Saturday, 28 March 2020

कोरोना - ये भी, इक दौर है

ये भी, इक दौर है....
विस्तृत गगन, पर न कहीं ठौर है!
सिमट चुकी है, ये संसृति,
शून्य सी, हुई चेतना,
और एक, गर्जना,
कोरोना!

बेखुदी में, दौर ये....
कोई मरे-मिटे, करे कौन गौर ये!
खुद से ही डरे, लोग हैं,
झांकते हैं, शून्य में,
और एक, वेदना,
कोरोना!

क्रूर सा, ये दौर है....
मानव पर, अत्याईयों का जोर है!
लीलती, ये जिन्दगानियाँ,
रौंदती, अपने निशां,
और एक, गर्जना,
कोरोना!

ढ़लता नहीं, दौर ये....
सहमी क्षितिज, छुप रहा सौर ये!
संक्रमण का, काल यह,
संक्रमित है, ये धरा,
और एक, वेदना,
कोरोना!

ये भी, इक दौर है....
विचलित है मन, ना कहीं ठौर है!
बढ़ने लगे है, उच्छवास,
करोड़ों मन, उदास,
और एक, गर्जना,
कोरोना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 27 March 2020

मेरे नज्म

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!
ये बातें हैं, मन की, उलझ जाइएगा!

हो कैद, पल में, 
कभी, पल को लिखे!
यूँ, अचानक!
कभी, कुछ लिखे, कभी, कुछ भी लिखे!
विचरता, है स्वच्छंद,
अन्तर्द्वन्द, ना समझ पाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!

पलों के, संकुचन,
यूँ ही, गुजरते हुए क्षण!
रोके, ये मन,
थाम ले ये बाहें, कहे, चल कहीं बैठ संग!
गतिशील, हर क्षण,
इन्हीं द्वन्दों में, घिर जाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!

बहती सी, ये धारा,
न पतवार, है ना किनारा!
रोके, ना रुके,
उफनते ये लहर, जलजलों सा है नजारा!
तैरते, ये सिलसिले,
कहीं खुद को, डुबो जाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!

ये सुनता ही नहीं,
है मेरे, दिल की कभी!
ये, जिद्दी बड़ा, 
करता है बक-बक, जी में आए कुछ भी!
पागल सा ये मन,
ये बातें, ना समझ पाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!
ये बातें हैं, मन की, उलझ जाइएगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

छल

रहे थे, करीब जितने,
हुए, दूर उतने!
मेरे पल!

काटे-न-कटते थे, कभी वो एक पल,
लगती, विरह सी, थी,
दो पल, की दूरी,
अब, सताने लगी हैं, ये दूरियाँ!
तेरे, दरमियाँ,
तन्हा हैं, कितने ही पल!

डसने लगे हैं, मुझे वो, हर एक पल,
मेरे ही पहलू में, रहकर,
मुझमें सिमटकर,
लिए, जाए किधर, जाने कहाँ?
तेरे, दरमियाँ,
होते जवाँ, हर एक पल!

करते रहे छल, मुझसे, मेरे ही पल,
छल जाए, जैसे बेगाने,
पीर वो कैसे जाने,
धीर, मन के, लिए जाए कहाँ?
तेरे, दरमियाँ,
अधूरे है, कितने ये पल!

रहे थे, करीब जितने,
हुए, दूर उतने!
 मेरे पल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 25 March 2020

एकान्त

चल चुके दूर तक, प्रगति की राह पर!
रुको, थक चुके हो अब तुम,
चल भी ना सकोगे, 
चाह कर!

उस कल्पवृक्ष की, कल्पना में,
बीज, विष-वृक्ष के, खुद तुमने ही बोए,
थी कुछ कमी, तेरी साधना में,
या कहीं, तुम थे खोए!
प्रगति की, इक अंधी दौर थी वो,
खूब दौड़े, तुम,
दिशा-हीन!
थक चुके हो, अब विष ही पी लो,
ठहरो,
देखो, रोकती है राहें,
विशाल, विष-वृक्ष की ये बाहें!
या फिर, चलो एकान्त में
शायद,
रुक भी ना सकोगे!
चाह कर!

तय किए, प्रगति के कितने ही चरण!
वो उत्थान था, या था पतन,
कह भी ना सकोगे,
चाह कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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एकान्त (Listen Audio on You Tube)
https://youtu.be/hUwCtbv0Ao0

Tuesday, 24 March 2020

अद्भुत कोरोना

अद्भुत है, कोरोना!
शायद, जरूरी है, इक डर का होना!
कर-बद्ध,
जुड़े रब से हम,
मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर है सूना,
है ये स्वार्थ, 
या प्रबल है आस्था!
कहो ना!

कहीं न कहीं, निहित है इक डर,
समाहित है भय,
वर्ना, यूँ न डोलती, मेरी आस्था!
यूँ, न छोड़ते,
हम, मंदिर का रास्ता!
यूँ, न ढूंढते,
तन्हाई में, खुद का पता!

यूँ, ये शहर, न हो जाते वीरान,
ज्यूं, हो श्मशान,
न डरते, आबादियों से इन्सान!
यूँ, न सिमटते,
दूरियों में, हमारे रिश्ते!
यूँ, न करते,
दिल, तोड़ देने की खता!

गली-गली, यूँ न गूंजते ये शंख,
करोड़ों तालियाँ,
असंख्य थालियाँ, बजते न संग!
यूँ, न गुजरते,
कहीं, फासलों से हम!
यूँ, न जागते,
मेरे एहसास, गुमशुदा!

अद्भुत है, कोरोना!
शायद, जरूरी है, इक डर का होना!
कर-बद्ध,
जुड़े रब से हम,
मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर है सूना,
है ये स्वार्थ, 
या प्रबल है आस्था!
कहो ना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 22 March 2020

वो नदी सी

वो, नदी सी!

बंधी, दो किनारों से,
कहती रही, उच्छृंखल तेज धारों से,
हो मेरे, श्रृंगार तुम ही,
ना, कभी कम,
तुम, ये धार करना, 
उमर भर, साथ बहना,
संग-संग,
बहूंगी, प्रवाह बन!

रही, उन दायरों में,
उलझी, बहावों के अनमने सुरों में,
चली संग, सफर पर,
रत, अनवरत,
अल्हड़, नादान सी,
दायरों में, गुमनाम सी,
सतत्  ,
बहती, अंजान बन!

थकी, थी धार अब,
सिमटना था, उसे उन समुन्दरों में,
सहमी थी, नदी अब,
गुम, वो धारे,
खो, चुके थे किनारे,
विस्तृत, हो चले थे दायरे,
चुप सी हुई,
मिलकर, सागरों में!

वो, नदी सी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 21 March 2020

बिन तुम्हारे

सो गए, अरमान सारे, 
दिन-रात हारे,
बिन तुम्हारे!

अधूरी , मन की बातें, 
किसको सुनाते,
कह गए, खुद आप से ही,
बिन तुम्हारे!

झकोरे, ठंढ़े पवन के,
रुक से गए हैं,
छू गई, इक तपती अगन, 
बिन तुम्हारे!

सुबह के, रंग धुंधले,
शाम धुंधली,
धुँधले हुए, अब रात सारे,
बिन तुम्हारे!

जग पड़ी, टीस सी,
पीड़ पगली,
इक कसक सी, उठ रही,
बिन तुम्हारे!

चुभ गई, ये रौशनी,
ये चाँदनी,
सताने लगी, ये रात भर,
बिन तुम्हारे!

पवन के शोर, फैले,
हर ओर,
सनन-सन, हवाएँ चली,
बिन तुम्हारे!

पल वो, जाते नहीं,
ठहरे हुए,
जज्ब हैं, जज्बात सारे,
बिन तुम्हारे!

रंग, तुम ही ले गए, 
रहने लगे,
मेरे सपने , बेरंग सारे,
बिन तुम्हारे!

सो गए, अरमान सारे, 
दिन-रात हारे,
बिन तुम्हारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)