Sunday, 18 April 2021

मायूस ख्याल

लबों पे, ठहर जाते हैं, कुछ सवाल,
मायूस से, कुछ ख्याल!

उन पर, आ ही जाता है, रहम,
सो, चलाता हूँ कलम,
कागजों पर, 
टूट जाते है, सारे ही भरम,
बिखर जाते हैं,
सवाल!

मायूस से, कुछ ख्याल!

न जाने क्यूँ, कुछ बोलते नहीं!
क्यूँ लब, खोलते नहीं,
सिलते हैं ये,
बुनते हैं, सारे ही बवाल,
सिमट जाते है,
सवाल!

मायूस से, कुछ ख्याल!

क्या करे, बेजान से ये कागज!
नादान से, ये कागज,
ये कहे कैसे,
अधलिखे, हैं जो ख्याल,
मुकर जाते हैं, 
सवाल!

लबों पे, ठहर जाते हैं, कुछ सवाल,
मायूस से, कुछ ख्याल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 17 April 2021

सब्र

यूँ, सब्र के धागों को तुम तोड़ो ना!

हो, कितनी दूर, हकीकत, 
पर, मुमकिन है, सच को पा लें हम,
यूँ ही, खो जाने की बातें,
अब और करो ना!

सच से, यूँ ही आँखें तुम फेरो ना!

अन्धियारा, छा जाने तक,
चल, बुझता इक दीप, जला लें हम,
यूँ ही, घबराने की बातें, 
अब और करो ना!

यूँ ही, आशा का दामन छोड़ो ना!

जाना है, उन सपनों तक,
हकीकत ना बन पाए, जो अब तक,
यूँ, मुकर जाने की बातें,
अब और करो ना!

जज्ब से, जज्बातों को मोड़ो ना!

हो, कितनी दूर, हकीकत,
यूँ सच को, झुठलाए कोई कब तक,
यूँ ही, बैठ जाने की बातें,
अब और करो ना

यूँ, जीवन से आँखें तुम फेरो ना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 15 April 2021

किस्सों में थोड़ा सा

उनकी किस्सों का, इक अंश हूँ अधूरा सा!
उन किस्सों में, अब भी हूँ थोड़ा सा!

मुकम्मल सा, इक पल,
उत्श्रृंखल सी, इठलाती इक नदी,
चंचल सी, बहती इक धारा,
ठहरा सा, इक किनारा!

सपनों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

धारे के, वो दो किनारे,
भीगे से, जुदा-जुदा वो पल सारे,
अविरल, बहती सी वो नदी,
ठहरी-ठहरी, इक सदी!

सवालों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

अधूरी सी, बात कोई,
जो तड़पा जाए, पूरी रात वही,
याद रहे, वो इक अनकही,
रह-रह, नैनों से बही!

ख्यालों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

रुक-रुक, वो राह तके,
इस चाहत के, कहाँ पाँव थके!
उभर ही आऊँ, मैं यादों में,
जिक्र में, या बातों में!

उनकी किस्सों का, इक अंश हूँ अधूरा सा!
उन किस्सों में, अब भी हूँ थोड़ा सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

पत्ता

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

ऋतुमर्दन ही होना था, इक दिन तेरा, 
ऋतुओं में ही, खोना था,
ऋतुओं पर, ना करना था यूँ एतबार,
ऋतु पालक, ऋतु संहारक,
ऋतुओं से, रखना था, विराग जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

डाली पर पनपे, यूँ डाली से ही छूटे!
बिखरे, यह कैसी, इति!
व्यक्त और मुखर, ऋतुओं से बेहतर,
अभिव्यक्ति ही था कारण,
मौसमों में, रहना था अव्यक्त जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

निखर आए, तेरे अंग, ऋतुओं संग,
यूँ, नजरों में, चढ़ आए,
ऋतुओं संग, पनपता, अनुराग तेरा,
शायद, अखरा हो उनको,
डाली को करना था, विश्वास जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 14 April 2021

टूटे जो संयम

लास्य रचाते, जीवन के उन्मुक्त क्षण यहाँ,
तन कुम्हलाए, पर ये मन कहाँ!

लास्य रचाती, अभीप्साओं की उर्वशियाँ!
जीवन का गायन, मन का वादन,
हर क्षण, इक उद्दीपन,
डिग जाए आसन, टूटे जो संयम, 
फिर दोष कहाँ!

लास्य रचाते, जीवन के उन्मुक्त क्षण यहाँ!
पुकारे, नाद रचाती ये पैजनियाँ!

भरमाए, ये रश्मियाँ, आती जाती उर्मियाँ!
ये चंचल लहरें, वो रश्मि-किरण,
लहराते इठलाते, घन,
डोले जो आसन, टूटे जो संयम,
फिर दोष कहाँ!

लास्य रचाते, जीवन के उन्मुक्त क्षण यहाँ,
लुभाए, आँगन की ये रश्मियाँ!

तन, हो भी जाए वैरागी, पर ये मन कहाँ!
निमंत्रण दे, लास्य रचाते ये क्षण,
आबद्ध करे, आकर्षण,
डोले जो आसन, टूटे जो संयम,
फिर दोष कहाँ!

लास्य रचाते, जीवन के उन्मुक्त क्षण यहाँ,
तन कुम्हलाए, पर ये मन कहाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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लास्य का अर्थ:
- शास्त्रीय संगीत का एक रूप जिसमें कोमल और मधुर भावों तथा श्रृंगार रस की प्रधानता होती है
- एक स्त्रीसुलभ लालित्यपूर्ण नृत्य (तांडव जैसे पुरुष-प्रधान नृत्य के विपरीत)।
नाच या नृत्य के दो भेदों में से एक । वह नृत्य जो भाव और ताल आदि के सहित हो, कोमल अंगों के द्वारा  की जाती हो और जिसके द्वारा श्रृंगार आदि कोमल रसों का उद्दीपन होता हो । 
- साधरणतः स्त्रियों का नृत्य ही लास्य कहलाता है । कहते है, शिव और पर्वती ने पहले पहल मिलकर नृत्य किया था । शिव का नृत्य तांडव कहलाया और पार्वती का 'लास्य'।
लास्य के भी दो भेद हैं— छुरित और यौवत । नायक नायिका परस्पर आलिंगन, चुंबन आदि पूर्वक जो नृत्य करते हैं उसे छुरित कहते हैं । एक स्त्री लीला और हावभाव के साथ जो नाच नाचती है उसे यौवत कहते हैं । 
- इनके अतिरिक्त अंग प्रत्यंग की चेष्टा के अनुसार ग्रंथों में अनेक भेद किए गए हैं ।साहित्यदर्पण में इसके दस अंग बतलाए गए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं - गेयपद, स्थितपाठ, आसीन, पुष्पगंडिका, प्रच्छेदक, त्रिगूढ़, सैंधबाख्य, द्विगूढ़क, उत्तमीत्तमक और युक्तप्रयुक्त ।

Tuesday, 13 April 2021

गैर लगे मन

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

गैर लगे, अपना ही मन,
हारे, हर क्षण,
बिसारे, राह निहारे,
करे क्या!
देखे, रुक-रुक वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

तन्हा पल, काटे न कटे,
जागे, नैन थके,
भटके, रैन गुजारे,
करे क्या!
ताके, तेरा पथ वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

इक बेचारा, तन्हा तारा,
गगन से, हारा,
पराया, जग सारा,
करे क्या! 
जागे, गुम-सुम वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

संग-संग, तुम होते गर,
तन्हा ये अंबर,
रचा लेते, स्वयंवर,
करे क्या!
हारे, खुद से वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!


- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 11 April 2021

सफर

अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

जाना किधर, ये है किसको खबर,
कोई रह-गुजर, रोक ले, ये बाहें थामकर,
खोकर नेह में, रुक गए,
किसी की, स्नेह में, कहाँ झुक गए!
ये किसने जाना!

रोकती है राहें, छाँव, ये सर्द आहें,
पर जाना है मुझको, तू कितना भी चाहे,
भले हम, छाँव में सो गए,
यूँ कहीं ठहराव में, पल भर खो गए!
ये किसने जाना!

कोई पल न जाने, भिगो दे कहाँ, 
ये अँसुअन सी, नदी, ये बहता सा, शमाँ,
विह्वल, जो ये पल हो गए,
इक मझधार में, जाने कहाँ खो गए!
ये किसने जाना!
अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

वहीं रहना

मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

यही तो है, जो, बांधता है मुझको,
वेधता है, संज्ञाशून्ताओं को,
समझने की कोशिश में, तुझको सोचता हूँ,
लकीरों में, बुनता हूँ तुम्हें ही,
मिथक हो, या कितना भी पृथक हो,
पर, लगते सार्थक से हो!
शायद, जब तलक कल्पनाओं में हो!

मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

झूमती हुई, डालियों सी, चंचलता,
पृथक सी, अल्हड़ मादकता,
प्राकृत जीवंतताओं में, देखता हूँ तुझको,
समस्त विकृतियों से, अलग,
परिपूर्णताओं की, हदों से अलंकृत,
हर, रचनाओं में श्रेष्ठ!
शायद, जब तलक कल्पनाओं में हो!

मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

यूँ तो, इन विसंगतियों से परे कौन,
लेकिन, रहे कोई, जैसे मौन,
ताकती सी मूरत, झांकती सी एक सूरत,
अल्हड़, बिल्कुल  नादान सी,
ज्यूँ, अरण्य में, विचरती हो मोरनी,
खुद ही, से अनभिज्ञ!
शायद, जब तलक कल्पनाओं में हो!

मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

करोड़ों उभरते सवाल, उनमें तुम,
क्यूँ रहें, बन एकाकी हम!
ओढ़े आवरण, क्यूँ न संजोएं इक भरम!
करूँ, मौजूदगी का आकलन,
रखूँ, समय की सेज पर तुम्हें पृथक,
क्यूँ मानूं, तुमको मिथक!
शायद, जब तलक कल्पनाओं में हो!
 
मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 10 April 2021

बेजुबां खौफ

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

अब तो जिंदगी, कैद सी लगने लगी,
अभी, इक खौफ से उबरे, 
फिर, नई इक खौफ!
शेष कहने को है कितना, पर ये सपना!
सपनों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

पहरे लगे हैं, साँसों की रफ्तार पर,
अवरुद्ध कैसी, सांसें यहाँ,
नया, ये खौफ कैसा!
इस खौफ की, अलग ही, पहचान अब!
पहरों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

अलग सी ये दास्ताँ, इस दौर की,
बोझिल राह, हर भोर की,
खौफ में, सिमटे हुए,
गुजरते दिन की, अंधेरी सी, सांझ अब!
अंधेरों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

चुपचाप, सिमटने लगी अब राहें,
बिन बात, अलग दो बाहें,
शून्य को, तकते नैन,
विवश हो एकांत जब, कहे क्या जुबां!
यूंही अकेले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
------------------------------------------------------कोरोना - पार्ट 2....

Friday, 9 April 2021

उभर आओ ना

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत,
सिमटोगे, लकीरों में, कब तक!

झंकृत, हो जाएं कोई पल,
तो इक गीत सुन लूँ, वो पल ही चुन लूँ,
मैं, अनुरागी, इक वीतरागी,
बिखरुं, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

आड़ी तिरछी, सब लकीरें,
यूँ ही उलझे पड़े, कब से तुझको ही घेरे,
निकल आओ, सिलवटों से,
यूँ देखूँ, मैं कब तक! 
   
उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

उतरे हो, यूँ सांझ बन कर,
पिघलने लगे हो, सहज चाँद बन कर,
यूँ टंके हो, मन की गगन पर,
निहारूँ, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

खोने लगे हैं, जज्बात सारे,
भला कब तक रहें, ख्वाबों के सहारे,
नैन सूना, ये सूना सा पनघट,
पुकारूँ, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत,
सिमटोगे, लकीरों में, कब तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)