Showing posts with label प्यार. Show all posts
Showing posts with label प्यार. Show all posts

Sunday 29 May 2016

मधुमय मुक्ताकाश

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

करुणा के भावमय मुक्ताकाश पर,
स्नेह का असीम विस्तार हो जाने दो,
जहाँ मुक्त हो हृदय के कंपन,
करुण प्रेम का प्रगाढ़ आभाष हो जाने दो,

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

कल्पना के विचरते मुक्ताकाश पर,
मानस पटल के विहग को उड़ जाने दो,
जहाँ विचरती हों कल्पनाशीलता,
मन की आशाओं को पंख लग जाने दो,

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

अभिलाषा के अनंत मुक्ताकाश पर,
विपुल आकांक्षाओं को प्रबल हो जाने दो,
जहाँ आसक्ति अनुराग हो मन में,
अंतःकरण के प्रसून प्रष्फुटित हो जाने दो,

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

Monday 23 May 2016

एक आलाप जीवन का

तुम तो आलाप भर उभरती हो मेरे गीतों में ढ़लकर।

हकीकत हो तुम मेरे अर्धजीवन की,
अर्धांगिनी हो तुम ही मेरी अधूरे सपन जीवन की,
संगिनी तुम ही अनचाहे इन दूरियों की,
सपनों में तुम बिखरते हो ख्यालों से निकलकर।

क्षण-क्षण छू जाते हो तुम हर रोज मुझे,
एक नया अधूरा मनचाहा ख्वाब सा बनकर...
अर्धजीवन की राहों पर देखता हूँ मैं तुमको छूकर,
हकीकत बन जब उभरते हो ख्वाबों से चलकर।

तुम अधूरी सी गीत कल्पना की चादरो में लिपटी,
कुछ शब्द अधूरे है मेरे दामन मे भी लिपटे,
अधूरे ख्वाबों के पल मे वो गीत पूरे से बनने लगते,
ये दुनिया यूँ ही कहती है कि तुम मेरे करीब नहीं........

तुम तो आलाप भर उभरती हो मेरे गीतों में ढ़लकर।

Saturday 21 May 2016

अकथ्य प्रेम तुम

अकथ्य ही रहे तुम इस मूक़ प्रेमी हृदय की जिज्ञासा में!

ओ मेरी हृदय के अकथ्य चिर प्रेम-अभिलाषा,
चिर प्यास तुम मेरे हृदय की,
उन अभिलाषित बुंदों की सदा हो तुम ही,
रहे अकथ्य से तुम मुझ में ही कहीं,
हृदय अभिलाषी किंचित ये मूक सदा ही!

ओ मेरी हृदय के अप्रकट प्रेमी हम-सानिध्या,
चिर प्रेमी तुम मेरे हृदय की,
हम-सानिध्य रहे सदा तुम यादों में मेरी,
अप्रकट सी कहीं तुम मुझ में ही,
हृदय आकुल किचिंत ये मूक़ सदा ही!

ओ मेरी हृदय के अकथ्य चिर-प्यासी उत्कंठा,
चिर उत्कंठा तुम मेरे हृदय की,
प्यासी उत्कंठाओं की सरिता तुम में ही,
अनबुझ प्यास सी तुम मुझ में ही,
हृदय प्यासा किंचित ये मूक सदा ही!

अकथ्य ही रहे सदा तुम इस मूक़ हृदय की जिज्ञासा में!

Friday 20 May 2016

पुकारता मन का आकाश

पुकारता है आकाश, ऐ बादल! तू फिर गगन पे छा जा!

बार बार चंचल बादल सा कोई,
आकर लहराता है मन के विस्तृत आकाश पर,
एक-एक क्षण में जाने कितनी ही बार,
क्युँ बरस आता है मन की शान्त तड़ाग पर।

घन जैसी चपल नटखट वनिता वो,
झकझोरती मन को जैसे हो सौदामिनी वो,
क्षणप्रभा वो मन को छल जाती जो,
रुचिर रमणी वो मन को मनसिज कर जाती जो।

झांकती वो जब अनन्त की ओट से,
सिहर उठता भूमिधर सा मेरा अवधूत मन,
अभिलाषा के अंकुर फूटते तब मन में,
जल जाता है यह तन विरह की गहन वायुसखा में।

मन का ये आकाश आज क्युँ है सूना सा,
कही गुम सा वो बादल क्षणप्रभा है वो खोया सा,
सूखे है ये सरोवर मन के, फैली है निराशा,
पुकारता है आकाश, ऐ बादल! तू फिर गगन पे छा जा!

Thursday 19 May 2016

नभ पर वो तारा

नभ पर हैं कितने ही तारे, एकाकी क्युँ मेरा वो संगी?

वो एकाकी तारा! धुमिल सी है जिसकी छवि,
टिमटिमाता वो प्रतिक्षण जैसे मंद-मंद हँसता हो कोई,
टिमटिमाते लब उसके कह जाती हैं बातें कई,
एकाकी सा तारा वो, शायद ढूंढ़ता है कोई संगी?

वो एकाकी तारा! नित छेड़ता इक स्वर लहरी,
पुकारता वो प्रतिक्षण जैसे चातक व्यग्र सा हो कोई,
टिमटिमाते लब जब गाते गीत प्यारी सी सुरमई,
है कितना प्यारा वो, पर उसका ना कोई संगी!

वो एकाकी तारा! मैं हूँ अब उसका प्रिय संगी,
कहता वो मुझसे प्रतिक्षण मन की सारी बातें अनकही,
टिमटिमाते लब उसके हृदय की व्यथा हैं कहती,
एकाकी तारे की करुणा में अब मैं ही उसका संगी!

यादों की एकान्त वेला

मन एकान्त सा होता नही यादों में जब होते वो संग,
आह ! यह एकान्त वेला, फिर याद लेकर उनकी आई...!

अतिशय उलझा है मन फिर ये कैसी रानाई,
घटाएँ उनके यादों की बदली सी इस मन पर छाई,
निस्तब्ध इस एकान्त वेला में ये कैसी है तन्हाई....?

यादों में पल पल वो झूलों से आते लहराकर,
मुखरे पर वही भीनी सी मंद मुस्कान बिखराकर,
कर जाते वो निःशब्द मुझको अपनाकर....!

लहराते जुल्फों की छाँवो में ही रमता है ये मन,
उनकी यादों की गाँवों में ही बसता है अब ये मन,
मन चल पड़ता उस ओर पाते ही एकान्त क्षण....!

तन्हाई डसती नहीं उनकी यादें जब हो संग,
मन एकान्त सा होता नही यादों में जब होते वो संग,
काश! क्षण उम्र के यूँ ही गुजरे यादों में उनकी संग....!

Wednesday 18 May 2016

प्रतीक्षामय निस्तब्ध निशा

निशा स्तब्ध सी है आज फिर कैसी,
क्या फिर कोई मन प्रतीक्षा में बिखरा है यहाँ?

रजनी रो पड़ी है ज्यूँ ओस की बूँदों मे,
निमंत्रण यह कैसा अब इस सुनसान निशा में,
क्या फिर कोई मन पुकार रहा प्रतीक्षा में यहाँ?

तम सी सुरम्य काया खोई विरान निशा में,
रजनीगंधा भी भूली है खुश्बु इस स्तब्ध निशा में,
ये पल प्रतीक्षा के क्या हो चले हैं दुष्कर वहाँ?

मन कहता है जाकर देखूँ कैसी है यह निशा,
प्रतीक्षा के बोझिल पल वो खुद कैसे है गुजारता?
क्युँ कोई पढ़ नहीं पाता प्रतिक्षित मन की दुर्दशा?

प्रतीक्षा में बीतेगी कैसे यह निस्तब्ध सी निशा?
जा कह दे उस बैरी से कोई सूख चुकी रजनीगंधा,
छलक रहे नीर नयनों में पलक्षिण दुष्कर यहाँ!

निशा स्तब्ध सी है आज फिर कैसी,
क्या फिर कोई मन प्रतीक्षा में बिखरा है यहाँ?

Tuesday 17 May 2016

अजनबी भँवरा

भँवरों के गीत सब, अजनबी हो चुके हैं अब,
गुनहुनाहटों में गीत की, अब कहाँ वो कसक,
थक चुका है वो भँवरा,  गीत गा-गा के अब।

वो भी क्या दिन थे, बाग में झूमता वो बावरा,
धुन पे उस गीत की,  डोलती थी कली-कली,
गीत अब वो गुम कहाँ, है गुम कहाँ वो कली।

जाने किसकी तलाश में अब घूमता वो बावरा,
डाल डाल घूमकर,  पूछता उस कली का पता,
बेखबर वो बावरा, कली तो हो चुकी थी फना।

अब भी वही गीत प्रीत के,  गाता है वो भँवरा,
धुन एक ही रात दिन, गुनगुनाता है वो बावरा,
अजनबी सा बाग में, मंडराता अब वो बावरा।

Sunday 15 May 2016

दूरियों के दरमियाँ

हमको जुदा न कर सकेंगी ये दूरियों के दरमियाँ!

हम मिलते रहे हैं हर पल यूँ दूरियों के दरमियाँ,
रीत ईक नई बनती गई दूरियों के दरमियाँ,
समय यूँ गुजरता प्रतिपल इन दूरियों के दरमियाँ !

बदल रहा ये रूप ये रंग इस समय के दरमियाँ,
न बदले हैं हम कभी इस समय के दरमियाँ,
वक्त लेता रहा करवटें तुम संग समय के दरमियाँ!

ये दूरियों के दायरे रहे उम्र भर तेरे मेरे दरमियाँ,
वक्त कभी न भर सका दूरियों के दरमियाँ,
मेरे हृदय में रहे सदा तुम इन दूरियों के दरमियाँ!

Wednesday 11 May 2016

मुझसे मिली जिन्दगी

उस झील सी आँखों में अब तैरती ये जिन्दगी।

जिन्दगी अभ्र पर ही थी मेरी कहीं,
आज मुझसे आकर मिली झूमती वो वहीं,
नूर आँखों मे लिए वही दिलकशीं,
कह रही मुझसे तू आ के मिल ले कहीं।

हँस पड़ी जिन्दगी पल भर को मेरी,
बन्द लब्जों से ही करने लगी वो बातें कईं,
रंग होठों पे लिए फिर वही शबनमी,
कह रही जिन्दगी तू रोज आ के मिल कहीं।

मैं दिखा उन लकीरों में ही बंद कही,
उनकी हाथों में जब लकीरें असंख्य दिखीं,
स्नेह पलकों पे लिए हाथ वो पसारती,
कहने लगी जिन्दगी दूर मुझसे जाना नहीं।

उस अभ्र पर बादलों में अब तैरती ये जिन्दगी।

वादों का क्या

वादों का क्या है, कल फिर नया इक कर लेंगे वादा!

जुबाने वादा अगर कर बैठे हैं तो क्या,
लिख कर कोई कागज तो हमने न दिया,
खता है ये उसकी एतबार जिसने किया,
वादा है ये फखत्, इन वादों का क्या?

वादा ही था, कल नया फिर कर लेगे हम इक वादा!

वो और थे जो वादो पे हो जातेे थे फना,
उम्र गुजरी थी जब, वादों की लगती थी हिना,
बंदिशें उन वादों की, जीना भी क्या उनके बिना,
वो एतबार क्या, जब उन वादो पे ना जिया?

वादा ही है वो जिसमे डूबे है दिल, डूबा ये सारा जहाँ!

दिल पिघल जाते है बस वादों की धूप में,
मर्म लेती है जन्म उन वादों की रूप में,
एहसास लहलहाते है उन वादों के स्वरूप में,
वादा तो है वो, सांसो की धागों से है जो सीया?

वादों का क्या, अब कौन निभाता है करके वादे यहाँ?

Sunday 8 May 2016

बेकरारियाँ

अब कहाँ दिखते हैं वो बेकरारियाें के पल,
जाम हसरतों के लिए कभी दूर वो जाते थे निकल,
क्या रंग बदले हैं मौसम ने, अब वो भी गए हैं बदल?

पल वो मचलता था उन बेकरारियों के संग,
अंगड़ाईयाँ लेती थी करवटें उनकी यादों के संग,
अब बिखरा है वो पल कहीं, क्या वो भी रहे हैं बिखर?

सुलग रही चिंगारियाँ, हसरतों के लगे हैं पर,
जल रही आज बेकरारियाँ, पर वो तो हैं बेखबर,
हम तो वो मौसम नहीं, यहाँ रोज ही जाते है जो बदल!

क्या अब भी है वहाँ बेकरारियाें के बादल?
सोंचता है ये बेकरार दिल आज फिर होके विकल!
भले रंग बदले हैं मौसमों ने, नेह नही सकता है बदल!

मुद्दतों गुजरे अफसाने

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

छलता ही रहा हर पल मन उस छलावे में,
भटकता ही रहा हर क्षण बदन उस बहकावे में,
टूटा सा इक दर्पण निकला वो अपना सा लगता था जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

घुँघरू सा बजता था वो दिल के तहखानों में,
पहचाना सा इक शक्ल लगता था वो अन्जानों में,
टूटा है अब मेरा घुँघरू वो, इस दिल में बजता था जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

जाने कितनी बार छला है ये मन इस दुनिया में,
ये पागल दिल भूल जाता है खुद भी को मृगतृष्णा में,
टूटा है अब जाल वो छल का उलझा था इस मन में जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

Saturday 7 May 2016

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण छाए हैं अब दृग पर!

वो मिल रहा पयोधर,
आकुल हो पयोनिधि से क्षितिज पर,
रमणीक क्षणप्रभा आ उभरी है इक लकीर बन।

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण छाए हैं अब दृग पर!

वो झुक रहा वारिधर,
युँ आकुल हो प्रेमवश नीरनिधि पर,
ज्युँ चूम रहा जलधर को प्रेमरत व्याकुल महीधर।

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण छाए हैं अब दृग पर!

अति रम्य यह छटा,
बिखरे हैं मन की अम्बक पर,
खिल उठे हैं सरोवर में नैनों के असंख्य मनोहर।

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण छाए हैं अब दृग पर!

अभ्र पर शहर की

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

ढूंढ़ता वो सदियों सेे ललित रमणी का पता,
अभ्र पर शहर की वो मंडराता विहंग सा,
वारिद अम्बर पर ज्युँ लहराता तरिणी सा,
रुचिर रमनी छुपकर विहँसती ज्युँ अम्बुद में चपला।

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

जलधि सा तरल लोचन नभ को निहारता,
छलक पड़ते सलिल तब निशाकर भी रोता,
बीत जाती शर्वरी झेलती ये तन क्लेश यातना,
खेलती हृदय से विहँसती ज्युँ वारिद में छुपी वनिता।

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

अभ्र = आकाश,
वारिद, अम्बुद=मेघ
विहंग=पक्षी

Tuesday 3 May 2016

ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा

जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?

तब मन को गहरा सा एहसास ये हुआ
बदल सा गया हूँ शायद मैं थोड़ा,
वक्त के थपेड़ों से खुद को मैं बचा न सका,
पर क्या? मेरी पहचान मेरे चेहरों से ही है सिर्फ क्या?

जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?

सहसा महसूस ये हुआ कि अब मैं मैं न रहा,
पर दिल तो मेरा अब भी नहीं बदला,
मन के भीतर तो वही जज्बात उमरते हैं सदा,
तो क्या बदला मेरे अन्दर, जो खुद मैं जान न सका?

जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?

अनुभूति एक दूसरी तब नई हुई इस मन में,
कम से कम पहचाना तो गया ही मैं,
गुजरे वक्त को तो भूल ही जाया करते हैं सब यहाँ,
कम से कम, मैं अभी गुजरा हुआ वक्त तो नहीं हुआ!

जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?

Thursday 28 April 2016

अपरिचित अपना सा

परिचित ही था मेरा वो, अपरिचित मुझको कब था वो!

यह कैसा परिचय, एक अपरिचित शख्स से,
ओझल है जो अबतक परिचय की नजरों से,
कल्पना की सतरंगी घोड़ों पर चढ़ आता वो,
परिचय की किन डोरों से मन को बांधता वो।

परिचित लगता अब वो, अपरिचित मुझको कब था वो!

हम कहते है जिसे परिचय, क्या सच में है वो,
या प्रतिविम्ब है इक, या बस इक छलावा वो,
अपरिचित सा जब भी कोई इस जीवन में हो,
प्रश्न अनेंकों मन में, उठने लगते न जाने क्यों।

परिचित होने से पहले, अपरिचित से लगते क्युँ वो!

कल्पना हो या छलावा, मन को है प्यारा वो,
अन-सुने गीत यादों में, हर पल गनुगुनाता वो,
अनुराग स्पर्श के, कल्पनाओं में अलापता वो,
जन्मों का ये परिचय, अपरिचित कब था वो।

परिचित सदियों से वो, अपरिचित मुझको  कब था वो!

Wednesday 27 April 2016

वो बेपरवाह

वो बेपरवाह,
सासों की लय जुड़ी है जिन संग,
गुजरती है उनकी यादें,
हर पल आती जाती इन सासों के संग।

वो बेपरवाह,
बस छूकर निकल जाते है वो,
हृदय की बेजार तारों को,
समझा है कब उसने हृदय की धड़कनो को।

वो बेपरवाह,
अपनी ही धुन मे रहता है बस वो,
परवाह नही तनिक भर उसको,
पर कहते है वो प्यार तुम्ही से है मुझको।

वो बेपरवाह,
हृदय की जर्जर तारो से खेले वो,
मन की अनसूनी कर दे वो,
भावनाओं के कोमल धागों को छेड़े वो।

वो बेपरवाह,
टूट टूट कर बिखरा है अब ये मन,
बेपरवाह वो कहता है धड़कन,
बंजारा सा फिरता अब व्याकुल बेचारा मन।

वो बेपरवाह,
झाक लेती गर हृदय के प्रस्तर में वो,
सुन लेती गर सासों की लय वो,
जीवन के लम्हों से लापरवाह ना होते वो।

वो बेपरवाह,
ललाट पर बिंदियों की चमकती कतारें होती,
सिन्दुरी मांग अबरख सी निखर उठती,
सुन्दर सी मोहक तस्वीर इस धड़कन में भी बसती।

Monday 25 April 2016

वो अंजान से

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

मेरे हृदय की बेमोल व्यथा कौन सुनता है यहाँ,
कितने ही अलबेले तरंग हरपल मन में पलते यहाँ,
मिथ्या सी लगती हैं सारी अनकही कहानियाँ,
कुछ इस तरह ही रही गुजरते लम्हों की मेरी दास्ताँ।

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

साँसो की वलय कितने ही इस पल को हैं मिले,
कितने ही सपनों ने आँखों में छुपकर ही दम तोड़े,
जज्बातें हरपल पिसती रही इस मन के भीतर,
कुछ इस तरह रही जिन्दगी के लम्हों की पूरी कारवाँ।

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

अब मैं हूँ और संग मेरे कठोर हो चुका मेरा हृदय,
अनकही कहानियाें की टूटी दीवारे बिखरी हुई हैं यहाँ,
लम्हा-लम्हा गुजरे वक्त का बिखरा सूना सा यहाँ,
कुछ इस तरह रही अनसुनी हृदय की अधूरी कहानियाँ।

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

Thursday 21 April 2016

मन में प्रतीक्षा के ये पल

साँसे लेती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

सुन ओ मीत मेरी,
प्रतीक्षा की उन्मादित पल के,
गीत वही फिर गाता है मन,
तेरी कल्पित मधुर प्रतीक्षा के।

गीत गाती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

सिहरन बिजुरी सी,
कैसी प्रतीक्षा की इस क्षण में,
ये राग बज रहे विषम,
आस-निराश की उलझन में।

सुलगती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

प्रतीक्षा की ये घड़ियाँ,
होते मादक मिलन के पल से,
तरंग पल-पल उठते,
सिहरित आशा की आँगन में।

तरंगित होती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

ओ मेरे प्रतीक्षित मीत,
प्रतीक्षा की पल को तु कर दे विस्तृत,
धुन वही एक तेरी होती रहें तरंगित,
पलकें बिछ जाएँ बस इक तेरी आशा में।

साँसे लेती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!