Saturday, 26 December 2020

कठपुतली

तू, क्यूँ खुद पर, इतना करे गुमान!
देने वाला वो, और लेने वाला भी वो ही,
बस, ये मान!  क्यूँ बनता अंजान!
ढ़ल जाते हैं दिन, ढ़ल जाती है ये शाम,
उनके ही नाम!

ईश्वर के हाथों, इक कठपुतली हम!
हैं उसके ही ये मेले, उस में ही खेले हम,
किस धुन, जाने कौन यहाँ नाचे!
हम बेखबर, बस अपनी ही गाथा बाँचे,
बनते हैं नादान!

ये है उसकी माया, तू क्यूँ भरमाया!
खेल-खेल में, उसने ये रंग-मंच सजाया,
सबके जिम्मे, बंधी इक भूमिका,
पात्र महज इक, उस पटकथा के हम,
बस इतना जान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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एक सत्य प्रसंग से प्रेरित .....

दान देते वक्त, संत रहीम, जब भी हाथ आगे बढ़ाते थे, तो शर्म से उनकी नज़रें नीचे झुक जाती थी।

यह बात सभी को अजीब सी लगती थी! इस पर एक संत ने रहीम को चार पंक्तियाँ लिख भेजीं -

"ऐसी देनी देन जु, कित सीखे हो सेन।
ज्यों ज्यों कर ऊँचौ करौ, त्यों त्यों नीचे नैन।।"

अर्थात्, रहीम! तुम ऐसा दान देना कहाँ से सीखे हो? जैसे जैसे तुम्हारे हाथ ऊपर उठते हैं वैसे वैसे तुम्हारी नज़रें, तुम्हारे नैन, नीचे क्यूँ झुक जाते हैं?

संत रहीम ने जवाब में लिखा -

"देनहार कोई और है, भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करैं, तासौं नीचे नैन।।"

अर्थात्, देने वाला तो, मालिक है, परमात्मा है, जो दिन रात भेज रहा है। परन्तु लोग समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ, रहीम दे रहा है। यही सोच कर मुझे शर्म आती है और मेरी नजरें नीचे झुक जाती हैं।

Thursday, 24 December 2020

झील सा, अधबहा

गुफ्तगू, बहुत हुई गैरों से,
पर गाँठ, गिरह की, खुल न पाई!
है अन्दर, कितना अनकहा!
झील सा, अनबहा!
अब, बहना है,
इक दीवाने से, कहना है!

मिल जाए, तो अपना लूँ, 
माना, इक फलक है, बिखरा सा,
खुद में, कितना उलझा सा,
बंधा या, अधखुला!
कितना, टूटा है,
उन टुकड़ों को, चुनना है!

दो होते, तो होती गुफ्तगू,
चुप-चुप, करे क्या, मन एकाकी!
गगन करे भी क्या, तन्हा सा!
भींगा या, अधभींगा!
शायद, तरसा है!
उसे तन्हाई में, पलना है!

पहले, सहेज लूँ ये बहाव,
समेट लूँ, मन के सारे बहते भाव!
रोक लूँ, ले चलूँ किनारों पर!
बहने दूँ, ये अधबहा!
भँवर विहीन सा,
फिर बहाव में, बहना है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 23 December 2020

निवृति

निवृति कब पाया किसने!
माया यह जीवन!

गंतव्य कहाँ!
जाने कौन, यहाँ!
अनंत पथ,
अनवरत जीवन रथ,
शतत् कर्मरत्, यह अग्निपथ,
इक शपथ,
इक और शपथ!
निवृत कब!
पलती, साँसों के मध्य,
तृष्णा,
और वितृष्णा,
दोधार बना जीवन!

निवृति कब पाया किसने!
माया यह जीवन!

संसार जहाँ,
सुख-सार, कहाँ!
व्यस्त रहा,
विवश रहा, प्राणी,
बिछड़न-मिलन के मध्य,
बह चला,
आँखों का पानी,
बरसा सावन,
फिर भी क्यूँ तरसा,
मन,
प्यासा घन,
सूख चला जीवन!

निवृति कब पाया किसने!
माया यह जीवन!

रात अकेली,
पलकों बीच, खेली,
कभी सोई,
बदल बदल करवट,
जागे, ऊंघे पलकों के पट,
राहें सूनी,
आंगन सब सूना,
इक आस,
मध्य, सौ-सौ निराश,
क्षण,
क्षत्-विक्षत,
आहत इक जीवन!

निवृति कब पाया किसने!
माया यह जीवन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 20 December 2020

कोहरे

धुंधले ये कोहरे हैं, या दामन के हैं घेरे,
रुपहली क्षितिज है, या रुपहले से हैं चेहरे,
ठंढ़ी पवन है, या हैं सर्द आहों के डेरे,
सिहरन सी है, तन-मन में,
इक तस्वीर उभर आई है, कोहरों में!

सजल ये दो नैन हैं, या हैं बूंदों के डेरे,
वो आँचल हैं ढ़लके से, या हैं बादल घनेरे,
वो है चिलमन, या हैं हल्के से कोहरे,
हलचल सी है, तन-मन में,
वही रंगत उभर आई है, कोहरों में!

उसी ने, रंग अपने, फलक पर बिखेरे,
रंगत में उसी की, ढ़लने लगे अब ये सवेरे,
वो सारे रंग, जन्नत के, उसी ने उकेरे,
छुवन वो ही है, तन-मन में,
वही चाहत उभर आई है, कोहरों में!

बुनकर कोई धागे, कोई गिनता है घेरे,
चुन कर कई लम्हे, कोई संग लेता है फेरे,
किसी की रात, किन्हीं यादों में गुजरे,
कोई बन्धन है, तन-मन में,
इक तावीर उभर आई है, कोहरों में!

धुंधले ये कोहरे हैं, या दामन के हैं घेरे,
रुपहली क्षितिज है, या रुपहले से हैं चेहरे,
ठंढ़ी पवन है, या हैं सर्द आहों के डेरे,
सिहरन सी है, तन-मन में, 
इक तस्वीर उभर आई है, कोहरों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

और कितने दूर

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

सब तो, छूट चुका है पीछे,
फिर भागे मन, किन सपनों के पीछे,
वो, जो है रातों के साए,
कब हाथों में आए,
जाने, कहाँ-कहाँ, भटकाएगी,
अधूरी मन की चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

जाने कब, भूल चुके सब,
मन के स्नेहिल बंधन, तोड़ चले कब,
बिसराए, नेह भरे गंध, 
वो गेह भरे सुगंध,
तन्हा पल में, याद दिलाएगी,
बन कर इक आह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

अब तक, लब्ध रहा क्या!
क्या प्रासंगिक थी, सारी उपलब्धियाँ!
गिनता हूँ अब तारों को,
मलता हूँ हाथों को,
झूठी चाहत, क्या करवाएगी?
बस, भटकाएगी राह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

प्रसंग कई, जब छूट चले,
जाना, जब खुद अप्रासंगिक हो चले,
तर्क, भला  क्या देना!
राहों में, क्या रोना!
इस प्रश्नकाल में, जग जाएगी!
इक तृष्णा इक चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 16 December 2020

आसां नहीँ

आसां नही, किसी के किस्सों में समा जाना,
रहूँ मैं जैसा! हूँ मगर आज का हिस्सा,
कल के किस्सों में, शायद रह जाऊँ बेगाना!
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

जीवंत, एक जीवन, सुसुप्त करोड़ों भावना,
कितना ही नितांत, उनका जाग जाना!
कितने थे विकल्प, पर न थी एक संभावना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

मन की किताबों पर, कोई लिख जाए कैसे!
मौन किस्सों का हिस्सा, बन जाए कैसे!
कपोल-कल्पित, सारगर्भित सा मेरा तराना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

ये हैं चह-चहाहटें, है ये ही कल की आहटें,
जीवंत संवेदनाओं की, मूक लिखावटें!
सुने ही कौन, ये अनगढ़ा, मूक सा फ़साना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

क्यूँ कोई बनाए, किसी को याद का हिस्सा,
क्यूँ कोई पढ़े, कोई अनगढ़ा सा किस्सा,
क्यूँ कोई संभाले, किसी और की संवेदना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

पहर दोपहर, बढ़ा, असंवेदनाओं का शहर,
मान कर अमृत, पान कर लेना ये जहर,
रख संभालना, जीवंत भावना व संवेदना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 15 December 2020

आ भी जाओ

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

कोई खेल कैसे, अकेले ही खेले!
कोई बात कैसे, खुद से कर ले अकेले!
तेरे बिन ये मेले, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

फागुन भी हारे, खो गए रंग सारे,
नैन, तुझको ना बिसारे, उधर ही निहारे,
तुम बिन ये रंग, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

बेरंग से ये फूल, तकती हैं राहें,
चुप-चुप सी कली, तुझको ही पुकारे,
रंग ये उदास, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

सूनी सी पड़ी, कब से ये गलियाँ,
गई जो बहारें, फिर न लौट आई यहाँ,
विरान गलियाँ, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

वो, कल के तराने, न होंगे पुराने,
ले आ वही गीत, वो ही गुजरे जमाने,
ये नए से तराने, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

जा कह दे, उन बहारों से जाकर,
वो ही तन्हाई में, गुम न जाए आकर,
ये लम्हात तन्हा, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

भूले कोई कैसे वो सावन के झूले,
कोई दूर कैसे, खुद से, रह ले अकेले!
बूंदें! ये तुम बिन, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 13 December 2020

देश को न बाँटिए

अधिकार-पूर्वक, मांगिए,
मतलब साधिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

जयचंद न बनिए,
राह, जिन्ना की न चलिए,
देखे हैं हमनें, पराधीनता की पराकाष्ठा,
फिर, डिग न जाए, ये आस्था,
देश ये, बँट न जाए,
अपने हाथों, हाथ अपना, 
कट न जाए,
एक जिन्ना, राष्ट्र को ही, बाँट बैठा,
हाथ, खुद ही अपना, काट बैठा,
बचे हैं, कुछ रक्तबीज,
रोज ही, बोते हैं जो,
विभाजन के, रक्तिम विषैले-बीज!
पर, अब न होने देंगे, हम,
और विभाजन!
आप, सियासतें कीजिए,
रियायतें लीजिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

स्वार्थ-वश, होकर विवश,
कुछ भी बांचिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

निराधार आकाश

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

देशहित से परे, न आंदोलन कोई,
देशहित से बड़ा, होता नहीं निर्णय कोई,
देशहित से परे, कहाँ संसार मेरा,
देशहित ही रहा संस्कार मेरा,
पर, डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

प्रतिनिधि चुना, खुद मैंने हाथों से,
प्रभावित कितना था मैं, उनकी बातों से!
इक दीप सा था, वो प्रकाश मेरा,
खड़ा सामने था, इक सवेरा,
पर, डिग रहा अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

अंधेरों में, रुक चुका है ये कारवाँ,
भरोसे के काबिल, शायद, न कोई यहाँ!
रिक्तियों से भरा, अंकपाश मेरा,
निःपुष्प सा, ये पलाश मेरा,
डिगने लगा है, अब विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

चालें, अपनी ही, नित चलता रहा,
वो फरेबी, इक चक्रव्यूह ही रचता रहा,
कल तक, वो था संगतराश मेरा,
ले न आए वही, विनाश मेरा!
ऐसा डिग रहा अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

सर्वोपरि हो, देश हित, फिर हैं हम,
पर उसी नें इस देश में, फैलाया है भ्रम,
इक अंधकार में है, आकाश मेरा,
निराधार ही था, विश्वास मेरा!
ऐसा डिग चला अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 12 December 2020

पलों के यूकेलिप्टस

नहीं, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!

हाँ, बीत जाते हैं जो, साथ होते नहीं,
पर वो पल, बीत पाते हैं कहाँ!
सजर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
पलों के, विशाल यूकेलिप्टस!
लपेटे, सूखे से छाले,
फटे पुराने!

नया, कुछ भी नहीं....

बीत जाते हैं युग, वक्त बीतता नहीं,
कुछ, वक्त के परे, रीतता नहीं!
अकेले ही भीगता, पलों का यूकेलिप्टस,
कहीं शून्य में, सर को उठाए!
लपेटे, भीगे से छाले,
फटे पुराने!

नया, कुछ भी नहीं....

हाँ, पुराने वो पल, पुरानी सी बातें,
गुजरे से कल, रुहानी वो रातें!
उभर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
लह-लहाते, वो यूकेलिप्टस!
लपेटे, रूखे से छाले,
फटे पुराने!

और, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)