Sunday 4 October 2020

हालात

न ऐसी, कोई बात थी!
बस, छलकी थी बूँदें, न कोई बरसात थी!

कभी ये मन, भर आए तो क्या!
आँखें ही हैं, छलक भी जाएं तो क्या!
चाहे, ये दिल दुखे, 
या कहीं, लुटती रहे अस्मतें,
समझ लेना, जरा विचलित वो रात थी!
अपनी ही जिद पर, हालात थी!

न ऐसी, कोई बात थी!
बस, छलकी थी बूँदें, न कोई बरसात थी!

कहाँ वो, संवेदनाओं का गाँव!
हर तरफ, गहन वेदनाओं का रिसाव!
चाहे, देश ये जले, 
लाशों पे, जिये ये रियासतें,
समझ लेना, सियासतों की ये बात थी!
विवश हो चली, वो हालात थी!

न ऐसी, कोई बात थी!
बस, छलकी थी बूँदें, न कोई बरसात थी!

विषाक्त हो, जब हवा तो क्या!
जहर साँस में, घुल भी जाए तो क्या!
चाहे, रक्त ये जमे!
या तीव्र चाल, वक्त की रुके,
समझ लेना, प्रगति की ये सौगात थी!
अनियंत्रित सी, वो हालात थी!

न ऐसी, कोई बात थी!
बस, छलकी थी बूँदें, न कोई बरसात थी

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

चुप सा सत्य


बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

उन ख़ामोशियों में, न जाने कितने थे सवाल!
मतिशून्य सा, मैं कहता भी क्या?
और, कहता भी किसे?
यहाँ सुनने को सत्य, बैठा है कौन?
सोचता, रह गया मैं मौन!
ओढ़ ली इक चुप्पी, और कई सवाल!

बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

शायद, वो इक चीख थी, जो कहीं रही दबी!
सिमट कर, शोर के आवरण में!
अन्तः,गहरी सी टीस थी!
पर ये अन्तः करण, तौलता है कौन?
अन्तर्मन, झांकता है कौन?
चुप-चुप ही रहा, खुद से कर सवाल!

बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

वो निष्काम सत्य, बेचैन सा, जूझता ही रहा!
समक्ष असत्य के, वो कब झुका!
पर, दुरूह वो काल था!
सत्य पर पड़ा, असत्य का जाल था!
तोड़ता है, वो जाल कौन?
सत्य को रहा, सदा ही इक मलाल!

बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 23 September 2020

भ्रम में हम हैं

जागी सी आँखों में, बिखरा सा इक स्वप्न है,
वो सच था? या इक भ्रम में हम हैं!

क्या वो, महज इक मिथ्या था?
सत्य नहीं, तो वो क्या था?
पूर्णाभास, इक एहसास देकर वो गुजरा था,
बोए थे उसने, गहरे जीवन का आभास,
कल्पित सी, उस गहराई में,
कंपित है जीवन मेरा,
ये सच है? 
या इक भ्रम में हम हैं!

जागी सी आँखों में, बिखरा सा इक स्वप्न है,
वो सच था? या इक भ्रम में हम हैं!

सो, उठता हूँ, बस चल पड़ता हूँ!
चुनता हूँ, उन स्वप्नों को!
बुनता हूँ, टूटे-बिखरे से कंपित हर क्षण को,
भ्रम के बादल में, बुन लेता हूँ आकाश,
शायद, विस्मित इस क्षण में,
अंकित है, जीवन मेरा,
ये सच है? 
या इक भ्रम में हम हैं!

जागी सी आँखों में, बिखरा सा इक स्वप्न है,
वो सच था? या इक भ्रम में हम हैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 20 September 2020

इंतजार

मन के शुकून सारे, ले चला था इंतजार....

दुविधाओं से भरे, वो शूल से पल,
निरंतर आकाश तकते, दो नैन निश्छल,
संभाले हृदय में, इक लहर प्रतिपल,
वही, इंतजार के दो पल,
करते रहे छल! 
क्षीण से हो चले, सारे आसार...

मन के शुकून सारे, ले चला था इंतजार....

थमी सी राह थी, रुकी सी प्रवाह,
उद्वेलित करती रही, अजनबी सी चाह,
भँवर बन बहते चले, नैनों के प्रवाह,
होने लगी, मूक सी चाह,
दे कौन संबल!
बिखरा, तिनकों सा वो संसार...

मन के शुकून सारे, ले चला था इंतजार....

टूटा था मन, खुद से रूठा ये मन,
कैसी कल्पना, कैसा अदृश्य सा बंधन!
जागी प्यास कैसी, अशेष है सावन,
क्यूँ हुआ, भाव-प्रवण!
धीर, अपना धर!
स्वप्न, कब बन सका अभिसार...

मन के शुकून सारे, ले चला था इंतजार....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 15 September 2020

असहज

तनिक सहज, होने लगा हूँ मै अभी,
पर बादलों सा, उतर आओगे,
असहज, इस मन को कर जाओगे!

संचित हो आज भी, असंख्य लम्हों में तुम,
पर हूँ आज वंचित, सानिध्य से मैं!
बारिशों में, जब जलज सा उभर आओगे!
असहज, इस मन को कर जाओगे!

तुम्हें इख्तियार था, जाओ या ठहर जाओ,
इख्तियार से अपने, वंचित रहा मैं,
एकल अधिकार, हर बार तुम दिखाओगे!
असहज, इस मन को कर जाओगे!

पल सारे इन्तजार के, अब हो चले है सूने,
सहज एहसास, चुनने लगा हूँ मैं,
कोई राग बन कर, सीने में उतर आओगे!
असहज, इस मन को कर जाओगे!

तनिक सहज, होने लगा हूँ मै अभी,
धुँध बन कर, बिखर जाओगे,
असहज, इस मन को कर जाओगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 14 September 2020

चुन लूँ कौन सी यादें

चुन लूँ, कौन सा पल, कौन सी यादें!

बुनती गई मेरा ही मन, उलझा गई मुझको,
कोई छवि, करती गई विस्मित,
चुप-चुप अपलक गुजारे, पल असीमित,
गूढ़ कितनी, है उसकी बातें!

चुन लूँ, कौन सा पल, कौन सी यादें!

बहाकर ले चला, समय का विस्तार मुझको,
यूँ ही बह चला, पल अपरिमित,
बिखेरकर यादें कई, हुआ वो अपरिचित,
कल, पल ना वो बिसरा दे!

चुन लूँ, कौन सा पल, कौन सी यादें!

ऐ समय, चल तू संग-संग, थाम कर मुझको,
तू कर दे यादें, इस मन पे अंकित,
दिखा फिर वो छवि, तू कर दे अचंभित,
यूँ ना बदल, तू अपने इरादे!

चुन लूँ, कौन सा पल, कौन सी यादें!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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तस्वीर में, मेरी पुत्री ... कुछ पलों को चुनती हुई

Monday 7 September 2020

चाँद चला अपने पथ

वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!

बोल भला, तू क्यूँ रुकता है?
ठहरा सा, क्या तकता है?
कोई जादूगरनी सी, है वो  स्निग्ध चाँदनी,
अन्तः तक छू जाएगी,
यूँ छल जाएगी!

वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!

कुछ कहता, वो भुन-भुन-भुन!
कर देता हूँ मैं, अन-सुन!
यथासंभव, टोकती है उसकी ज्योत्सना,
यथा-पूर्व जब रात ढ़ला,
यूँ कौन छला?

वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!

दुग्ध सा काया, फिर भरमाया,
चकोर के, मन को भाया
पाकर स्निग्ध छटा, गगण है शरमाया,
महमाई फिर निशिगंधा,
छल है छाया!

वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 6 September 2020

"वो कौन" रहे तुम

मौन रहे तुम, हमेशा ही, "वो कौन" रहे तुम!
देखा ना तुमको, जाना ना तुमको!
संभव था, पा लेता, इक अधूरा सा अनुभव!
गर एहसासों में, भर पाता तुमको!

पर, शायद, शंकाओं के बंद घेरों में थे तुम!
या अपने होकर भी, गैरों में थे हम!
कदाचित, सर्वदा सारे अधिकारों से वंचित!
जाने क्यूँ,  रहा फिर भी चिंतित!

कोशिश है, बस यूँ , गढ़ लूँ इक छवि तेरी!
चुन लूँ उधेर-बुन, बुन लूँ यूँ तुमको!
कर लूँ बातें, समझाऊँ क्यूँ होती है बरसातें?
किंचित सूनी सी हैं, क्यूँ मेरी रातें!

छवि में, मौन रहे तुम, "वो कौन" रहे तुम!
कह भी पाती, क्या वो छवि मुझको?
शंकाकुल मन तेरा, दीपक तले जगा अंधेरा,
बुझ-बुझ जलता, विह्वल मन मेरा!

उभरेंगे अक्षर, कभी तो उन दस्तावेजों पर!
पलट कर पन्ने, तुम पढ़ना उनको,
बीते हर किस्से का, उपांतसाक्षी होऊँगा मैं,
जागूंगा तुममें,  फिर ना सोऊंगा मैं!

यूँ भी उपांतसाक्षी हूँ मैं, हर शंकाओं का!
जाने अंजाने, उन दुविधाओं का,
उकेरे हैं जहाँ, एकाकी पलों के अभिलेख,
बिखेरे हैं जहाँ, अनगढ़े से आलेख!

पर मौन रहे तुम, सर्वदा "वो कौन" रहे तुम!
भावहीन रहे तुम, विलीन रहे तुम!
संभव था, ले पाता, वो अधूरा सा अनुभव!
गर सुन पाता, तेरे धड़कन की रव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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उपांतसाक्षी - वह साक्षी या गवाह जिसने किसी दस्तावेज़ के उपांत या हाशिये पर हस्ताक्षर किया हो या अँगूठे का निशान लगाया हो।

Monday 31 August 2020

रुक जरा

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

चुप-चुप, ये गुनगुनाता है कौन?
हलकी सी इक सदा, दिए जाता है कौन?
बिखरा सा, ये गीत है!
कोई अनसुना सा, ये संगीत है!
है किसकी ये अठखेलियाँ,
कौन, न जाने यहाँ!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

उनींदी सी हैं, किसकी पलक?
मूक पर्वत, यूँ निहारती है क्यूँ निष्पलक?
विहँस रहा, क्यूँ फलक?
छुपाए कोई, इक गहरा सा राज है!
कौन सी, वो गूढ़ बात है?
जान लूँ, मैं जरा!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

कोई लिख रहा, गीत प्यार के!
यूँ हवा ना झूमती, प्रणय संग मल्हार के?
सिहरते, न यूँ तनबदन!
लरजते न यूँ, भीगी पत्तियों के बदन!
यूँ ना डोलती, ये डालियाँ!
कैसी ये खामोशियाँ!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 28 August 2020

जिन्दगी

कुछ बारिश ही, बरसी थी ज्यादा!
भींगे थे, ऊड़ते सपनों के पर,
ऊँचे से, आसमां पर!
यूँ तो, हर तरफ, फैली थी विरानियाँ!
वियावान डगर, सूना सफर,
धूल से, उड़ते स्वप्न!

क॔पित था जरा, मन का ये शिला!
न था अनावृष्टि से अब गिला,
जागे थे, सारे सपन!
यूँ थी ये हकीकत, रहते ये कब तक!
क्या अतिवृष्टि हो तब तक?
क्षणिक थे वो राहत!

खिले हैं फूल तो, खिलेंगे शूल भी!
अंश भाग्य के, देंगे दंश भी,
प्रकृति के, ये क्रम!
यूँ अपनों में हम, यूँ अपनों का गम!
टूटते-छूटते, कितने अवलम्ब!
काल के, ये भ्रम!

राह अनवरत, चलती है ये सफर!
बिना रुके, चल तू राह पर,
कर न, तू फिकर!
तू कर ले कल्पना, बना ले अल्पना!
है ये जिन्दगी, इक साधना,
सत्य तू ये धारणा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)