दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे,
मन की, सँकरी गली से, वो जब भी गुजरे!
वो, भिगोते थे, कभी बारिशों में,
लरजते थे, कभी सुर्ख फूलों पे हँस कर,
यूँ, सिमट आते थे, दबे पाँव चलकर,
अब वो मिले, दो बूँद बनकर,
और, नैनों में उतरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!
दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे.......
यूँ अनवरत, बहती है, एक धारा,
यूँ, लगता है हर-पल, ज्यूँ तुम ने पुकारा,
डूबी सी साहिल, का है इक किनारा,
थोड़ा तुम्हारा, थोड़ा हमारा,
और, हम हैं ठहरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!
दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे......
यूँ भी, छलक ही जाते हैं, प्याले,
अक्सर, टूटते भी हैं, छलकते-छलकते,
वो, दो बूँद तो, हैं बस तेरी यादों के,
उलझती सी, जज्बातों के,
और, हैं ये पहरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!
दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे,
मन की, सँकरी गली से, वो जब भी गुजरे!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
मन की, सँकरी गली से, वो जब भी गुजरे!
वो, भिगोते थे, कभी बारिशों में,
लरजते थे, कभी सुर्ख फूलों पे हँस कर,
यूँ, सिमट आते थे, दबे पाँव चलकर,
अब वो मिले, दो बूँद बनकर,
और, नैनों में उतरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!
दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे.......
यूँ अनवरत, बहती है, एक धारा,
यूँ, लगता है हर-पल, ज्यूँ तुम ने पुकारा,
डूबी सी साहिल, का है इक किनारा,
थोड़ा तुम्हारा, थोड़ा हमारा,
और, हम हैं ठहरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!
दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे......
यूँ भी, छलक ही जाते हैं, प्याले,
अक्सर, टूटते भी हैं, छलकते-छलकते,
वो, दो बूँद तो, हैं बस तेरी यादों के,
उलझती सी, जज्बातों के,
और, हैं ये पहरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!
दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे,
मन की, सँकरी गली से, वो जब भी गुजरे!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)