Wednesday, 13 April 2016

श्रृंगार

श्रृंगार ये किसी नव दुल्हन के, मन रिझता जाए!

कर आई श्रृंगार बहारें,
रुत खिलने के अब आए,
अनछुई अनुभूतियाें के अनुराग,
अब मन प्रांगण में लहराए!

सृजन हो रहे क्षण खुमारियों के, मन को भरमाए!

अमलतास यहां बलखाए,
लचकती डाल फूलों के इठलाए,
नार गुलमोहर सी मनभावन,
मनबसिया के मन को लुभाए।

कचनार खिली अब बागों में, खुश्बु मन भरमाए!

बहारों का यौवन इतराए,
सावन के झूलों सा मन लहराए,
निरस्त हो रहे राह दूरियों के,
मनसिज सा मेरा मन ललचाए।

आलम आज मदहोशियों के, मन डूबा जाए!

तू पथ मैं पथिक

पथ घुमावदार,
पथिक इन राहों का मैं अंजाना,
असंख्य मोड़ इन राहों पर,
पा लेता मैं मंजिल जीवन की,
गर छाँव तुम अपनी आँचल का मुझको देते।

पथ रसदार,
जीवन के इस रस से मैं अंजाना,
अनंत मधुरस इस पथ पर,
पी जाता मैं अंजुरी भर भरकर,
गर प्याला तुम अपनी नैनों का मुझको देतेे।

पथ पथरीला,
चुभते इन काटों से मैं अंजाना,
कंकड़ हजार इस पथ पर,
चल लेता मैं नुकीले पत्थर पर,
गर दामन तुम अपना मखमल सा मुझको देते।

पथ एकाकी,
एकाकीपन इस भीड़ का न जाना,
खोया भीड़ मे इस पथ पर,
ढ़ूंढ़ लेता मैं अपने आप को पथ पर,
गर बसंत तुम अपने सासों का मुझको देते।

पथ लम्बा भ्रामक,
जीवन के इस भ्रम से मैं अंजाना,
लम्बे पथ पर छोटा सा जीवन,
जी लेता मै जीवन के पल जी भरकर,
गर मुस्कान तुम अपने जीवन का मुझको देते।

तुम भी गा देते

फिर छेड़े हैं गीत,
पंछियों नें उस डाल पर,
कलरव करती हैं,
मधु-स्वर में सरस ताल पर,
गीत कोई गा देते,
तुम भी,
जर्जर वीणा की इस तान पर।

डाली डाली अब,
झूम रही है उस उपवन के,
भीग रही हैं,
नव सरस राग में,
अन्त: चितवन के,
आँचल सा लहराते,
तुम भी,
स्वरलहर बन इस जीवन पर।

फिर खोले हैं,
कलियों ने धूँघट,
स्वर पंछी की सुनकर,
बाहें फैलाई हैं फलक नें
रूप बादलों का लेकर,
मखमली सा स्पर्श दे जाते,
तुम भी,
स्नेहमयी दामन अपने फैलाकर।

Tuesday, 12 April 2016

बिखरे सपने

मेरे सपनों की माला में, सजते कुछ ऐसे मोती,
खुशियाँ बिखरती चहुँ ओर, प्रारब्ध इक जैसी होती!

जीवन ऐसे भी धरा पर, बिखरे हैं जिनके सपने,
टूटी हैं लड़ियाँ माला की, बस टीस बची है मन में,
चुन चुनकर मोतियों को, सहेज रखे हैं उसनें,
सपने हसीन लम्हों के, पर उनके जीवन से बेगाने।

प्रारब्ध ही कुछ ऐसा, नियति ही कुछ ऐसी,
खुशियों के असंख्य पल बस हाथों को छूकर गुजरी,
बुनते रहे वो लड़ियाँ ही, मोतियाँ सब दामन से फिसली,
माला उस जीवन की खुद ही टूट-टूट कर बिखरी।

ऎसे भी जीवन जग में, साँसें चँद मिली हैं जिनको,
कैसे होते हैं सुख के पल, झलक भी मिल सकी न उनको,
उनके भी तो जीवन थे, फिर जन्म मिली क्युँ उनको?
किन कर्मों की सजा, उस विधाता नें दी है उनको।

मेरे सपनों की माला में सजते कुछ ऐसे ही मोती,
सपने पूरे कायनात की सजती बस इक जैसी,
हसते खेलते सभी जीवन में, कोलाहल क्रंदन ये कैसी?
खुशियाँ बिखरती धरा पर, प्रारब्ध सब की इक जैसी!

Monday, 11 April 2016

मूक प्राण

मूक प्राणों के निर्णय क्या ऐसे तय होते हैं जीवन में?

गुमसुम सी सजनी वो हाथों में मेंहदी रचकर,
इक सशंक जिज्ञासा पलती मन के भीतर,
अपरिचित सी आहट हर पल मन के द्वारे पर,
क्या वो हल्दी निखरेगी सजनी के तन पर?

द्वार हृदय के बरबस खोल रखें हैं उस सजनी नें,
कठिन परीक्षा देनी है उसे इक अनजाने को,
अपनेपन की परिभाषा इक नई लिखनी है उसको,
क्या वो अपरिचित अपनाएगा उस भाषा को?

मुक्ति भाव खोए से है सजनी की जड़ आँखों में,
भविष्य धुमिल है उसकी घनघोर कुहासों में,
पाँव थमें है स्तंभ शेष से, असमंजस है उसके मन में,
क्या मूक प्राणों के निर्णय ऐसे होते हैं जीवन में?

अनबुझे प्यास

है हाथों मे भरी गिलास,
पर इन अधरों पे अनबुझे से प्यास,
कुछ घूँट पी लेता हूँ मैं,
अधरों को नम कर लेता हूँ मैं,
पर अनबुझी सी फिर भी है वो प्यास।

प्यास कहाँ बुझती है इन प्यालों सें,
बढ़ जाती ये और इन प्यालों से,
प्यास छुपी पानी के अन्दर,
पानी के उपर ही तो ये प्याला तैरा है,
ये प्याला क्या अबतक अधरों पे ठहरा है?

सोचता हूँ मै भी तर जाऊँ,
इन प्यालों के संग लब को रंग डालूँ,
पहेली इस प्यास की मैं भी हल कर डालूँ,
प्यासे ये अधर क्ब तक रह पाएंगे,
जीवन की ये हाला हम पूरा पीकर जाएंगे।

अर्थ

इंतजार.....!

कैसा इन्तजार?
अर्थहीन हैं ....
इंतजार की बातें सभी!

हर शख्स....!

तन्हा यहाँ,
अब किसी को
किसी का इंतजार नहींं!

हर लम्हा ....!

जुदा है यहाँ ....
दूसरे लम्हे से.........
लम्हा जीता खुद में ही!

पल......!

आने वाला पल...
किसी का
तलबगार नहीं!

अर्थ....!

ढू़ढ़ता है हर पल,
खुद से खुद मेंं....
बस अपने आप में ही!

Sunday, 10 April 2016

तन्हाईयाँ मेरी कविता

तन्हाई मे ही कविता है, तन्हाई जीवन का दर्पण है!

कई बार हम तन्हा होते हैं,
तन्हाईयों से हम तब बातें करते हैं,
सच कहुँ तो, तन्हाईयों सा साथ जग कहाँ देते हैं।

ऊबती नहीं कभी वो मुझसे,
बातें मन की लाख तन्हाईयों से कर लो,
चुपचाप सुनती रहती हैं, मेरी अनाप-सनाप बातें।

विचलित पलभर को ना होती,
तन्हाई मे वो मेरे मन की गहराई तोलती,
झकझोरती मन के तार, फिर विस्मित कर देती।

मन का कवि फिर बोलता है,
ऐ तन्हाई तू तो कोलाहल से अच्छा है,
तन्हाईयों मे कल फिर मिलना, तू ही तो कविता है।

प्यार में तन्हाई के हम होते हैं,
तन्हाईयों में तब हम खुद से मिलते हैं,
खुद से मिलना गैरों से मिलने से तो ज्यादा अच्छा है।

तन्हाई मे ही कविता है, तन्हाई जीवन का दर्पण है।

उम्र के साथी

आ गई अब उम्र वो, तलाशता हूँ जिन्दगी को,
उम्र की इस दहलीज पे, साथ मेरे कोई तो हो।

कभी मगन हो लिए हम, खुद अपने ही आप में,
फिर कभी तलाशता हूँ, खुद में अपने आप को।

कहते हैं जिन्हे अपना हम, दिखते हैं वो दूर से,
पास अपनी इक जिन्दगी, क्युँ रहें हम मायूश से।

जिन्दगी की प्यारी सी धुन, हर घड़ी बजती रहे,
साए सी तुम संग-संग रहो, जिन्दगी चलती रहे।

तन्हा हैं जो इस सफर में, हम उनकी जिन्दगी बनें,
कुछ लम्हें जिन्दगीे, संग उनके भी हम गुजार लें।

खिल-खिलाएगी ये जिन्दगी, जहाँ तेरे कदम पड़े,
तलाशेंगी ये तुमको खुशी, उठकर आप कहाँ चले।

उम्र गुजर जाएगी ये, जिन्दगी के आस-पास ही,
साथी तेरे कहलाएंगे ये, इस जिन्दगी के बाद भी।

लब्जों मे बयाँ

लब्जों में बयाँ जो हम कर न सके,
अल्फाज वो ही दिलों में दबी रह गई,
वो फसाना बहुत खूबसूरत सा था,
बात गुजरे जमाने की अब वो हो गई।

वो अल्हड़ सी उनकी नादानियाँ,
शब्दों में लिखी जैसे अनकही कहानियाँ,
लब्जों पे रुकी लहर सी कहीं,
अब गुनगुनाती हुई कोई गजल बन गईं।

जुल्फ खुल के कभी लहराए थे,
खुली गेसुओं में कुछ धुंधले से साये भी थे,
सीरत-ए-बयाँ ये लब्ज कर न सके,
वो लहराते से मंजर अब यादों में बस गईं।

छलके नैनों में अब अक्श एक ही,
उन खुले नैनों में उभरी है इक तस्वीर वही,
नीर नैनों के लब्जों पे बह न सके,
वो छलकते से नैन अब जाम में ढ़ल गई।