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Thursday 4 October 2018

निशाचर अखियाँ

कैसे कटे रतियाँ,
निशाचर सी हुई है दो अखियाँ....

ये नैन! जागे है सारी रैन,
करे ये अठखेलियां,
दबे पाँव चले, यहीं पलकों तले,
छुप-छुप, न जाने,
ये किस किस से मिले?
टुकर-टुकर ताके ये सारी रतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....

ये निशा प्रहर भई दुष्कर,
न माने ये बतियां!
संग रैन चले, न ये निशा ढ़ले,
दिशा-दिशा भटके,
न ही नैनो में नींद पले,
उलझाए कर के उलझी बतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....

ये नैन! पाये न क्यूँ चैन?
कटे कैसे रतियाँ?
राह कठिन, ये हर बार चले,
बोझिल सी पलकें,
रुक रुक अब हार चले,
जिद में जागी ये सारी रतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....

कैसे कटे रतियाँ,
निशाचर सी हुई है दो अखियाँ....

Monday 24 September 2018

सुप्रिय जज्बात

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....
खोया मैं उस पल, उनकी ही बातों में....

टटोल कर, मेरा भावुक सा मन,
बोल कर कई सुप्रिय वचन,
पूछ कर न जाने, कितने ही प्रश्न,
रख गया था कोई हाथ, मेरे हाथों में....

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....

हृदय के तट, मची है हलचल,
है जिज्ञासा जागी प्रबल,
उस ओर ही, मन ये रहा मचल,
सुप्रिय से वो हालात, लम्बी बातों में....

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....

है खींच चुकी, इक लकीर सी,
उठ रही है इक पीर सी,
हो न हो, वो है कोई इक हीर सी,
सुप्रिय है वो ही पीर, मेरे जज़्बातों में...

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....
मैं भूला हूँ अब भी, उनकी बातों में....

Sunday 16 September 2018

बह जाते हैं नीर

जज्बातों में, बस यूँ ही बह जाते हैं नीर...

असह्य हुई, जब भी पीड़,
बंध तोड़ दे, जब मन का धीर,
नैनों से बह जाते हैं नीर,
बिन बोले, सब कुछ कह जाते हैं नीर...

नीर नहीं, ये है इक भाषा,
इक कूट शब्द, संकेत जरा सा,
सुख-दुख हो थोड़ा सा,
छलकते हैं, नैनों से बह जाते हैं नीर...

संयम, थोड़ा ना खुद पर,
ना धैर्य तनिक भी लम्हातों पर,
न जाने किन बातों पर,
जज्बातों में, बस यूँ बह जाते हैं नीर...

सम्भले ना, ये आँखों में,
तड़पाते हैं, आके तन्हा रातों में,
डूबोकर यूँ ख्यालों में,
किसी अंजान नगर, ले जाते हैं नीर...

भिगोते हैं भावों को नीर,
पिरोते है मन के भावों को नीर,
धोते हैं घावों को नीर,
बातों ही बातों में, भिगो जाते हैं नीर....

असह्य हुई, मन की पीड़,
बंध तोड़ रहे, अब मन का धीर,
बह चले अब नैनों से नीर,
कर संकेत, सब कुछ कह रहे हैं नीर...

जज्बातों में, बस यूँ ही बह जाते हैं नीर...

Saturday 4 August 2018

वो तारे

गगन के पाश में,
गहराते रात के अंक-पाश में,
अंजाने से किस प्यास में,
एकाकी हैं वो तारे!

गहरे आकाश में,
उन चमकीले तारों के पास में,
शायद मेरी ही आस में,
रहते हैं वो तारे!

अंधेरों से मिल के,
सुबह के उजियारों से बच के,
या शायद एकांत रह के,
खिलते हैं वो तारे!

टिम टिम वो जले,
तिल-तिल फिर जल-जल मरे,
हर पल यूं ही टिमटिमाते,
जलते हैं वो तारे!

क्यूं तन्हा है जीवन?
वृहद आकाश क्यूं है निर्जन?
अनुत्तरित से कई प्रश्न,
करते हैं वो तारे!

ना ही कोई सखा,
ना ही फल जीवन का चखा,
इसी तड़प में शायद,
मरते हैं वो तारे!

जलकर भुक-भुक,
ज्यूं, कुछ कहता हो रुक-रुक,
शायद मेरी ही चाह में,
उगते हैं वो तारे!

Wednesday 25 July 2018

वीरान बस्तियां

आशियाँ उजड़े, वीरान हुई ये बस्तियां,
है बस अनुत्तरित से कुछ अनसुलझे सवाल!

एक एक कर बुझते गए दीये सारे,
धूप, अंधेरों में हौले-हौले से घुलते गए,
किरणों में सिलते गए सैकड़ों मलाल,
आसमां पर आ बिखरे रंग गुलाल!

बस्तियों से दूर हो चले ये उजाले,
सांझ हुई या हैं ये गर्त अंधेरों के प्याले,
स्तब्ध खमोश हो चले सब सहचर,
सन्नाटों में चीख रहे ये निशाचर!

छल-छल करती पसरती ये रात,
पल-पल बोझिल होता ये सूना मंजर,
हर क्षण फैला है मरघट सा आलम,
बस्तियों में व्याप चुके हैं मातम!

अब शेष रह गए हैं कुछ सवाल,
और शेष बची हैं कुछ टूटी सी तस्वीरें,
उस रौशनी का है  बस  ख्याल भर,
शायद, वापस आएं वो मुड़कर!

आशियाँ उजड़े, वीरान हुई ये बस्तियां,
है बस अनुत्तरित से कुछ अनसुलझे सवाल!

Saturday 9 June 2018

पलकों तले रात

न जाने, क्या-क्या कहती जाती है ये रात....

पलकों तले, तिलिस्म सी ढ़लती ये रात,
धुंधली सी काली, गहराती ये रात,
झुनझुन करती इतराती कुछ गाती ये रात,
पलकों को, थपकाकर सुलाती ये रात!

नींद में डबडब, बोझिल होती ये पलकें,
कोई बैठा हो, जैसे आकर इन पर,
बरबस करता हों, इन्हें मूंदने की कोशिश,
सपनों को इनमें, भरने की कोशिश!

अंधियारे में उभरते, ये चमकीले से रंग,
सपनों की, ये धुंधली सी महफिल,
सतरंगी सी दुनियाँ में, मन का भटकाव,
इक अजूबा सा, अंजाना सा ठहराव!

पलकों तले, तैरती उभरती कई तस्वीरें,
विविध रंगों से रंगा ये सारा पटल,
मन मस्तिष्क पर, दस्तक देते रह रहकर,
सब है यहीं, पर कहीं कुछ भी नहीं!

पलकों तले ये रात.....
कोई तिलिस्म सी ढ़लती ये रात,
न जाने, क्या-क्या कहती जाती है ये रात....

Thursday 31 May 2018

चराग

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

यूं तो रौशनी भरते रहे, वो सारी रात,
अंधेरों संग अकेले, लड़ते रहे वो सारी रात,
तप्त तेल संग, तलते रहे अंग-अंग,
पर, ये तंज अंधेरे, कसते रहे असह्य व्यंग,
कालिख चराग की, कह गई थी ये बात.....

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

दिल में ही थी जली, दिल की बात,
बुझ गए जलते हुए, खुद ही वो चराग,
जल चुके थे, पतंगे कई साथ-साथ,
जल चुकी थी प्रीत, और जले थे जज्बात,
रात के दामन में, मिट गए थे ये चराग.....

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

युं धू-धू कर जले, चरागों के ख्वाब,
ज्यूं चिंता में, भस्म हुए हों मरने के बाद,
मन में लिए, कुछ अनकही सी बात,
चिताओं सी दहकती, वो जलती सी रात,
बंद पलकों तले, ढ़ल गई वो भी साथ......

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

Saturday 17 March 2018

तारे चुरा ले गया कोई

उनींदी रातों से, झिलमिल तारे चुरा ले गया कोई!

तमस भरी काली रातों में,
कुछ तारे थे दामन मे रातों के,
निशा प्रहर, सहमी सी रात,
छुप बैठी वो, दामन में तारों के,
भुक-भुक जलते वो तारे,
रातों के प्यारे वो सारे,
अलसाए से कुछ थके हारे,
निस्तब्ध रातो की, बाहों में खो गई......

उनींदी रातों से, वो ही तारे चुरा ले गया कोई!

फिर टूटी रातों की तन्द्रा,
अंधियारों में तम की वो घिरा!
तारों की गम में वो रहा,
किससे पूछे वो, तारों का पता?
अब कौन बताए, कहां गए वो तारे?
खुद में खोए निशाचर सारे!
मदमाए से फिरते वो मारे-मारे,
तम की पीड़ा का, न था अन्त कोई....

तम की रातों से, क्युं तारे चुरा ले गया कोई!

टिमटिम जलती वो आशा!
इक उम्मीद, टूट गई थी सहसा!
व्याप्त हुई थी खामोशी,
सहमी सी वो, सिहर गई जरा सी!
दामन आशा का फिर फैलाकर,
लेकर संग कुछ निशाचर,
तम की राहों से गुजरे वो सारे,
उम्मीद की लड़ी, फिर जुड़ सी गई.....

इन रातों से, वो टिमटिम तारे न चुराए कोई!

Monday 19 February 2018

एकाकी वेला

एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...

ये रात है ! है निर्जन सा ये दूसरा पहर....
नीरवता है फैली सी, बिखरी है खामोशी,
चुप सी है रजनीगंधा, गहरी सी ये उदासी,
चुपचाप बुझ-बुझ कर, जलते वो दीपक,
गुमसुम चुप-चुप, शांत बैठा वो शलभ...
सूनापन है व्याप्त, बस यादों का मेला है....

एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...

बदराए से नभ पर, एकाकी सा इक तारा,
नीरव सी इन रातों मे, इक वो ही है बेचारा,
जागा है बस वो ही, सो रहा ये जग सारा,
वो किसको याद करे, उसका कौन सहारा,
लुटाकर सब कुछ, खुद को ही वो हारा...
एकाकी सी इन राहों में, शायद वो भूला है!

एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...

रातों कें साए में, व्याप रहा क्यूं सूनापन?
यादों के इस घन में, कैसा ये एकाकीपन?
पहरे हैं यादों के, मंडराते से यादों के घन,
फिर क्यूं तारे, गिनता है ये निशाचर मन?
निशा पहर किसने, गीत विरह के छेड़ा...
कैसी सूनी है रात, तन्हा कितनी ये वेला है!

एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...

Friday 26 January 2018

हे ईश्वर

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार...
मत देना तुम मुझको, ऐसा कोई प्रभात!

बिन बात जहाँ, बढ जाती हो विवाद,
बिन पतझड़ ही, बिखर जाते हों पात,
बादल के रहते, सूखी सी हो बरसात,
खुशियों के पल, मन में हो अवसाद....

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार....
मत देना तुम मुझको, ऐसी कोई भी रात!

सितारों बिन जहाँ, सूना हो आकाश,
बिन जुगनू जहाँ, अंधेरा हो ये प्रकाश,
एकाकीपन हो, मृत हो मन के आश,
ये राहें ओझल हो, खोया हो उल्लास...

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार.....
मत देना तुम मुझको, ऐसा कोई भी पल!

बिन जीवन संगी, साँसे हो बोझिल,
बिन हमराही के, ये राहें हो मुश्किल,
अकेलापन हो, गम में हो महफिल,
जग के मेले में, तन्हाई हो हासिल...

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार.....
मत देना तुम मुझको, ऐसा कोई विषाद!

Sunday 14 January 2018

मुख्तसर सी बात

मुख्तसर सी वो ही बातें, सुनी कर गईं रातें.....

जब से गए तुम रहबर,
न ली सुधि मेरी,
न भेजी तूने कोई भी खबर,
हुए तुम क्यूँ बेखबर?

तन्हा सजी ये महफिल,
विरान हुई राहें,
सजल ये नैन हुए,
तुम नैन क्यूँ फेर गए?

मुख्तसर सी वो ही बातें, सुनी कर गईं रातें.....

मुख्तसर से वो पल,
कैसे बीत गए?
बस अब याद मुझे हैं आते,
वो ही शामो-शहर!

तुम संग सजी महफिल,
मखमली राहें,
चमकते से दो नैन,
सिमटते से वो दिन रैन !

मुख्तसर सी वो ही बातें, सुनी कर गईं रातें.....

संग जीने के वो वादे,
मरने की कसमें,
साँसों का साँसों से जुड़कर,
न बिछड़ने की रश्में!

न मिल पाने की तड़प,
तुमसे ही झड़प,
बीतती सी वो घड़ी,
खन खन करती ये चूड़ी!

मुख्तसर सी वो ही बातें, सुनी कर गईं रातें.....

Wednesday 8 November 2017

बोझिल रात

यूँ बड़ी देर तक, कल ठहर गई थी ये रात,
भावुक था थोड़ा मैं, कुछ बहके थे जज्बात,
शायद कह डाली थी मैने, अपने मन की बात,
खैर-खबर लेने को, फिर आ पहुँची ये रात!

याद मुझे फिर आई, संत रहीम की ये बात...
"रहिमन निजमन की व्यथा मन ही राखो गोय,
  सुनि इठलैहें लोग सब, बाँट न लइहे कोय"
पर चुग गई चिड़ियाँ खेत अब काहे को पछतात..

बड़ी ही खामोशी से फिर, बैठी है ये रात,
झिंगुर, जुगनू, कीट-पतंगो को लेकर ये साथ,
धीरे-धीरे ऊलूक संग बाते करती ये रात,
उफ! फिर से बोझिल होते, बीतते ये लम्हात...

अब सोचता हूँ, पराई ही निकली वो रात,
पीछा कैसे ये छोड़ेगी, मनहूस बड़ी है ये रात,
रखना है काबू में, मुझको अपने जज्बात,
ना खोऊँगा मैं उसमें, चाहे कुछ कहे ये रात...

रात और तुम

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

अपारदर्शी परत सी ये घनेरी रात,
विलीन है जिसमें रूप, शक्ल और पते की सब बात,
पिघली सी इसमें सारी प्रतिमा, मूर्त्तियाँ,
धूमिल सी है ओट और पत्तियाँ,
बस है एक स्वप्न और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

चुपचाप कालिमा घोलती ये रात,
स्वप्नातीत, रूपातीत नैनों में ऊँघती सी उथलाती नींद,
अपूर्ण से न पूरे होने वाले कई ख्वाब,
मींचती आँखों में तल्खी मन में बेचैनियाँ,
बस है इक उम्मीद और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

परत दर परत धुंधलाती ये रात,
स्वप्न से बाहर निकल, उसी में फिर गुम होती सी तुम,
सहसा हाथ बढ़ा पास खींचती तुम,
गले मिल फिर कहीं कालिमा में सिमटती तुम,
बस है विरह की बेवशी और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

पराई सी लगती फरेबी ये रात,
क्यूँ मानूँ मैं अपना इसे, गोद में इसकी क्यूँ रोऊँ मैं?
सर रखकर इसके सीने पर क्यूँ सोऊँ मैं?
निशा प्रहर जाएगी, ये फिर फरेब कर जाएगी,
पल भर का है अपनापन और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

Friday 13 January 2017

अंजान सी रात

जरा सा चूमकर, उनींदी सी पलकों को,
कुछ देर तक, ठहर गई थी वो रात,
कह न सका था कुछ अपनी, गैरों से हुए हालात,
ठिठक कर हौले से कदम लिए फिर,
लाचार सी, गुजरती रही वो रात रुक-रुककर।

अंजान थी वो, उनींदी स्वप्निल सी आँखें,,
मूँदी रही वो पलकें, ख्वाबों में डूबकर,
न तनिक भी थी उसको, बिलखते रात की खबर,
गुजरती रही वो रात, बस सिसक कर,
मजबूर सी, उनींदी उन पलकों को छू-छूकर।

सुनता कौन उसकी? रात ही तो था वो!
ख्वाब भरने वो चला था, उनींदी आँखों में सबके,
कितने ही पलकों में, उसने संजोई थी उम्मीदें,
दामन था खाली, सुनसान थे उसके सपने,
बेजान सी, सिमटती रही अंधेरों में डूब-डूबकर।

धूमिल हूई थी कहीं, डूबकर अँधेरों में रात,
गया था वो सबको देकर, सुनहले भोर की सौगात,
कंपन दिए थे उसने, धड़कते से हृदय को,
नव प्राण साँसों में भरकर, दी थी नई शुरुआत,
अंजान सी, दिन भर रही पलकों में तैर-तैरकर।

Tuesday 30 August 2016

गोधुलि

गोधुलि, मिटा रहे ये फासले रात-दिन की दरमियाँ...,

गोधुलि, रहस्यमई है ये वेला,
मुखर होती ये चुप सी रात,
और दिवस के अवसान की ये वेला,
धुमिल सी होती ये जिन्दगी,
डूबते सी पलों में ख्वाहिशों की ये वेला,
लिए आगोश में उजालों को,
रात की आँचल ने अब दामन है खोला,
फासले अब क्युँ रहें रात और दिन की दरमियाँ...,

गोधुलि, मिलन की है ये वेला,
घौसलों में पंछियों के लौटने की ये वेला,
लाजवन्ती की पत्तियों के सिमटने की ये वेला,
बीज आश के, निराश पलों मे बोने की वेला,
सुरमई सांझ संग है ये झूमने की वेला,
कुछ सुख भरे पलों को जीने की ये वेला,
बातें दबी सी फिर से कहने की ये वेला,
फासले अब क्युँ रहें रात और दिन की दरमियाँ...,

गोधुलि, मिटते फासलों की ये वेला,
रात की रानी लगी फिर विहसने,
खुश्बुओं से दूरियों को बींधने की ये वेला,
कलकल चमकती ये नदिया की धारा,
मखमली सी चाँदनी में डूबने की ये वेला,
खोए हैं अब सपनों में साथ हम,
वयस्त सी जिन्दगी में फुर्सत की है ये वेला,
फासले अब क्युँ रहें रात और दिन की दरमियाँ...,

गोधुलि, मिटा रहे ये फासले रात-दिन की दरमियाँ...,

Thursday 28 July 2016

रातों के रतजगे

ये रातों के रतजग, सब उनके हैं दिए,
नींदे चुराकर मेरी, न जाने किधर वो चल दिए?

कुछ कहा था कभी उसने,
जगाए थे उसने, आँखों में कितने ही सपने,
उम्मीद की शाख पर, फूल लगे थे खिलने,
रौशनी लेकर आई थी, आस की चंद किरणें,
अब कहाँ हैं वो बातें, बुझ रहें है अब वो जलते दिए,

ये रातों के रतजगे, सब उनके हैं दिए,
सपने सजाकर मेरी, न जाने किधर वो चल दिए?

कह दे उनसे जाकर ए मन,
उम्मीद ना जगाए इस तरह आँखों में कोई,
टूटते हैं उम्मीद, जब टूटती हैं साँसे कोई,
आस टूटते हैं हृदय के, आवाज नहीं कोई,
चीखते है सन्नाटे, बुझ रहे हैं अब आस के दिए,

ये रातों के रतजगे, सब उनके हैं दिए,
उम्मीद जगाकर मेरी, न जाने किधर वो चल दिए?

मन की कटोरे में, गूंज है उठती,
इक आह निकलती है, बस सन्नाटों को चीरती,
गुजर रही है रात, बस आँखों को मीचती,
घुप सा अंधेरा है, साया भी साथ नहीं देती,
वियावान है हर तरफ, साथ बस वो बुझते से दिए,

ये रातों के रतजगे, सब उनके हैं दिए,
छोड़ सन्नाटे में मुझको, न जाने किधर वो चल दिए?

Monday 20 June 2016

उफ यह रात

उफ, यह डरी सहमी सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

उफ, ये रात ढलती है कितनी धीरे-धीरे,
कितने ही मर्म अपने गर्त अंधेरे साए में समेटे,
दर्द की चिंगारी में खुद ही जल-जलके,
तड़पी है यह रात अपनों से ठोकर खा-खा के,

उफ, यह बेचारी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

पड़े हैं कितने ही छाले इनके पैरों में,
दिन की चकाचौंध उजियारों मे चल-चल के,
लूटे हैं चैन अपनों नें ही इन रातों के,
सपन सलोने भी अब आते हैं बहके-बहके,

उफ, यह तन्हा सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

सुर्ख रातों की गहरी तम सी तन्हाई,
भाग्य की लकीरों सी इनकी हाथों मे गहराई,
सन्नाटों की चीरती आवाज सी लहराई,
आँखे रातों की भय, व्यथा, घबराहट से भर आई,

उफ, अंधेरी स्याह सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

Thursday 28 April 2016

खालीपन अब संग

मैं और मेरा खालीपन, अब दोनो ही रहते हैं संग!

कभी-कभी अजीब सा खालीपन,
गहराता मन के अन्दर,
जैसे सायों सा लहराता है,
अंधियारा स्याह रातों के भीतर।

उथला सा ये मन कब तक सह पाए,
कौन भरे मन का खालीपन,
मन बोलता है मन से,
आँखें मीचे मन बस सुनता ही जाए।

मन का खालीपन एहसासों का भूखा,
कोई तो जग में होता,
जो मन के एहसासों को सुनता,
ये खालीपन खुद मे ही खुद को ढूंढ़ता।

मैं और मेरा खालीपन अब दोनो हैं संग,
कभी-कभी मिल बैठते हम निर्जन में,
ठिठकता तब मेरा एकाकीपन,
फिर लगा लेता तब वो मुझको अपने अंग।

मैं और मेरा खालीपन, अब दोनो ही रहते हैं संग!

Sunday 10 April 2016

रात

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात के साए,
खामोश गुजरते रहे,
लगी रही बस एक चुप सी,
सन्नाटे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात टूटी सी,
रात रोती रही रात भर,
काली कफन में लिपटी सी,
झिंगुर मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात गुमसुम सी,
कुछ कह गई थी कानों में,
सुन न पाए सपन में डूबे हम,
तारे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात खोई-खोई सी,
जाने किन उलझनों में फसी सी,
बरसती रही ओस बन के गुलाब पर,
कलियाँ मगर गुनगुनाती रही रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात विरहन सी,
मिल न पाई कभी भोर से,
रही दूर ही उजालों के किरण से,
दीपक मगर गुनगुनाती रही रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

Monday 21 March 2016

अधूरे सपने

ठहरे से जीवन में छोटी सी खुशी के पल ये अधूरे सपने.....!

रात के अंधेरे रंगीन सपनों से पटे हुए,
दिन के उजाले संकलित भविष्य के विराट मार्ग।

दोनो तो सपने ही हैं गर मानों तो,
एक बंद आँखों से तो दूसरी खुली आँख,
अधूरी आंकांक्षाओं के बीज लिए ये रात दिन के मार्ग।

बस पनपेगा कब ये बीज, मन सोचता,
समझौते पर विवश वो, रात दिन एक करता,
बची रह जाती फिर भी जीवन में सपनों की कुछ शाम ।

ठहरे से जीवन में छोटी सी खुशी के पल ये अधूरे सपने.....!