Sunday, 7 March 2021

चुप न रह पाओगे

मेरी ख़ामोशियों को,
जब भी, तन्हाईयों में गुनगुनाओगे!
चुप न रह पाओगे!

रोक ही लेगी तेरी राहें, मेरी सर्द आहें, 
कदम, डगमगाएंगे,
थमीं पलकें, भिगो ही जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

यूँ तो, मन के हारे, तुम हो संग हमारे,
नहीं हम, बेसहारे,
इक छवि में, ढ़ल कर गाओगे,
चुप न रह पाओगे!

गगण के पार हो, या हो गगण से परे,
सर्वदा ही, हो मेरे,
मल्हार बन कर, बरस जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

खुद में झाँकना, यूँ खुद को आँकना,
खुदा को, माँगना,
सारी खुदाई, यूँ भूल जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

रह-रह बज उठेंगी, हाथों की चूड़ियाँ,
तोड़ कर, बेरियाँ,
खाली पाँव, दौड़ कर आओगे,
चुप न रह पाओगे!

गुजरते वक्त की, हर शै पर मैं लिखूँ,
चुप रहूँ, खुद बुनूँ,
जब पढ़़ोगे, तुम जान जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

खनक ही उठेंगे, जीर्ण वीणा के तार,
कर उठोगे, श्रृंगार,
ये हृदय, कैसे संभाल पाओगे,
चुप न रह पाओगे!

मेरी ख़ामोशियों को,
तन्हाईयों में, जब भी गुनगुनाओगे!
चुप न रह पाओगे!

Saturday, 6 March 2021

तब मानव कहना

जग जाएगी जब, सुसुप्त चेतना,
उत्थान, उसी दिन होगा तेरा,
तब, खुद को तुम,
मानव कहना!

सृष्टि के, धरोहर तुम,
विधाता की, रचनाओं में, मनोहर तुम,
पर हो अधूरा, एक सोहर तुम,
जग जाएगी जब, सुप्त संवेदना,
विहान, उसी दिन होगा तेरा,
खुद को, तब तुम,
मानव कहना!

तुम्हीं में, परब्रम्ह रमे,
रमी, दशों दिशाओं की आशा तुझ में, 
अनंत रमी, इक यात्रा तुझ में,
हलाहल, जब तुम ये पी जाओगे,
कल्याण, उसी दिन होगा तेरा,
खुद को, तब तुम,
मानव कहना!

नर-नारायण तुम ही,
दीन-हीन के, जन-नायक हो तुम ही,
हो अंधियारों में, लौ तुम ही,
काँटे जीवन के, जब बुन जाओगे,
पहचान, उसी दिन होगा तेरा,
खुद को, तब तुम,
मानव कहना!

सर्वगुण, सम्पन्न तुम,
फिर भी, हर दुख के हो आसन्न तुम,
कहाँ रह सके, अक्षुण्ण तुम!
इन पीड़ाओं को, जब हर जाओगे,
उन्वान, उसी दिन होगा तेरा,
खुद को, तब तुम,
मानव कहना!

जग जाएगी जब, सुसुप्त चेतना,
उत्थान, उसी दिन होगा तेरा,
तब, खुद को तुम,
मानव कहना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 4 March 2021

2,50,000....शुक्रिया


शुुुक्रिया आदरणीय पाठकगण,

2,50,000 से भी ज्यादा बार इस ब्लॉग को अनुसरण कर, सतत् लेखन हेतु प्रेरित करते रहने के लिए आभारी हूँ। 

नमन.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा



ठहर ऐ मन

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

यूँ, न जा, दर-बदर,
पहर दोपहर, यूँ सपनों के घर,
जिद् ना कर,
तू ठहर,
मेरे आंगण यहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

इक काँच का बना,
आहटों पर, टूटती हर कल्पना,
घड़ी दो घड़ी, 
आ इधर,
चैन पाएगा यहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

वो तो, एक सागर,
सम्हल, तू ना भर पाएगा गागर,
नन्हा सा तू,
डूब कर,
रह जाएगा वहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

कब बसा, ये शहर,
देख, टूटा ये कल्पनाओं का घर,
टूटा वो पल,
रख कर,
कुछ पाएगा नहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

क्यूँ करे तू कल्पना, 
कहाँ, ये कब हो सका है अपना,
बन्जारा सा,
बन कर,
बस फिरेगा वहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 2 March 2021

कितनी रात बुनता

और कितनी, रात बुनता!
बैठकर किनारे, और कितने, तारे गिनता!

वो ही, अल्हड़ सी रात, 
कहती रही, सिर्फ, अपनी ही बात,
मनमर्जियाँ, मनमानियाँ,
कौन, मेरी सुनता!

और कितनी, रात बुनता!
बैठकर किनारे, और कितने, तारे गिनता!

आँखें, नींद से बोझिल,
पर, कहीं दूर, पलकों की मंजिल,
उन निशाचरों की वेदना,
और कैसे, सुनता!

और कितनी, रात बुनता!
बैठकर किनारे, और कितने, तारे गिनता!

वो तम था, या तमस!
दूर था बहुत, वो कल का दिवस,
गहराते, रातों के सन्नाटे,
कौन, चुन लेता!

और कितनी, रात बुनता!
बैठकर किनारे, और कितने, तारे गिनता!

लब्ध था, वो आकाश,
पर, आया ना, वो भी अंकपाश,
टिम-टिमाते से, वो तारे,
क्यूँ कर, देखता!

और कितनी, रात बुनता!
बैठकर किनारे, और कितने, तारे गिनता!

थी, ढ़ुलकती सी नींद,
ये पलकें, होने लगी थी उनींद,
सो गया, तान कर चादर,
कितना, जागता!

और कितनी, रात बुनता!
बैठकर किनारे, और कितने, तारे गिनता!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 1 March 2021

तोड़ो ये भ्रम

मुड़ कर, देखते हो क्या?

अपनों से, नाते तोड़ कर,
खुद, तुम ही गए, सब छोड़ कर,
मुँह, मोड़ कर,
अंजान पथ,
अब सामने है, गहरी सी खाई,
पीछे, बस एक परछाईं,
ये दुनियाँ पराई!

मुड़ कर, देखते हो क्या?

पथ एक, तुम ने ही चुना,
खूब दौड़े, कर के सब अनसुना,
अलग ही राह,
गिला, कैसा,
जब सामने है, अंधा सा कुआं,
पीछे, हारा इक जुआ,
वो दुनियाँ कहाँ!

मुड़ कर, देखते हो क्या?

सब हैं पराए, कौन अपना,
परख लो, जिनको तुमने था चुना,
तोड़ो, ये भ्रम,
लौट आओ,
अब सामने है, पराया सा वन,
पीछे, एक अपनापन,
ये दुनियाँ तेरा!

मुड़ कर, देखते हो क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 28 February 2021

कल से यहाँ

कूके न कोयल, ना ही, गाए पपीहा,
तुम जो गए, कल से यहाँ!

भाए न, तुम बिन, ये मद्दिम सा दिन,
लगे बेरंग सी, सुबह की किरण,
न सांझ भाए, 
ना रात भाए, कल से यहाँ!

वो बिखरा क्षितिज, कितना है सूना,
वो चित्र सारे, किसी ने है छीना,
बेरंग ये पटल, 
सूने ये नजारे, कल से यहाँ!

बड़ी बेसुरी, हो चली ये रागिणी अब,
वो धुन ही नहीं, गीतों में जब,
न गीत भाए,
ना धुन सुहाए, कल से यहाँ!

यूँ अभिभूत किए जाए, इक कल्पना,
बनाए, ये मन, कोई अल्पना,
यादों में आए,
वो ही सताए, कल से यहाँ!

कूके न कोयल, ना ही, गाए पपीहा,
तुम जो गए, कल से यहाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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इस पटल पर 1300 वीं रचना.......
सफर जारी है अभी.....

Friday, 19 February 2021

याचक तेरा

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

किसी सुन्दरता का, बन पाता श्रृंगार,
किसी गले का, बन पाता हार,
पर, आकर्षण इतना भी नहीं मुझमें, 
सुंदर इतना भी, नहीं मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

कौन पूछता, बेजान पड़े पत्थरों को,
सदियों से, उजड़े हुए घरों को,
जीवन्त कोई, उपसंहार नहीं जिसमे,
कुछ-कुछ, ऐसा ही मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

मैं तो, दूर पड़ा था, एकान्त बड़ा था,
इस मन में, व्यवधान जरा था,
कौन यहाँ, जो संग मेरे पथ पर चले,
इस लायक भी नही मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

है इस उर में क्या, समझे कौन यहाँ,
नादां सा मन, ऐसा और कहाँ!
पर, विराना सा, जैसे हो इक वादी,
वैसा ही, फरियादी मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

एहसान बड़ा, जो, आ बसे मुझ में, 
स्वर लहरी बन, गा रहे उर में,
अपलक, सुनता हूँ अनसुना गीत,
बन कर, इक राही मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

श्रृंगार बन सका तेरा, उद्गार ले लो,
इन साँसों का, उपहार ले लो,
इक निर्धन, और दे पाऊँ भी क्या,
याचक हूँ, तेरा ही मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 17 February 2021

कैसा भँवर

जाने क्यूँ? बह पड़े हैं, सारे भाव!
अन्तः, जाने कैसा है भँवर!
पीड़ असहज, दे रहे हृदय के घाव!
ज्यूँ फूट पड़े हैं छाले!

पर, अब तक, बड़ा सहज था मैं!
या, कुछ ना-समझ था मैं?
शायद, अंजाना सा, यह प्रतिश्राव,
आ लिपटा है मुझसे!

शायद, जाग रही, सोई संवेदना,
या, चैतन्य हो चली चेतना!
या, हृदय चाहता, कोई एक पड़ाव,
आहत होने से पहले!

जाने क्यूँ, अनमनस्क से हैं भाव!
अन्तः, उठ रहा कैसा ज्वर!
कंपित सा हृदय, पल्पित सा घाव!
ज्यूँ छलक रहे प्याले!

भँवर या प्रतिश्राव, तीव्र ये बहाव,
समेट लूँ, सारे बहते भाव!
रोक लूँ, ले चलूँ, ऊँचे किनारों पर,
बिखर जाने से पहले!

जरा, समेट लूँ, यह आत्म-चेतना,
फिर कर पाऊंगा विवेचना!
व्याकुल कर जाएगा, ये प्रतिश्राव,
संभल जाने से पहले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 14 February 2021

एक कशमकश

सोचता हूँ, कह ही दूँ!
सूई सा दंश ये, क्यूँ अकेला ही मैं सहूँ!

चाह कर भी, असंख्य बार,
कह न पाया, एक बार,
पहुँच चुका,
उम्र के इस कगार,
रुक कर, हर मोड़ पर, बार-बार,
सोचता हूँ,
गर, वक्त रहे, सत्य को सकारता,
मुड़ कर, उन्हें पुकारता,
दंश, ये न झेलता,
पर अब,
भला, कुछ कहूँ या ना कहूँ!

सोचता हूँ, कह ही दूँ!
सूई सा दंश ये, क्यूँ अकेला ही मैं सहूँ!

रोकती रही, ये कशमकश,
कर गई, कुछ विवश,
छिन चला,
इस मन का वश,
पर रहा खुला, ये मन का द्वार,
सोचता हूँ,
इक सत्य को, गर न यूँ नकारता,
भावनाओं को उकेरता,
दंश, ये न झेलता,
पर अब,
भला, कहूँ भी तो क्या कहूँ!

सोचता हूँ, कह ही दूँ!
सूई सा दंश ये, क्यूँ अकेला ही मैं सहूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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जो कहना हो, समय रहते कह देना ही बेहतर....
Happy Valentine Day