Tuesday 23 February 2016

रूठी कविता

लगता है हाथ पकड़ रखा हो किसी ने जैसे,
ताले लगा दिए गए हों जड़ विवेक पर जैसे,
धुंधली सी शाम कुम्हला रही है जैसे,
तन्हाई मे हाथों से दामन छूटा हो जैसे,
कविता मेरी आज रूठ गई है मुझसे जैसे।

वक्त की पावंदियों मे घुट गया हो दम जैसे,
पास रखी हो कलम पर सूखी हो स्याही जैसे,
कुम्हलाई शाम तिलमिला रही हो जैसे,
पहलू मे आकर वो रो पड़ी हो जैसे,
कविता मेरी आज रूठ गई है मुझसे जैसे। 

Monday 22 February 2016

चश्मा बदल के देखिए

चश्मा बदल के देखिए, है दुनियाँ अलग सी यहाँ,
हर शख्स निराला जगत में, हर शख्स अनोखा यहाँ,
कमी तुझको दिखेगी कहीं, शायद तुझ में ही यहाँ।

तू होगा ग्यानी बड़ा, गुरूर होगा खुदपर तुझको,
जग में भरे पड़े एक से एक नही मालूम तुझको,
चश्में की आड़ से निकलकर तू देख खुद को।

ग्यान, विद्या, धन, सम्मान, धीरज, सहनशीलता,
गुण हैं ये सभी उस विवेकशील शौम्य मानव के,
बदलते नही वो चश्मा तस्वीर नई देखने को।

कर्मपथ की ओर

तू नैन पलक अभिराम देखता किस ओर,
देख रहा वो जगद्रष्टा निरंतर तेरी ओर,
इस सच्चाई से अंजान तू देखता किस ओर।

तू कठपुतली है मात्र उस द्रष्टा के हाथों की,
डोर लिए हाथों मे वो खीचता बाँह तुम्हारी,
सपनों की अंजान नगर तू देखता किस ओर।

निरंकुश बड़ा वो जिसकी हाथों में तेरी डोरी,
अंकुश रखता जीवन पर खींचता डोर तुम्हारी,
उस शक्ति से अंजान तू सोचता किस ओर।

कर्मों के पथ का तू राही नैन तेरे उस ओर,
कर्मपथ पर निश्छल बढ़ता चल कर्मों की ओर,
मिल जाएगी तेरी मंजिल उस द्रष्टा की ओर।

निर्वाण की कठिन यात्रा

निर्वाण की अकल्पित कठिन यात्रा,
पल पल तय कर रहा इन्सान,
राह कठिनतम इस जीवन की,
लक्ष्र्य कर्म के यहाँ महान,
निर्वाण की राह चलता जा रहा इन्सान।

पल भर रूक सोचता मन में,
निर्वाण मिलेगा पर कैसे जीवन में,
लक्ष्य क्या साधने होंगे राहों में,
कितने विष पड़ेंगे जीवन के पीने,
निर्वाण पाएगा क्या तन इस जीवन में?

तन और मन में द्वंद चल रहा निरंतर,
तन कहता तू राह मोह की पकड़,
मन कहता तू जीवन की माया के संग चल,
विवेक पिस रहा मध्य इस अन्तर्द्वन्द के,
इच्छाएँ मन और तन की भारी निर्वाण पर।

नियंत्रण इन इच्छाओं पर करता,
राह निर्वाण की तय कर रहा इन्सान,
जीवन की इस महा-कर्मक्षेत्र में,
लघु इच्छाओं को तज, साधे लक्ष्य को,
यह कठिन यात्रा पल पल कर रहा इन्सान।

निःस्तब्ध रात्रि वेला

नि:स्तब्ध रात्रि 
अन्ध तिमिर अलबेला,
चाँदनी सौं नभ
रंजित सुसमित यह वेला,
विकल प्राण दो 
मिलने को आतुर ।

पूरित पूर्णिमा
मुखरित सी छवि,
बिखरी नर्म सी चाँदनी,
निखरी निखरी,
मलिन मुख काँति।

लहरों के घर,
 जा रही सर्द सी रौशनी,
इन लमहों में,
 छू रही हैं सर्द सी हवायें
तन्हा सा मन,
तन्हा लग रहे अब अपने साये
याद कोई तब आए.....

Sunday 21 February 2016

खुशियों के ढ़ेह

खुशियों के ये पल अन-गिनत इस जीवन में,
बार बार उठती ढ़ेह सी आती जाती जीवन मे,
इस पल को चुन चुन कर दामन मे हम भर ले,
हम-तुम जी-भर खुलकर इस पल मिल ले।

बस झणिक पल दो पल की हैं ये खुशियाँ,
लहर-लहर ढ़ेह की बस मिटने को बनती यहाँ,
इस ढ़ेह सी क्या जाने हम कहाँ और तुम कहाँ,
कुछ कह सुन लें पल-भर साथ थोड़ा बह लें।

उल्लास के ये दो पल हैं जीवन की निधियाँ,
करुणा की नन्हीं बूँदों सी पलती हैं खुशियाँ यहाँ,
पल पल जीवन बीतता तू इस पल जी ले यहाँ,
इक दिन मुरझाना है इस पल तो खिल लें यहाँ।

इक लम्हा मधुर चाँदनी

अरमान यही, इक लम्हा चाँदनी तेरे मुखरे पे देखूँ सनम।

फलक पे मुखरित चाँद ने, डाला है फिर से डेरा,
चलो आज तुम भी वहाँ, हम कर लें वहीं बसेरा,
गुजर रही है दिल की कश्ती उस चाँद के पास से,
तुम आज बैठी हों क्युँ, यहाँ बोझिल उदास सी।

अरमान यही, इक लम्हा चाँदनी तेरे मुखरे पे देखूँ सनम।

फलक निखर मुखर हुई, चाँद की चाँदनी के संग,
 कह रही है ये क्या सुनो, आओ जरा तुम मेरे संग,
निखर जाए थोड़ी चांदनी भी नूर में आपके सनम,
इक लम्हा मधुर चाँदनी, तेरे मुखरे पे निहारूँ सनम।

अरमान यही, इक लम्हा चाँदनी तेरे मुखरे पे देखूँ सनम।

प्रखर चाँदनी सी तुम छाई हो दिल की आकाश पे,
मन हुआ आज बाबरा, छूना चाहे तुझको पास से,
दिल की कश्ती भँवर में तैरती सपनों की आस से,
तुम चाँद सम फलक पे छा जाओ मीठी प्रकाश से।

अरमान यही, इक लम्हा चाँदनी तेरे मुखरे पे देखूँ सनम।

ये किस मुकाम पर जिन्दगी

ए जिन्दगी, इन रास्तों का पता अब तू ही मुझको बता। 

ये किस मुकाम पर आ पहुँची है जिन्दगी,
 न अपनों की खबर न मजिलों का हेै पता, 
सहरा की धूल मे कहीं, खो गई हर रास्ता,
चँद सांसे ही बची अब, आपसे ही वास्ता।

अंतहीन मरुभूमि सी, लग रही ये जिन्दगी,
धूल सी जम गई समुज्जवल सोच पर मेरे,
संकुचित सिमट रहे, अब दायरे विश्वास के,
मुकाम अब ये कौन सी जिन्दगी के वास्ते।

रेखाएँ सी खिची हुई, हर तरफ यहाँ वहाँ,
अंजान इन रास्तों पर कदम रखें तों कहाँ,
अक्ल जम सी गई हैं, देख कर विरानियाँ,
ये किस मुकाम पर ले आई मेरी रवानियाँ।

ए जिन्दगी, इन रास्तों का पता अब तू ही मुझको बता। 

Saturday 20 February 2016

पिंजड़ा जीवन का

पिंजड़ा सामने खड़ा दिख रहा जीवन का,
कारावास इस जीवन की, तुझे खुद होगी झेलनी,
दीवार इस कारागार की, तू तोड़ नही पाएगा,
लिखा जो भी भाग्य में तेरे, सामने खुद ही आएगा।

व्यर्थ जाएगी युक्ति तेरी सारी मुक्ति की,
अवधि इस कारावास की, तुझको खुद पूरी है करनी,
कर्मों के अंबार लगे हैं, सामने जीवन के तेरे,
राहें भाग्य के रेखा की तेरी, कर्मो के रश्ते ही गुजरेगी।

मुँह फेर नही सकता तू जीवन के कर्मों से,
आजीवन ये कठोर कारावास सश्रम झेलनी है तुझको,
पुरस्कार या दंड? परिणाम यही पर तू पाएगा, 
मुक्ति तुझको इस पिंजरे से, तेरा "जीवन कलश" दे पाएगा।

आह सिमटती मन में

आह सिमटती मेरी मन की गहराई में रोती सकुचाई!

आह अगर सुन लेगा कोई तो होगी रुशवाई,
यही सोच कर मैं होठों को सी लेता हूँ,
पी जाता हूँ आँसुओं को, मै चुप रह जाता हूँ, 
मन की बात कटोरे मे मन के ही रख लेता हूँ।

आह सिमटती मेरी मन की गहराई में रोती सकुचाई,
व्यथा हृदय की फिर भी, मैं आहों को कह जाता हूँ,
ध्वनि होठों के कंपन की आहों में भर देता हूँ 
चुप रह जाता हूँ मैं, आँखों के आँसू पी लेता हूँ।

आह सिमट जाती फिर मन की गहराई में रोती सकुचाई!