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Saturday 7 September 2019

ठहरे क्षणों में

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

व्यस्त से क्षणों में, तमाम उलझनों में,
मुझको, भूल तो जाओगे तुम,
और कहीं, विलीन हो जाएंगे हम,
यादों के, इन मिटते घनों में,
उभर आएं, कभी गर टीस बनकर हम,
उकेरना फिर, तुम उन बादलों को,
मुड़ कर, पुकार लेना,
तार संवेदनाओं के, जरा सा जोड़ कर!

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

भूले-बिसरे क्षणों में, झांकता है कौन?
फुर्सत किसे है, ताकता है कौन?
सोच पर गिर जाते हैं, भरम के पर्दे!
पर मांगता हूँ, मैं वो ही यादें,
ठहर जाएँ, कहीं गर संवाद बन के हम,
कुरेदना फिर, तुम उन्हीं क्षणों को,
ठहर कर, पुकार लेना,
तार संवेदनाओं के, जरा सा जोड़ कर!

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

ठहरे क्षणों में, मैं रुका हूँ उन्ही वनों में,
गुम हैं जहाँ, जीवंत से कहकहे,
पर संग है मेरे, लम्हे कई बिखरे हुए,
लट घटाओं के, सँवरे हुए,
बरस जाएँ, कभी ये घटाएँ बूँदें बनकर,
घेर ले कभी, तुम्हें सदाएं बनकर,
भीग कर, पुकार लेना,
तार संवेदनाओं के, जरा सा जोड़ कर!

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 4 September 2019

कहीं न कहीं

न चाह कर भी, चाहतों से दूर थे हम!
जिक्र उनकी बातों में, अब भी थी मेरी ही!
कहीं न कहीं...
उनकी यादों में, जिन्दा जरूर थे हम!

कोई कल्पना, पूरा न था उनका मेरे बिन!
सारे सपने, अधूरे थे उनके मेरे बिन!
मेरी यादों से, उसने रंगे थे जीवन के पन्ने,
श्रृंगार उसने किए थे, आँखों से मेरी,
दूर थे हम, उस कल्पना में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

खामोश थे लब, अधूरी थी बातें मेरे बिन!
अधजगी, उनींदी थी रातें मेरे बिन!
किसी काम के, न थे आसमाँ के सितारे,
हजारों थे वो, मगर न थे मुझसे प्यारे,
दूर थे हम, उनकी जेहन में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

खनकती न थी, उनकी चूड़ियाँ मेरे बिन!
उजरी सी थी, वो ही दुनियाँ मेरे बिन!
चुप सी थी, उनके पायलों की रुन-झुन,
गुम-सुम से थे, उन होठों के तरन्नुम,
दूर थे हम, उन चुप्पियों में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

न चाह कर भी, चाहतों से दूर थे हम!
फिक्र उनकी बातों में, अब भी थी मेरी ही!
कहीं न कहीं...
उनकी यादों में, जिन्दा जरूर थे हम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 27 July 2019

झूले

ऐसे न थे, पहले कभी, सावन के ये झूले!

अब तो उम्र ढ़ली,
बूँदों में पली, फिर भी सावन ये जली,
है भीगी सी, ये नजर
बस, सूने से हैं, दिल के मंज़र,
क्यूं, हो तुम भूले,
सजन, बूूंदों के है मेले!
पर, चुपचुप से हैं, सावन के ये झूले!

न जाने वो तितली,
इक पल को मिली, कहीं उड़ चली,
है भीगी सी, ये नजर,
बस, सूखे से है, मन के शहर,
क्यूं, यादों के तले,
ये सावन, ये सांझ ढ़ले!
पर, चुपचुप से हैं, सावन के ये झूले!

सांझें, हैं ये धुंधली,
हैं थके से कदम, साँसें हैं उथली,
है भींगा सा, ये मंजर,
बस, हैं रूठे, सपनों के नगर,
क्यूं, वादों के तले,
भीगे से, ये बारात चले!
पर, चुपचुप से हैं, सावन के ये झूले!

ऐसे न थे, पहले कभी, सावन के ये झूले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 4 June 2019

तुम्हारी ही बातें

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

हर बंधनों से, मुक्त था मैं कल तक,
यादें वही, ले आई है तुझ तक,
दूर जाऊँ मैं कैसे, मन को समझाऊँ मैं कैसे,
मुक्त, जाल से हो पाऊँ मैं कैसे,
मन पे घिरने लगे हैं, फिर वही जाल कल से..

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

वो अंतहीन सी, तुम्हारे प्रश्नों की लड़ी,
वो हँसी की, गूंजती फुलझड़ी,
प्रश्न के उस जाल में, बस मेरा उलझ जाना,
अनुत्तरित प्रश्नों का, वो जमाना,
मन को जलाने लगे, फिर वही प्रश्न कल से...

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

कभी चुपके, तुम्हारा दबे पाँव आना,
फेरकर नजरें, वहीं बैठ जाना,
मिन्नतों का फिर, अनथक सा वो सिलसिला,
हर बात पर, कोई शिकवा गिला,
तड़पाने लगे हैं मन, फिर वही बात कल से...

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

किसी झील सा, यूँ गुम-सुम सा था मैं,
ठहरा वहीं, चुप-चुप सा था मैं,
वही आहट सी आई, कोई हलचल सी लाई,
यादें तेरी, फिर कहीं झिलमिलाई,
मन को रुलाने लगे, फिर वही याद कल से..

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 26 May 2019

कैसे याद रहे?

जितने पल, व्यतीत हुए इस जीवन के,
उतने ही पल, तुम भी साथ रहे,
शैशव था छाया, जाने कब ये पतझड़ आया,
फिर, कैसे याद रहे?

था श्रृंगार तुम्हारा, या चटकी कलियाँ?
रंग तुम्हारा, या रंग-रंलियाँ?
आँचल ही था तेरा, या थी बादल की गलियाँ,
फिर, कैसे याद रहे?

अस्त हुआ कब दिनकर, कब रात हुई,
तारों को तज, तेरी ही बात हुई,
चाँदनी थी छाई, या थी तेरी ही दुग्ध परछाई,
फिर, कैसे याद रहे?

वृद्ध होंगे कल हम, बृथा था मेरा भ्रम,
यौवन संग, शैशव का संगम,
सप्त-दल से थे तुम,या थे अलि-दल से हम,
फिर, कैसे याद रहे?

कहो ना, तुझको प्रतीत हुआ कैसा?
अंतराल, व्यतीत हुआ कैसा?
अनुपालन, मन के अनुबंधों का था जैसा,
फिर, कैसे याद रहे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 9 January 2019

छद्मविभोर

हर सांझ, मैं किरणों के तट पर,
लिख लेता हूँ, थोड़ा-थोड़ा सा तुझको.....

कहीं तुम्हारे होने का,
छद्म विभोर कराता एहसास,
और ये दूरी का,
विशाल-काय आकाश,
सीमा-विहीन सी शून्यता,
गहराती सी ये सांझ,
रिक्तता का देती है आभास,
गगन पर दूर,
कहीं मुस्काता है वो चाँद,
छद्मविभोर हो उठता है ये मन...

हर सांझ, सीमा-हीन इस तट पर,
लिख लेता हूँ, मैं थोड़ा-थोड़ा तुझको.....

पंछी से लेता हूँ कलरव
किरणों से ले लेता हूँ तुलिकाएँ,
छंद कोई गढ़ लेता हूँ,
तस्वीर अधूरी सी,
उभार लाती है ये सांझ,
सजग हो उठती है कल्पना,
दूर क्षितिज पर,
नीलाभ सा होता आकाश,
संग मुस्काता वो चाँद,
छद्मविभोर हो उठता है ये मन...

हर सांझ, नील गगन के तट पर,
लिख लेता हूँ, मैं थोड़ा-थोड़ा तुझको.....

Sunday 18 November 2018

सुरभि

कुछ भूले, कुछ याद से रहे,
कुछ वादे, दबकर किताबों में गुलाब से रहे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन सूखे फूलों से....

मुखरित, हुए फिर वो वादे,
वो चटक रंग, वो चेहरे, वो रूप सीधे-सादे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन खुले पन्नों से.....

महक उठे हैं, फिर वो छंद,
बनते-बिगड़ते, नए-पुराने से कई अनुबंध,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन भूले लम्हों से....

मन की लिप्सा, जागी फिर,
अँकुर आए, फिर आँखों में चाह अनगिन,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन गुजरे राहों से....

तंद्रा टूटी, इक बूँद से जैसे,
सूखी नदिया की, प्यास जगी है कुछ ऐसे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन नन्हीं बूंदों से....

कुछ भूले, कुछ याद से रहे,
कुछ वादे, दबकर किताबों में गुलाब से रहे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन सूखे फूलों से....

Tuesday 11 September 2018

बीहड़- इक याद

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

यत्र तत्र झाड़ झंखर, राहों में धूल कंकड़,
कंटीली झाड़ियों से ढ़की, वीरान सी वो बीहड़,
वृक्ष विशाल से उग आए हैं अब वहाँ,
शेष है कुछ तस्वीरें, बसी है जिनसे वो जहाँ,
कुछ बातें कर लेता हूँ मैं उनसे वहाँ...

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

कुछ भी तो अब नहीं बचा, उस बीहड़ में,
हर शै में समय की जंग, खुद समय भी है दंग,
हैरान हूँ मैं भी, समय ये क्या कर गया?
खुद ही रचयिता, खुद ही विनाशक वो बना,
समय से बातें कर लेता हूँ मैं वहाँ....

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

घने वृक्ष, चीखते झींगुर, अंतहीन बीहड़,
चीखते फड़फड़ाते, अनमनस्क से चमगादड़,
कुछ ज़िन्दगियाँ अब भी रहती है वहाँ,
दम घोंटती हवाओं में, पैबन्द हैं साँसें जहाँ,
जिन्दगी को ढ़ूँढ़ने जाता हूँ मैं वहाँ...

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

ऐ वक्त, ऐ निर्मम समय, ये कैसा बीहड़!
रचता ही है तो रच, बीहड़ साँसों की लय पर,
वो बीहड़! तरन्नुम हवाओं में हों जहाँ,
तैरते हों शुकून, मन की तलैय्या पर जहाँ,
मन कहता रहे, तू ले चल मोहे वहाँ....

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

Sunday 29 July 2018

भूलोगे कैसे

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

वो सूनी राहें, वो बलखाते से पल,
बहते से लम्हे, ये हवाएं चंचल,
वो टूटे पत्ते, वो बिखरा सा आँचल,
यूं मुझमें खो जाओगे तुम,
बहते लम्हों संग, उड़ आओगे तुम,
मौसम के रंग बदलेंगे,
घटा घनघोर जमकर बरसेंगे,
भिगाएंगे, मन विरहाकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

उड़-उड़कर कागा मुंडेरे पे आएंगे,
काँव-काँव कर संदेशे लाएंगे,
अकुलाहट आने की ये दे जाएंगे,
सोचोगे, राह तकोगे तुम,
सूनी राहों के पदचाप गिनोगे तुम,
कागा फिर फिर आएंगे,
मुंडेर चढ़ गाएंगे, चिढाएंगे,
तरसाएंगे, मन आकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

कुहू-कुहू कोयल झुरमुट में गाएगी,
छुप-छुप विरहा ये सुनाएंगी,
यादें मेरी लेकर वो भी आएंगी,
मन ही मन, गाओगे तुम,
कुछ गीत मेरे, यूं दोहराओगे तुम,
सूने नैने छलक आएंगे,
कोयल, रुक-रुककर गाएंगे,
जलाएंगे, मन व्याकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

Sunday 8 July 2018

बिसारिए न मन से

इक याद हूं, बिसारिए न मन से,
मुझको संभालिए जतन से,
फिर लौट आऊंगा मैं उस गगन से,
कभी पुकारिए न मन से!

जब खुश्बू सी कोई आए चमन से,
हो जाए बेचैन सी ये सांसें,
या ठंढी सी बारिश गिरने लगे जब गगन से,
बूंदों में भीग जाएं ये मेरी यादें,
कहने को कुछ, दिन-रैन मन ये तरसे,
मैं पास हूं, पुकारिए न मन से!

इक याद हूं, बिसारिए न मन से.........

फीका लगे जब तन पे श्रृंगार सारे,
सूना सा लगे जब ये नजारे,
खुद से ही खुद को, जो कभी तुम हो हारे,
वश में न हो जब मन तुम्हारे,
न आए कोई आवाज इन धड़कनो से,
मैं साथ हूं, पुकारिए न मन से!

इक याद हूं, बिसारिए न मन से,
मुझको संभालिए जतन से,
फिर लौट आऊंगा मैं उस गगन से,
न हूं दूर, पुकारिए न मन से!

Sunday 25 February 2018

फागुन में तुम याद आए

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

तन सराबोर, हुआ इन रंगों से,
तन्हा दूर रहे, कैसे कोई अपनों से?
भीगे है मन कहाँ, फागुन के इन रंगों से,
तब भीगा वो तेरा स्पर्श, मुझे याद आए.....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

घटाओं पे जब बिखरे है गुलाल,
हवाओं में लहराए है जब ये बाल,
फिजाओं के बहके है जब भी चाल,
तब सिंदूरी वो तेरे भाल, मुझे याद आए....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

नभ पर रंग बिखेरती ये किरणें,
संसृति के आँचल, ये लगती है रंगने,
कलिकाएँ खिलकर लगती हैं विहँसने,
तब चमकते वो तेरे नैन, मुझे याद आए....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

फागुनाहट की जब चले बयार,
रंगों से जब तन को हो जाए प्यार,
घटाओं से जब गुलाल की हो बौछार,
तब आँखें वो तेरी लाल, मुझे याद आए....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

Friday 22 December 2017

मुद्दतों बाद

मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

मन के इसी सूने से आंगन में,
फिर तुम्हारी ही यादों से टकराया था मैं,
बोल कुछ भी तो न पाया था मैं,
बस थोड़ा लड़खड़ाया था मै,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

खिला था कुछ पल ये आंगन,
फूल बाहों में यादों के भर लाया था मैं,
खुश्बुओं में उनकी नहाया था मै,
खुद को न रोक पाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

अब तलक थी वो मांग सूनी,
रंग हकीकत के वहीं भर आया था मैं,
उन यादो से अब न पराया था मैं,
डोली में बिठा लाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

अब वापस न जा पाएंगे वो,
खुद को उस पल में छोड़ आया था मैं,
पल में सदियाँ बिता आया था मैं,
यादों मे अब समाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

Thursday 16 November 2017

बदल रहा ये साल

युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल...

यादों के कितने ही लम्हे देकर,
अनुभव के कितने ही किस्से कहकर,
पल कितने ही अवसर के देकर,
थोड़ी सी मेरी तरुणाई लेकर,
कांधे जिम्मेदारी रखकर, बदल रहा ये साल...

प्रशस्त प्रगति के पथ देकर,
रोड़े-बाधाओं को कुछ समतल कर,
काम अधूरे से बहुतेरे रखकर,
निरंतर बढ़ने को कहकर,
युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल...

अपनों से अपनों को छीनकर,
साँसों की घड़ियों को कुछ गिनकर,
पीढी की नई श्रृंखला रचकर,
जन्म नए से युग को देकर,
सारथी युग का बनाकर, बदल रहा ये साल....

नव ऊर्जा बाहुओं में भरकर,
कीर्तिमान नए रचने को कहकर,
लक्ष्य महान राहों में रखकर,
आँखों में नए सपने देकर,
विकास पुरोधा बनकर, बदल रहा ये साल...

प्रस्तावों की इक सूची देकर,
मंत्र नए सबके कानों में कहकर,
अपनी मांग नई कुछ रखकर,
प्रण जन-जन से लेकर,
कुछ लेकर कुछ देकर, बदल रहा ये साल.....
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Accolade from "शब्दनगरी" / 17.11.2017
"बधाई हो! आपका लेख आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है"
हृदय तल से धन्यवाद शब्दनगरी....

Thursday 9 November 2017

किसकी राह तके

सदियाँ बीत गई, प्रीत वो रीत गई...........

बैरन ये प्रीत हुई,
डोली प्रीत की, बस यादों में ही सजे,
तुझको वो भूल चुके,
तू किसको याद करे, किसकी राह तके?

बैरन हुई ये पवन,
मुई, गुजरती है अब क्यूँ छूकर ये बदन,
न वो पुरवाई चले,
तू क्युँ उसको याद करे, किसकी राह तके?

बदल गए मौसम,
बदली वो घटा, बूंदें बारिश की ये छले,
धूप सी ये छाँव लगे,
तू क्युँ उनको याद करे, किसकी राह तके?

शहर अंजान हुए,
अपना ना कोई, बेगाना सा हर मोड़ लगे,
गलियाँ ये विरान हुए,
तू तन्हा किसे याद करे, किसकी राह तके?

न आएंगे अब वे,
तुझसे नजरें भी न, मिला पाएंगे अब वे,
नैनों से क्युँ आब झरे,
तू रो-रो किसे याद करे, किसकी राह तके?

सदियाँ बीत गई,प्रीत वो रीत गई...........

Saturday 23 September 2017

सैकत

असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई,
नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!

कोमल थे कितने, जीवन्त से वो पल,
ज्यूँ अभ्र पर बिखरते हुए ये रेशमी बादल,
झील में खिलते हुए ये सुंदर कमल,
डाली पे झूलते हुए ये नव दल,
मगर, अब ये सारे न जाने क्यूँ इतने गए हैं बदल?

उड़ते है हर तरफ ये बन के यादों के सैकत!
ज्यूँ वो पल, यहीं कहीं रहा हो ढल!
मुरझाते हों जैसे झील में कमल,
सूखते हो डाल पे वो कोमल से दल,
हृदय कह रहा धड़क, चल आ तू कहीं और चल!

उड़ रही हर दिशा में, रंगीन से असंख्य सैकत,
बिंधते हृदय को, यादों के ये तीक्ष्ण सैकत,
नैनों में आ धँसे, कुछ हठीले से ये सैकत,
अभ्र पर छा चुके है नुकीले से ये सैकत,
जाऊँ किधर! ऐ दिल आता नही  कुछ भी नजर?

असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई,
नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!

Friday 25 August 2017

जेहन में कहीं

ले रही है साँसें, मेरी यादें किसी के जेहन में कहीं....

सहेजे रक्खा है किसी ने यादों में मुझे,
सजदों में किसी ने फिर से पुकारा है मुझे,
हम ही हम है उनकी राहों में कहीं,
शायद उन आँखों मे है सिर्फ मेरी ही नमी....

ले रही है साँसें, मेरी यादें किसी के जेहन में कहीं....

महक उठा है खुश्बुओं से मेरा गुलशन,
फिर से तन में उठी है अंजानी कोई सिहरन,
इक छुअन सी फिर मुझको है हुई,
शायद इन एहसासों में कहीं वो ही तो नहीं....

ले रही है साँसें, मेरी यादें किसी के जेहन में कहीं....

जलाए है उसने मेरी ही यादों के दिए,
लग रहा छँटने लगे अंधेरो के ये घुप साए,
सजने लगी विरान सी राहें ये मेरी,
शायद इन्तजार किए राहों में वो भी तो नही.....

ले रही है साँसें, मेरी यादें किसी के जेहन में कहीं....

Sunday 9 July 2017

मन का इक कोना

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

यूँ तो अब तन्हा बीत चुकी हैं सदियाँ,
बहाने जी लेने के सौ, ढूँढ लिया है इस मन ने,
फिर भी, क्युँ नही भरता मन का वो कोना?
क्युँ चाहे वो बस तेरी ही यादों में खोना?

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

मिले जीवन के पथ कितने ही सहारे,
मन के उस जिद्दी से कोने से बस हम हैं हारे,
खाली खाली सा रहता हरदम वो कोना!
वो सूना सा कोना चाहे तेरा ही होना!

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

खिलते रहें हैं फूल मन के हर कोने में,
इक पतझड़ सा क्यूँ छाया, मन के उस कोने में,
रिमझिम बारिश क्यूँ बरसे ना उस कोना?
कोई फूल खिले ना क्यूँ उस कोना?

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

अधिकार तुम्हारा शायद उस कोने पर,
इक अविजित साम्राज्य है तुम्हारा उस कोने पर,
जीत सका तुझसे ना वापस कोई वो कोना!
मेरे अन्दर ही पराया मुझसे वो कोना!

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

Thursday 29 June 2017

उजड़ा हुआ पुल

यूँ तो बिसार ही चुके हो अब तुम मुझे!
देख आया हूँ मैं भी वादों के वो उजरे से पुल,
जर्जर सी हो चुकी इरादों के तिनके,
टूट सी चुकी वो झूलती टहनियों सी शाखें,
यूँ ही भूल जाना चाहता है अब मेरा ये मन भी तुझे!

पर इक धुन! जो बस सुनाई देती है मुझे!
खीचती है बार बार उजरे से उस पुल की तरफ,
टूटे से तिनकों से ये जोड़ती है आशियाँ,
रोकती है ये राहें, इस मन की गिरह टटोलकर ,
बांधकर यादों की गिरह से, खींचती है तेरी तरफ मुझे!

कौंधती हैं बिजलियाँ कभी मन में मेरे!
बरस पड़ते हैं आँसू, आँखों से यूँ ही गम में तेरे,
नम हुई जाती है सूखी सी वो टहनियाँ,
यादो के वो घन है अब मेरे मन के आंगन,
कोशिशें हजार यूँ ही नाकाम हुई है भूलाने की तुझे!

इस जनम यूँ तड़पाया है तेरे गम ने मुझे!
बार-बार, हर-बार तेरी यादों ने रुलाया है मुझे,
खोल कर बाहें हजार मैने किया इन्तजार,
पर झूठे वादों ने तेरे इस कदर सताया है मुझे,
अब न मिलना चाहुँगा, कोई जनम मैं राहों में तुझे !

Tuesday 23 May 2017

यादों के परदेश से

जब शाम ढली, इक नर्म सी हवा चली,
अभिलाषा की इक नन्ही कली फिर से मन मे खिली,
जाने कैसे मन यादों में बहक गया,
सिसकी भरते अन्तर्मन का अंतर्घट तक रीत गया,
तेरी यादों का ये मौसम, तन्हा ही बीत गया....

तब जेठ हुई, इक गर्म सी हवा चली,
झुलसी मन के भीतर ही अभिलाषा की वो नन्ही कली,
जाने कैसे ये प्यासा तन दहक गया,
पर उनकी सांसो की आहट से ये सूनापन महक गया,
यादों का ये मौसम, शरद चांदनी सा चहक गया....

आस जगी, जब बर्फ सी जमी मिली,
फिर धड़कन में मुस्काई अभिलाषा की वो नन्ही कली,
जाने कैसे ये सुप्तहृदय प्रखर हुआ,
विकल प्राण विहग के गीतों से अम्बर तक गूंज गया,
यादों के परदेश से लौटा, मन का जो मीत गया....

Wednesday 10 May 2017

इक खलिश

पलकें अधखुली,
छू गई सूरज की किरण पहली,
अनमने ढंग से फिर नींद खुली।।।
मन के सूने से प्रांगण में दूर तलक न था कोई,
इक तुम्हारी याद! निंदाई पलकें झुकाए,
सामने बैठी मिली...!

मैं करता रहा,
उसे अपनाने की कोशिश,
कभी यादों को भुलाने की कोशिश…
रूठे से ख्वाबों को निगाहों में लाने की कोशिश,
तेरी मूरत बनाने की कोशिश…
फिर एक अधूरी मूरत....!

क्या करूँ?
सोचता हूँ सो जाऊँ,
नींद मे तेरी ख्वाबों को वापस बुलाउँ,
फिर जरा सा खो जाऊँ,
मगर क्या करूँ...
ख्बाब रूठे है न मुझसे आजकल....!

इन्ही ख्यालों में,
इक पीड़ सी उठी है दिल में,
चाह कोई जगी है मन मॆं,
अब तोड़ता हूँ दिल को धीरे धीरे तेरी यादों में,
वो क्या है न, चाहत में...
रफ्ता रफ्ता मरने का मजा ही कुछ और है...!