी दामन के काँटे, सब तुमने बाँटे!
सपन सलोने, हम कैसे पाते!
अब कुछ बाकी है क्या, जाते-जाते!

निर्दयी सा होकर, जीवन से तूने खेला!
गुम था जैसे, जीवन का मेला!
सहमा-सहमा, खुशियों का हर वेला!

कह दो, कैसे भूलूँ, ऐ बीता साल, तुझे!
कैद रखूँ, तुझको पिंजड़े में!
या, तुझको आजाद करूँ, जेहन से!

लेकिन, तूने तो जैसे, छेड़ा इक रण है!
याद रहे, अन्तिम ये क्षण है!
जंग में तेरे आगे, भारी ये जीवन है।

कितनी ही बाधाएं, लांघी है मानव ने,
कितने प्रलय, देखे हैं इसने,
जिन्दा हैं फिर भी, आँखों में सपने!

तू तकता किसकी राह, ऐ अन्तिम माह!
तू जाए तो, ये साल बिसारूँ!
हाल सम्हालूँ, बिगरे हालात बना लूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 30 November 2020

अबकी बारह में

दु:ख के बादल में, अब चुनता है क्या रह-रह,
अबकी, बारह में, हार चले हम ग्यारह!

वो बीत चुका, अच्छा है, जो वो रीत चुका,
अब तक, लील चुका है, सब वो,
जीत चुका है, सब वो,
लाशों के ढ़ेरों में, अब चुनता है क्या रह-रह!
अबकी, बारह में, हार चले हम ग्यारह!

सपने तोड़े, कितनी उम्मीदों नें दामन छोड़े,
जिन्दा लाशों में, शेष रहा क्या?
अवरुद्ध हो रही, साँसें,
बिखरे तिनकों में, अब चुनता है क्या रह-रह!
अबकी, बारह में, हार चले हम ग्यारह!

2020 का, ये अन्तिम क्षण, जैसे इक रण,
खौफ-जदा था, इसका हर क्षण,
बाकि है, सह या मात,
इन अनिश्चितताओं में, चुनता है क्या रह-रह!
अबकी, बारह में, हार चले हम ग्यारह!

वैसे तो, निराशाओं में ही पलती है आशा,
बेचैनी ही, ले आती चैन जरा सा,
रख ले तू भी, प्रत्याशा!
वैसे इस पतझड़ में, तू चुनता है क्या रह-रह!
अबकी, बारह में, हार चले हम ग्यारह!

दु:ख के बादल में, अब चुनता है क्या रह-रह,
अबकी, बारह में, हार चले हम ग्यारह!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 29 November 2020

अतीत-मेरा सरमाया

गर हो पाता!
तो, मुड़ जाता, मैं, अतीत की ओर,
और, व्यतीत करता,
कुछ पल,
चुन लाता, कुछ, बिखरे मोती!

मेरा सरमाया!
वो छूटा कल, जो मैं, चुन ना पाया,
मुझसे ही, रूठा पल,
टूटा पल,
समेट लाता, सारे, हीरे मोती!

हो ना पाया!
खोया अतीत, तुझे मैं, छू ना पाया,
पर तुझमें है, मेरा अंश,
मेरा कल,
जलाए, जो, मन की ज्योति!

वर्तमान ये मेरा!
चाहे, अनुभव का, इक संबल तेरा,
मद्धिम, प्रदीर्घ सवेरा,
दुग्ध कल,
और, अंधेरो में, इक ज्योति!

चल उड़ जा!
ओ मन के पंछी, जा, दूर वहीं जा,
अतीत, जहाँ है मेरा,
बीते पल,
चुग ला, बिखरे, वे मेरे मोती!

गर हो पाता!
तो, मुड़ जाता, मैं, अतीत की ओर,
और, व्यतीत करता,
कुछ पल,
चुन लाता, सारे, बिखरे मोती!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 27 November 2020

जन्मदिन- एक शुभकामना

स्निग्ध छटा सी, स्वप्निल!
मने निरंतर, जन्म-दिवस यह, 
स्वप्न सरीखी स्नेहिल!

अतुल्य स्नेह मिले,
भार्या, भाई-बन्धु, स्वजन, पुत्रजनों से,
कोटि-कोटि आशीष मिले, 
मात-पिता, गुरुजन, श्रेष्ठजनों से,
गाएं सब हिलमिल!

स्निग्ध छटा सी, स्वप्निल!
मने निरंतर, जन्म-दिवस यह, 
स्वप्न सरीखी स्नेहिल!

नवीन विहान हो,
कल्पतरू सा, जीवन के ये पल खिले,
जगमग हो, धूमिल सी संध्या,
विघ्न-विहीन, समुनन्त राह मिले,
रातें हों झिलमिल!

स्निग्ध छटा सी, स्वप्निल!
मने निरंतर, जन्म-दिवस यह, 
स्वप्न सरीखी स्नेहिल!

उम्र चढ़े, आयुष बढ़े,
खुशी की, इक छाँव, घनेरी हो हासिल,
मान बढ़े, नित् सम्मान बढ़े,
धन-धान्य बढ़े, आप शतायु बनें,
आए ना मुश्किल!

स्निग्ध छटा सी, स्वप्निल!
मने निरंतर, जन्म-दिवस यह, 
स्वप्न सरीखी स्नेहिल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
-----------------------------
HAPPY BIRTHDAY

और अभी कितने दिन

और कितने दिन, जीवन के पलछिन!

ये साँसें, कल, थक ना जाएँ,
हो ना हो, कल ये, रुक भी जाएँ!
जीवन, सध भी न पाए,
कैसे कह पाएँ,
बाकि हैं, कितने पलछिन!

और अभी कितने दिन!

पाया जितना, काफी था वो,
चाहा कितना, ना-काफी था वो!
चाहें, तो अब कैसे चाहें,
कोई समझाए,
बाकि हैं, कितने पलछिन!

और अभी कितने दिन!

ठौर मिला, बेशक दौर चला,
मेरे अपनों में, कोई और मिला!
हम गैर किसे कह जाएं,
किसको ठुकराएं,
बाकि हैं, कितने पलछिन!

और अभी कितने दिन!

ठुकरा देता, गर मेरा न होता,
जाते इस पल का, घेरा न होता!
सायों को, कैसे ठुकराएं,
कैसे हाथ छुड़ाएं,
बाकि हैं, कितने पलछिन!

और अभी कितने दिन!

उल्टी साँसें, गिन पाऊँ कैसे,
उखरी हैं साँसें, कह पाऊँ कैसे!
ना ही, धीरज रख पाएं,
कैसे बतलाएं,
बाकि हैं, कितने पलछिन!

और कितने दिन, जीवन के पलछिन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 24 November 2020

एहसान (27 वीं वर्षगांठ:)

एहसान बड़े हैं तेरे, इस जीवन पर मेरे,
आभारी हूँ, बस इतना, कह दूँ कैसे!
तुझको, बेगाना, इक पल में कर दूँ कैसे!

सजल दो नैन जले, अनबुझ, मेरी डेहरी पर,
जैसे रैन ढ़ले, सजग प्रहरी संग,
ऐसा चैन बसेरा!
कोई छीने, मुझसे क्या मेरा!
निश्चिंति का ऐसा घेरा,
पाता मैं कैसे!
बस, आभारी हूँ मैं, कह दूँ कैसे?

हर क्षण, तेरे जीवन का, मेरे ही हिस्से आया,
शायद मैं ही, कुछ ना दे पाया!
देता भी क्या? 
शेष भला, अब मेरा है क्या!
पर, आभारी हूँ मैं...
कह दूँ कैसे!
पराया, इक पल में, कर दूँ कैसे?

अपने हो तुम, सपने जीवन के बुनते हो तुम,
सूने पल में, रंग कई भरते हो,
यूँ, था मैं तन्हा!
अकेला, मैं करता भी क्या?
फीके रंगों से जीवन...
र॔गता मैं कैसे!
बस, आभारी हूँ मैं, कह दूँ कैसे?

एहसान बड़े हैं तेरे, इस जीवन पर मेरे,
आभारी हूँ, बस इतना, कह दूँ कैसे!
तुझको, गैरों में, इक पल में रख दूँ कैसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
---------------------------------------------------
अपनी शादी की 27 वीं वर्षगांठ (24.11.2020) पर पत्नी को सप्रेम समर्पित ...

Sunday, 22 November 2020

खाली कोना

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

तेरा ही मन है, 
लेकिन!
बेमतलब, मत जाना मन के उस कोने,
यदा-कदा, सुधि भी, ना लेना,
दबी सी, आह पड़ी होगी,
बरस पड़ेगी!
दर्द, तुझे ही होगा,
चाहो तो,
पहले,
टटोह लेना,
उजड़ा सा, तिनका-तिनका!

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

तेरा ही दर्पण है, 
लेकिन!
टूटा है किस कोने, जाना ही कब तूने,
मुख, भूले से, निहार ना लेना!
बिंब, कोई टूटी सी होगी,
डरा जाएगी!
पछतावा सा होगा,
चाहो तो,
पहले, 
समेट लेना,
बिखरा सा, टुकड़ा-टुकड़ा!

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

सुनसान पड़ा ये, 
लेकिन!
विस्मित तेरे पल को, संजोया है उसने,
संज्ञान, कभी, उस पल की लेना!
गहराई सी, वीरानी तो होगी,
चीख पड़ेगी!
पर, एहसास जगेगा,
चाहो तो,
पहले, 
संभाल लेना,
सिमटा सा, मनका-मनका!

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 20 November 2020

अभिभूत - 27 साल

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!

जितना भी जाना, तुझको कम ही जाना,
बस, फूलों सा, था तुझको मुरझाना,
नित शीष चढ़े, पाँव तक फिसले,
पाँव तले, गए नित कुचले,
फिर भी, हौले से, यूँ मुस्काकर,
वशीभूत कर गए तुम!

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!

चली इक अंजानी पथ, डगमग सी नैय्या,
तब पुरजोर चली थी, इक पुरवैय्या,
किस ओर कहाँ, हम बह निकले,
हाँथों में, मेरा ही हाथ लिए,
उमंग कई, आँचल में भर कर,
द्रवीभूत कर गए तुम!

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!

इक मैं था, अनमस्क, बेपरवा अल्हड़ सा,
बे-दिल, बे-खबर, बेजान, पत्थर सा,
जाने कैसे, पल में, सदियों गुजरे,
हम तो, बस यूँ ही थे ठहरे,
पलकों की, छाँव घनेरी देकर,
परिभूत कर गए तुम!

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!

नित समक्ष सवेरा, अंत क्यूँकर होता मेरा,
ढ़ला, रोज ही, तम सा, तमस अंधेरा,
क्षितिज के, खिल आने से पहले,
चिड़ियों के, गाने से पहले,
रुण-झुण, पायल की भर कर,
जड़ीभूत कर गए तुम!

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
-----------------------------------------------------
24 नवम्बर, 2020: जब हम द्व्य 27 साल पूरा कर रहे होंगे। यह एक अनुभूति, अभिभूत किए जा रही है मुझे। हुए हम दो से चार, रचा इक छोटा सा संसार। 
संक्षिप्त, एक लघु जीवन-रचना, आशीष की अपेक्षाओं सहित, अपने पाठकों के लिए......

Thursday, 19 November 2020

कैद

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

भटकोगे, अन्तर्मन के इस सूने वन में, 
कल्पनाओं के दारुण प्रांगण में,
क्या रह पाओगे?

पहले तो, बनती थी, इक परछाईं सी,
कभी, पल-भर में गुम होते थे!
कभी तुम होते थे!

तेरे ही सपने, पलते थे उड़ते-उड़ते से,
पर, डरता था, कुछ कहने से,
उड़ते सपनों से!

कैद हो चली, तेरे ही यादों की परछाईं,
लेकिन, आँखें हैं अब धुंधलाई,
जा पाओगे कैसे!

रोकेंगी तुझको, तेरी यादों के अवशेष,
नैनों का, धुंधलाता ये परिवेश,
जा ना पाओगे!

इन्हीं अवशेषों के मध्य, बजती हुई दूर,
गुनगुनाती सी, होगी इक धुन,
वही, शेष हूँ मैं!

गाते कुछ पल होंगे, बीते वो कल होंगे,
शायद, एकाकी ना पल होंगे,
रुक ही जाओगे!

या भटकोगे, अन्तर्मन के सूने से वन में, 
यातनाओं के, दारुण प्रांगण में,
कैसे रह पाओगे?

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)