श्रृंगार ये किसी नव दुल्हन के, मन रिझता जाए!
कर आई श्रृंगार बहारें,
रुत खिलने के अब आए,
अनछुई अनुभूतियाें के अनुराग,
अब मन प्रांगण में लहराए!
सृजन हो रहे क्षण खुमारियों के, मन को भरमाए!
अमलतास यहां बलखाए,
लचकती डाल फूलों के इठलाए,
नार गुलमोहर सी मनभावन,
मनबसिया के मन को लुभाए।
कचनार खिली अब बागों में, खुश्बु मन भरमाए!
बहारों का यौवन इतराए,
सावन के झूलों सा मन लहराए,
निरस्त हो रहे राह दूरियों के,
मनसिज सा मेरा मन ललचाए।
आलम आज मदहोशियों के, मन डूबा जाए!
कर आई श्रृंगार बहारें,
रुत खिलने के अब आए,
अनछुई अनुभूतियाें के अनुराग,
अब मन प्रांगण में लहराए!
सृजन हो रहे क्षण खुमारियों के, मन को भरमाए!
अमलतास यहां बलखाए,
लचकती डाल फूलों के इठलाए,
नार गुलमोहर सी मनभावन,
मनबसिया के मन को लुभाए।
कचनार खिली अब बागों में, खुश्बु मन भरमाए!
बहारों का यौवन इतराए,
सावन के झूलों सा मन लहराए,
निरस्त हो रहे राह दूरियों के,
मनसिज सा मेरा मन ललचाए।
आलम आज मदहोशियों के, मन डूबा जाए!