Saturday, 12 June 2021

जिक्र आपका

फिर, करूँ जरा, जिक्र आपका!

झील सी, दो नीली आँखें,
झुकी, पर्वतों पर, अलसाई सी पलकें,
कजराए नैनों में, नींदों के पहरे,
कुछ, तुझे कहने से पहले,
जिक्र थोड़ा, 
बादलों का, कर लूँ!

फिर, करूँ जरा, जिक्र आपका!

अधखुली सी, दो पंखुड़ी,
किसी शाख पर, विहँस कर, हों पड़ी,
यूँ भींग कर, हो रही शबनमी,
कुछ, तुझे कहने से पहले,
जिक्र थोड़ा, 
गुलाबों का, कर लूँ!

फिर, करूँ जरा, जिक्र आपका!

आभामयी, जैसे चांदनी,
अक्स, ज्यूँ अंधेरों में, प्रदीप्त रौशनी,
जली अनवरत, दीये की नमीं,
कुछ, तुझे कहने से पहले,
जिक्र थोड़ा, 
पूजा का, कर लूँ!

फिर, करूँ जरा, जिक्र आपका!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

प्रवाह में

उजली सी, राह में,
जिन्दगी के, इस प्रवाह में, 
बाकी रह गई,
इक अजनबी सी, 
चाह शायद!

है बेहद, अजीब सा मन!
हासिल है सब,
पर अजीज है, बस चाह वो,
है अजनबी,
पर है, खास वो,
दूर है,
पर है, पास वो,
ख्वाब है,
कर रहा, है बेताब वो,
कुछ फासलों से,
यूँ, गुजर चुके हैं, चाह शायद!

सफर में, साथ में,
वही तस्वीर लिए, हाथ में, 
बाकी रह गई,
इक अजनबी सी, 
चाह शायद!

मौन है वो, पर गौण नहीं!
ये तोलती है मन,
झकझोरकर, टटोलती है मन,
कभी, सुप्त वो,
है कभी, जीवन्त वो,
अन्तहीन सा,
प्रवाह, अनन्त वो,
आस-पास वो,
मन ही, किए वास वो,
कभी, आहटों से,
तोड़ती है मौन, चाह शायद!

ज्वलन्त रात में,
जलते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई,
कोई अजनबी सी,
चाह शायद!

अजनबी सी, इस राह में!
यूँ तो, मिला था,
कई अजनबी सी, चाह से,
कुछ, प्रबल हुए,
कुछ, बदल से गए,
कुछ, गुम हुए,
कुछ, पीछे ही पड़े,
रूबरू हो कर,
इस राह में,
कई अलविदा, कह गए,
अजनबी से कुछ,
अब भी बचे, चाह शायद!

मन की वादियों में,
वही ढूंढते हैं, राह शायद!
बाकी रह गई,
कोई अजनबी सी,
चाह शायद!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 11 June 2021

कोरे कागज

ना गिन पाऊँ, आती-जाती, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे, अब कौन रंगे!

बीते कई दिन, बस यूँ ही, अनमने से,
अर्ध-स्वप्न सी, बीती रातें कई,
नैन मलता रहा, बस यूँ ही, जागा-जागा,
दूर, जीवन कहीं, रंगों से भागा,
सोई, मन की उमंगे!

ना गिन पाऊँ, आती-जाती, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे, अब कौन रंगे!

बही प्रतिकूल, यूँ ही, ये चंचल हवाएँ,
छू ले, कभी, यूँ नाहक जगाए,
अनमनस्क लग रहे, नदी के ये किनारे,
दूर, बहते रहे, अनवरत वो धारे,
खो गई, सारी उमंगे!

ना गिन पाऊँ, आती-जाती, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे, अब कौन रंगे!

शायद, बहने लगे, पवन हौले-हौले,
मन को मेरे, कोई यूँ ही छू ले!
शून्य क्यूँ है इतना, कोई आए टटोले!
दूर, क्षितिज पर, फिर से बिखेरे,
वो ही, सतरंगी उमंगे!

ना गिन पाऊँ, आती-जाती, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे, अब कौन रंगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 7 June 2021

वो कौन था

वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!

शायद दूर था, उसकी आशाओं का घर!
बांध रखी थी, उम्मीदों की गठरियाँ,
और, ये सफर, काँटों भरा....
राहों में, वो ही कहीं, अब गौण था!
बड़ा ही मौन था!

शायद, धू-धू, सुलग रही थी, आग इक!
जल चुके थे, सारे सपनों के शहर,
और, धुँआ सा, उठता हुआ.....
उस धुँध में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!

शायद था थका, हताश अब भी न था!
वो इक परिंदा, था उम्मीदों से बंधा,
और, नीलाभ, तकता हुआ....
आकाश में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!

वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 5 June 2021

मुझे क्या!

मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!

खोया हूँ, तेरी ही विस्मृति के, आंगण में,
बंधा हूँ, नभ के भीगे से, उस घन में,
शायद, उभर जाऊँ सावन में!

मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!
 
त्यक्त हूँ, विडंबनाओं के, फैले प्रांगण से,
मुक्त हूँ, भावनाओं के हर बंधन से,
शायद, व्यक्त कभी हो आऊँ!

मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!

बीता कल हूँ, अक्स, तुम्हारा ही हैं इनमें,
इक छल हूँ, प्राण हमारा है जिनमें,
शायद, विस्मृति में रह जाऊँ!

मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!

कल ना रहूँ, रह जाएंगी मेरी ये विस्मृति,
मैं ना कहूँ, कहने आएंगी विस्मृति,
शायद, याद कभी आ जाऊँ!

मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 1 June 2021

तसल्ली

दिल को, तसल्ली थोड़ी सी,
मैंने, दी तो थी,
अभी,
कल ही!

पर ये जिद पर अड़ा, रूठ कर पड़ा,
बेवजह, दूर वो खड़ा,
किसी की, चाह में,
उसी राह में,
बेवजह, इक अनबुने से ख्याल में!

कोई मूर्त हो, तो, ला भी दूँ, मैं भला,
पर, अमूर्त कब मिला!
अजीब सी चाह है,
इक प्रवाह है,
बेवजह, बहल रहा, उस प्रवाह में!

करे वो कैसे, इक सत्य का सामना,
जब, प्रबल हो कामना,
बुने, कोई उधेड़बुन, 
छेड़े वही धुन,
वो ही गीत, खुद सुने, एकान्त में!

दिल को, तसल्ली थोड़ी सी,
मैंने, दी तो थी,
अभी,
कल ही!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 31 May 2021

पथ के आकर्षण

पथ के आकर्षण,
पीछे, पथ में ही रह जाते हैं .....

चलते-चलते, इक संग, इक पथ में,
मन को, ये कर जाते, वश में,
दामन में, ये कब आए,
वो आकर्षण, 
मन-मानस में, बस जाते हैं!

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे, पथ में ही रह जाते हैं .....

जैसे, कोई सम्मोहन, या कोई जादू,
मन को, करता जाए, बेकाबू,
छलक उठे, पैमानों में,
बूँदों के वो घन,
फिर भी, प्यास बढ़ा जाते हैं!

आँगन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे, पथ में ही रह जाते हैं .....

इक दर्द, टीस जरा, मुझे है हासिल,
पीड़ वही, करती है, बोझिल,
यूँ, पथ में ही छूटे हम,
उन यादों में डूबे,
मुझसे दूर, मुझे ही ले जाते है!

पहलू में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे, पथ में ही रह जाते हैं .....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 30 May 2021

जागे सपने

जाने कब से, घुप अंधियारों में,
पलकें खोले,
जागे से, सपनों को तोले,
जागा सा मैं!

शायद, सपनों के पर, 
छूट चले हों, बोझिल पलकों के घर,
उड़ चली नींद,
झिलमिल, तारों के घर,
आकाश तले, संजोए ख्वाब कई,
जागा सा मैं!

जाने, फिर लौटे कब,
शायद, तारों के घर, मिल जाए रब,
खोई सी नींद,
दिखाए, दूजा ही सबब,
पलकें मींचे, नीले आकाश तले,
जागा सा मैं!

ये, सपनों की परियाँ,
शायद, हों इनकी, अपनी ही दुनियाँ,
भूली हो नींद,
अपने, पलकों का जहाँ,
खाली उम्मीदों के, दहलीज पर,
जागा सा मैं!

जाने कब से, घुप अंधियारों में,
पलकें खोले,
जागे से, सपनों को तोले,
जागा सा मैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 29 May 2021

तन्हा राहें

कौतुहल वश!
देखा, जो मुड़ के बस!
पाया, कितनी तन्हा थी, वो राहें,
जिन पर,
हम चलते आए!
सदियों छूट चले थे पीछे,
कौन, उन्हें पूछे!

पुकारती, वो राहें,
शायद, कुछ आशाएं, छूटी थी पीछे,
कुछ मेरे, कल के संबल,
कुछ, भावनाओं के, सूखे कँवल,
टूटे से, कुछ सपने,
कुछ आहें!

कल के, सारे पल,
कल तक, कितने झंकृत थे, हर पल,
चुप हो, बिखरे राहों पर,
सम्हाले कौन! कौन उन्हें बहलाए!
वो तो, इक बेजुबां,
रीता जाए!

निशांत, हो चले वो,
पर, अशान्त मन में, अब भी पले वो,
जाने, बांधे, किन घेरों में,
खींचे, रह-रह, भूले से उन डेरों में,
भूल-भुलैय्या सी, वो,
तन्हा राहें!

कौतुहल वश!
देखा, जो मुड़ के बस!
पाया, कितनी तन्हा थी, वो राहें,
जिन पर,
हम चलते आए!
सदियों छूट चले थे पीछे,
कौन, उन्हें पूछे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 25 May 2021

अनुभूत

रह-रह, कुछ उभरता है अन्दर,
शायद, तेरी ही कल्पनाओं का समुन्दर,
रह रह, उठता ज्वार,
सिमटती जाती, बन कर इक लहर,
हौले से कहती, पाँवों को छूकर,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

अनुभूतियों का, ये कैसा सागर,
उन्मत्त किए जाती है, जो, आ-आ कर,
उभरती, ये संवेदनाएं,
यदा-कदा, पलकों पर उतर आएं,
बूँदों में ढ़ल, नैनों में कह जाए,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

हो जैसे, लहरों पे सांझ किरण,
झूलती हों, पेड़ों पे, इक उन्मुक्त पवन,
हल्की सी, इक सिहरन,
अनुभूतियों के, गहराते से वो घन,
कह जाती है, छू कर मेरा मन,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

रह-रह, कुछ सिमटता है अंदर,
शायद, ज्वार-भाटा की वो लौटती लहर,
चिल-चिलाती दोपहर,
रुपहला, सांझ का, बिखरा प्रांगण,
कह जाता है, रातों का आंगन,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)