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Saturday 29 May 2021

तन्हा राहें

कौतुहल वश!
देखा, जो मुड़ के बस!
पाया, कितनी तन्हा थी, वो राहें,
जिन पर,
हम चलते आए!
सदियों छूट चले थे पीछे,
कौन, उन्हें पूछे!

पुकारती, वो राहें,
शायद, कुछ आशाएं, छूटी थी पीछे,
कुछ मेरे, कल के संबल,
कुछ, भावनाओं के, सूखे कँवल,
टूटे से, कुछ सपने,
कुछ आहें!

कल के, सारे पल,
कल तक, कितने झंकृत थे, हर पल,
चुप हो, बिखरे राहों पर,
सम्हाले कौन! कौन उन्हें बहलाए!
वो तो, इक बेजुबां,
रीता जाए!

निशांत, हो चले वो,
पर, अशान्त मन में, अब भी पले वो,
जाने, बांधे, किन घेरों में,
खींचे, रह-रह, भूले से उन डेरों में,
भूल-भुलैय्या सी, वो,
तन्हा राहें!

कौतुहल वश!
देखा, जो मुड़ के बस!
पाया, कितनी तन्हा थी, वो राहें,
जिन पर,
हम चलते आए!
सदियों छूट चले थे पीछे,
कौन, उन्हें पूछे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 8 May 2021

पाठक व्यथा-कथा

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

यूँ लिखते हो, तो दर्द बिखर सा जाता है,
ये टीस, जहर सा, असर कर जाता है,
ठहर सा जाता है, ये वक्त वहीं!
यूँ ना बांधो, ना जकड़ो, उस पल में मुझको,
इन लम्हों में, जीने दो अब मुझको!

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

करुण कथा, व्यथा की, यूँ, गढ़ जाते हो,
कोई दर्द, किसी के सर मढ़ जाते हो,
यूँ खत्म हुई कब, करुण कथा!
राहत के, कुछ पल, दे दो, आहत मन को,
जीवंत जरा, रहने दो अब मुझको!

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

यूँ, करूँ क्या, लेकर तुम्हारी ये संवेदना!
क्यूँ जगाऊँ, सोई सी अपनी चेतना!
कहाँ सह पाऊँगा, मैं ये वेदना!
अपनी ही संवेदनाओं में, बहने दो मुझको,
आहत यूँ ना, रहने दो अब मुझको!

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 20 April 2021

तृष्णा

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

मानव की खातिर, कितना मुश्किल है खोना,
अपूरित ख़्वाहिशों का, जग उठना,
उस अनदेखे की, ख्वाहिशों संग सोना,
उनको भी, मन चाहे पा लेना,
निर्णय-अनिर्णय के, उन दोराहों पर, 
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

मन, पाए ना राहत, जग जाए जब ये चाहत,
अन्जाने ही, मन होता जाए आहत,
भ्रम की इक, किश्ती में, वो ढूंढे राहत,
जाने, पर स्वीकारे ना ये सत्य,
चाहत के, उस अनिर्णीत दोराहों पर, 
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

खो दे कुछ भी, उन अनिश्चितताओं के बदले,
पाना चाहे, उन इच्छाओं को पहले,
भले ही इच्छाओं को, इच्छाएं ही डस ले,
कैसी आशा, कैसा यह स्वप्न,
अंधियारे से, इक विस्तृत दोराहों पर,
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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इच्छा
1. कामना, चाह, ख्वाहिश; 2. रुचि।

इक्षा
1. नज़र; दृष्टि 2. देखने की क्रिया; दर्शन 3. विचारना; विवेचन करना; पर्यालोचन।

Tuesday 13 April 2021

गैर लगे मन

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

गैर लगे, अपना ही मन,
हारे, हर क्षण,
बिसारे, राह निहारे,
करे क्या!
देखे, रुक-रुक वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

तन्हा पल, काटे न कटे,
जागे, नैन थके,
भटके, रैन गुजारे,
करे क्या!
ताके, तेरा पथ वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

इक बेचारा, तन्हा तारा,
गगन से, हारा,
पराया, जग सारा,
करे क्या! 
जागे, गुम-सुम वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

संग-संग, तुम होते गर,
तन्हा ये अंबर,
रचा लेते, स्वयंवर,
करे क्या!
हारे, खुद से वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!


- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 4 April 2021

सपना न रहे

जरा, इस मन को, सम्हालूँ,
न जाओ, ठहर जाओ, यहीं क्षण भर!

कुछ और नहीं, बस, इक अनकही,
मन में ही कहीं, बाँकी सी रही,
किसी क्षण, कह डालूँ,
दो पहर, ठहर जाओ, यहीं क्षण भर!

कैसे कहते हैं, भला, मन की बातें,
पहले मन को, जरा समझाते,
यूँ ही, न बिखर जाऊँ, 
बतलाओ, रुक जाओ, यहीं क्षण भर!

सपना ना रहे, ये सपनों का शहर,
टूटे न कहीं, शीशे का ये घर,
ठहर जरा, कह डालूँ,
न जाओ, रुक जाओ, यहीं क्षण भर!

इक मूरत, अधूरी, जरा अब तक,
होगी पूरी, भला, कब तक,
आ रंगों में, इसे ढ़ालूँ,
पल दो पल, आओ, यहीं क्षण भर!

जरा, इस मन को, सम्हालूँ,
दो पहर, ठहर जाओ, यहीं क्षण भर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 22 March 2021

हक है तुम्हें

क्यूँ कोई झाँके, किसी के सूनेपन तक!
बेवजह दे, कोई क्यूँ दस्तक!

महज, मिटाने को, अपनी उत्सुकता,
जगाने को, मेरी सोई सी उत्कंठा,
देने को, महज, एक दस्तक,
तुम ही आए होगे, मेरे दर तक!

महज झांकने, सूनेपन तक....

वही पहचानी सी, आहट,
हल्की सी, पवन की सुग-बुगाहट,
सूखे पत्तों की, सर-सराहट,
काफी थे, कहने को!
तुम जो कहते,
वो, कह आए थे, चुपके से मुझको,
मन की बातें, इस मन तक!

देने को, महज एक दस्तक.....

अन्जान थे, हमेशा तुम,
सोया ही कब, उत्सुक ये मेरा मन,
हर पल, धारे इक उत्कंठा,
कहने भर, चुप जरा,
पर ओ बेखबर,
तीर पर, उठती ये पल-पल लहर,
सिमटती है, मेरे दर तक!

गूंजती है, दरो-दीवार तक......

हक है तुम्हें, तुम मिटाओ उत्सुकता,
न जगाओ मगर, यूँ मेरी उत्कंठा,
यूँ न दो, महज एक दस्तक,
ठहर जाओ, जरा मेरे दर तक!

या यूँ न झाँको, किसी के सूनेपन तक!
बेवजह दो न तुम यूँ दस्तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 21 March 2021

बैरागी

यूँ गीत न गा, ऐ बैरागी,
ठहर जरा!

चुभते हैं, ये छंद तेरे,
ज्यूँ शब्दों के, हैं तीर चले,
ना ये, बाण चला,
ठहर जरा!

तुम हो, इक बैरागी,
क्या जानो, ये पीड़ पराई,
ना ये, पीड़ बढ़ा,
ठहर जरा!

है वश में, मन तेरा,
विवश बड़ा, ये मन मेरा,
ना ये, राग सुना,
ठहर जरा!

तू क्यूँ, नमक भरे,
हरे भरे, हैं ये जख्म मेरे,
यूँ ना, दर्द जगा,
ठहर जरा!

बैरागी, क्या जाने,
जो गम से खुद अंजाने,
झूठा, बैराग तेरा,
ठहर जरा!

मुँह, फेर चले हो,
सारे सच, भूल चले हो,
सत्य, यह कड़वा,
ठहर जरा!

तुम मन, तोड़ गए,
रिश्तो के घन छोड़ गए,
ना ये, पीड़ बढ़ा,
ठहर जरा!

यूँ साध न मतलब,
कब से रूठा, मेरा रब,
यूँ न, आस जगा,
ठहर जरा!

यूँ गीत न गा, ऐ बैरागी,
ठहर जरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 11 March 2021

जो गुजर गए

यह आघात, सह भी जाऊँ, 
यह दरिया दु:ख का, तर भी जाऊँ, 
उनको, वापस कैसे पाऊँ?
जो गुजर गए!

अन्त नहीं, इस लंबित वेदना का,
इस कुंठित चेतना का,
आसान नहीं, अपनों को खो देना,
है कठिन बड़ा, बिसार देना,
मन से उतार देना,
वो आभा मंडल, हो कैसे ओझल?
ठहरा सा, ये दृष्टि-पटल,
किधर भटकाऊँ!
वापस, उन्हें कहाँ से लाऊं?
जो गुजर गए!

छलके रुक जाए, वो नीर नहीं,
मंद पड़े, वो पीड़ नहीं,
आहत हो मन, अपनों को खोकर,
तो, नैन थके कब, रो-रो कर!
छलके, फफक परे,
उन यादों की, गलियारों में खोकर,
नैन तके, वो सूनी राहें,
वो ही पदचाप!
फिर वापस, कहाँ से लाऊं?
जो गुजर गए!

आघात नहीं, यह इक वज्रपात,
साथ नहीं, चलती रात,
वो अपने पथ, आहत मैं अपने पथ,
दुःख दोनों ही का, इक जैसा!
कौन किसे बहलाए,
दूर गुमसुम, चुप-चाप गुजरती रात,
जागे ये नैन, सारी रात,
किस्से सी बात!
अब, वापस, कहाँ से लाऊं?
जो गुजर गए!

यह आघात, सह भी जाऊँ, 
यह दरिया दु:ख का, तर भी जाऊँ, 
उनको, वापस कैसे पाऊँ?
जो गुजर गए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 4 March 2021

ठहर ऐ मन

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

यूँ, न जा, दर-बदर,
पहर दोपहर, यूँ सपनों के घर,
जिद् ना कर,
तू ठहर,
मेरे आंगण यहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

इक काँच का बना,
आहटों पर, टूटती हर कल्पना,
घड़ी दो घड़ी, 
आ इधर,
चैन पाएगा यहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

वो तो, एक सागर,
सम्हल, तू ना भर पाएगा गागर,
नन्हा सा तू,
डूब कर,
रह जाएगा वहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

कब बसा, ये शहर,
देख, टूटा ये कल्पनाओं का घर,
टूटा वो पल,
रख कर,
कुछ पाएगा नहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

क्यूँ करे तू कल्पना, 
कहाँ, ये कब हो सका है अपना,
बन्जारा सा,
बन कर,
बस फिरेगा वहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 19 February 2021

याचक तेरा

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

किसी सुन्दरता का, बन पाता श्रृंगार,
किसी गले का, बन पाता हार,
पर, आकर्षण इतना भी नहीं मुझमें, 
सुंदर इतना भी, नहीं मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

कौन पूछता, बेजान पड़े पत्थरों को,
सदियों से, उजड़े हुए घरों को,
जीवन्त कोई, उपसंहार नहीं जिसमे,
कुछ-कुछ, ऐसा ही मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

मैं तो, दूर पड़ा था, एकान्त बड़ा था,
इस मन में, व्यवधान जरा था,
कौन यहाँ, जो संग मेरे पथ पर चले,
इस लायक भी नही मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

है इस उर में क्या, समझे कौन यहाँ,
नादां सा मन, ऐसा और कहाँ!
पर, विराना सा, जैसे हो इक वादी,
वैसा ही, फरियादी मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

एहसान बड़ा, जो, आ बसे मुझ में, 
स्वर लहरी बन, गा रहे उर में,
अपलक, सुनता हूँ अनसुना गीत,
बन कर, इक राही मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

श्रृंगार बन सका तेरा, उद्गार ले लो,
इन साँसों का, उपहार ले लो,
इक निर्धन, और दे पाऊँ भी क्या,
याचक हूँ, तेरा ही मैं!

एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 17 February 2021

कैसा भँवर

जाने क्यूँ? बह पड़े हैं, सारे भाव!
अन्तः, जाने कैसा है भँवर!
पीड़ असहज, दे रहे हृदय के घाव!
ज्यूँ फूट पड़े हैं छाले!

पर, अब तक, बड़ा सहज था मैं!
या, कुछ ना-समझ था मैं?
शायद, अंजाना सा, यह प्रतिश्राव,
आ लिपटा है मुझसे!

शायद, जाग रही, सोई संवेदना,
या, चैतन्य हो चली चेतना!
या, हृदय चाहता, कोई एक पड़ाव,
आहत होने से पहले!

जाने क्यूँ, अनमनस्क से हैं भाव!
अन्तः, उठ रहा कैसा ज्वर!
कंपित सा हृदय, पल्पित सा घाव!
ज्यूँ छलक रहे प्याले!

भँवर या प्रतिश्राव, तीव्र ये बहाव,
समेट लूँ, सारे बहते भाव!
रोक लूँ, ले चलूँ, ऊँचे किनारों पर,
बिखर जाने से पहले!

जरा, समेट लूँ, यह आत्म-चेतना,
फिर कर पाऊंगा विवेचना!
व्याकुल कर जाएगा, ये प्रतिश्राव,
संभल जाने से पहले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 26 January 2021

मन कह न पाए अलविदा

जीवन के क्षणों में,
जीवन, बस रहा, कहीं उन निर्जनों में!

कभी हो जाए, कोई विदा,
फिर भी, मन कह न पाए, अलविदा!
शायद, यही इक सुख-सार,
है यही, संसार,
धागे जोड़ ले मन, 
दुरूह, विदाई के क्षणों में ....

भटके ये मन, बंधे, कहीं उन निर्जनों में!

मन से परे, मन के अवयव,
मन सुने, उस अनसुने, गीतों की रव!
कंप-कंपाते, मन की पुकार,
मन की, गुहार,
दूर, कैसे रहे मन,
कंपित, जुदाई के क्षणों में .....

भटके ये मन, बंधे, कहीं उन निर्जनों में!

ढ़ूँढ़े वहाँ मन अपना साया,
विकल्प सारे, वो, जहाँ छोड़ आया!
क्षीण कैसे, हो जाए मल्हार,
नैनों के, फुहार,
कैसे संभले ये मन,
निष्ठुर, रिहाई के क्षणों में .....

जीवन के क्षणों में,
जीवन, बस रहा, कहीं उन निर्जनों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 1 January 2021

नव-परिचय

हाथ गहे, अब सोचे क्या! ओ अपरिचित!
माना, अपरिचित हैं हम-तुम,
पर, ये कब तक?
कुछ पल, या कि सदियों तक!

देखो ना, तुम आए जब, द्वार खुले थे सब!
सब्र के बांध, टूट चुके थे तब,
अ-परिचय कैसा?
नाहक में, ये संशय कब तक?

आओ बैठो, शंकित मन को, धीर जरा दो!
दुविधाओं को, तीर जरा दो,
आस जरा ले लो!
संशय में, पीड़ पले कब तक?

अब सोचे क्या, नव-परिचय की यह बेला?
दो हाथों की, इक गाँठ बना,
इक विश्वास जगा,
ये सांस चले, संग सदियों तक!

हर्ष रहे, नव-वर्ष मनें, परिचय की गाँठ बंधे,
चैन धरे, रहे फिर हाथ गहे,
कोई नवताल सुनें,
कुछ पल क्या? सदियों तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 12 December 2020

पलों के यूकेलिप्टस

नहीं, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!

हाँ, बीत जाते हैं जो, साथ होते नहीं,
पर वो पल, बीत पाते हैं कहाँ!
सजर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
पलों के, विशाल यूकेलिप्टस!
लपेटे, सूखे से छाले,
फटे पुराने!

नया, कुछ भी नहीं....

बीत जाते हैं युग, वक्त बीतता नहीं,
कुछ, वक्त के परे, रीतता नहीं!
अकेले ही भीगता, पलों का यूकेलिप्टस,
कहीं शून्य में, सर को उठाए!
लपेटे, भीगे से छाले,
फटे पुराने!

नया, कुछ भी नहीं....

हाँ, पुराने वो पल, पुरानी सी बातें,
गुजरे से कल, रुहानी वो रातें!
उभर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
लह-लहाते, वो यूकेलिप्टस!
लपेटे, रूखे से छाले,
फटे पुराने!

और, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 5 December 2020

धुआँ

ऐ दिल, अब भूल जा,
पतझड़ों में, फूल की, कर न तू कल्पना!
सच है वो, जो सामने है,
और है क्या?

चलो, मैं मान भी लूँ!
अल्पना बनती नहीं, कल्पनाओं के बिना,
है रंग वो, जो सामने है,
और है क्या?

मान, इक सपना उसे!
इस भ्रम में, यथार्थ की, कर न तू कल्पना,
रेत है वो, जो सामने है,
और है क्या?

दिल नें, माना ही कब,
बस रेत पर, लिखता रहा, वो इक तराना,
गीत वो है, जो सामने है,
और है क्या?

ऐ दिल, अब भूल जा,
बादलों में, इक घर की, कर न तू कल्पना,
धुआँ है वो, जो सामने है,
और है क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 29 November 2020

अतीत-मेरा सरमाया

गर हो पाता!
तो, मुड़ जाता, मैं, अतीत की ओर,
और, व्यतीत करता,
कुछ पल,
चुन लाता, कुछ, बिखरे मोती!

मेरा सरमाया!
वो छूटा कल, जो मैं, चुन ना पाया,
मुझसे ही, रूठा पल,
टूटा पल,
समेट लाता, सारे, हीरे मोती!

हो ना पाया!
खोया अतीत, तुझे मैं, छू ना पाया,
पर तुझमें है, मेरा अंश,
मेरा कल,
जलाए, जो, मन की ज्योति!

वर्तमान ये मेरा!
चाहे, अनुभव का, इक संबल तेरा,
मद्धिम, प्रदीर्घ सवेरा,
दुग्ध कल,
और, अंधेरो में, इक ज्योति!

चल उड़ जा!
ओ मन के पंछी, जा, दूर वहीं जा,
अतीत, जहाँ है मेरा,
बीते पल,
चुग ला, बिखरे, वे मेरे मोती!

गर हो पाता!
तो, मुड़ जाता, मैं, अतीत की ओर,
और, व्यतीत करता,
कुछ पल,
चुन लाता, सारे, बिखरे मोती!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 22 November 2020

खाली कोना

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

तेरा ही मन है, 
लेकिन!
बेमतलब, मत जाना मन के उस कोने,
यदा-कदा, सुधि भी, ना लेना,
दबी सी, आह पड़ी होगी,
बरस पड़ेगी!
दर्द, तुझे ही होगा,
चाहो तो,
पहले,
टटोह लेना,
उजड़ा सा, तिनका-तिनका!

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

तेरा ही दर्पण है, 
लेकिन!
टूटा है किस कोने, जाना ही कब तूने,
मुख, भूले से, निहार ना लेना!
बिंब, कोई टूटी सी होगी,
डरा जाएगी!
पछतावा सा होगा,
चाहो तो,
पहले, 
समेट लेना,
बिखरा सा, टुकड़ा-टुकड़ा!

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

सुनसान पड़ा ये, 
लेकिन!
विस्मित तेरे पल को, संजोया है उसने,
संज्ञान, कभी, उस पल की लेना!
गहराई सी, वीरानी तो होगी,
चीख पड़ेगी!
पर, एहसास जगेगा,
चाहो तो,
पहले, 
संभाल लेना,
सिमटा सा, मनका-मनका!

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 19 November 2020

कैद

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

भटकोगे, अन्तर्मन के इस सूने वन में, 
कल्पनाओं के दारुण प्रांगण में,
क्या रह पाओगे?

पहले तो, बनती थी, इक परछाईं सी,
कभी, पल-भर में गुम होते थे!
कभी तुम होते थे!

तेरे ही सपने, पलते थे उड़ते-उड़ते से,
पर, डरता था, कुछ कहने से,
उड़ते सपनों से!

कैद हो चली, तेरे ही यादों की परछाईं,
लेकिन, आँखें हैं अब धुंधलाई,
जा पाओगे कैसे!

रोकेंगी तुझको, तेरी यादों के अवशेष,
नैनों का, धुंधलाता ये परिवेश,
जा ना पाओगे!

इन्हीं अवशेषों के मध्य, बजती हुई दूर,
गुनगुनाती सी, होगी इक धुन,
वही, शेष हूँ मैं!

गाते कुछ पल होंगे, बीते वो कल होंगे,
शायद, एकाकी ना पल होंगे,
रुक ही जाओगे!

या भटकोगे, अन्तर्मन के सूने से वन में, 
यातनाओं के, दारुण प्रांगण में,
कैसे रह पाओगे?

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 4 November 2020

पूछे कोई

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

निशा थी, गुम हर दिशा थी,
कहीं बादलों में, छुपी कहकशाँ थी,
न कोई कारवाँ, न कोई निशां,
कोई स्याह रातों से पूछे,
वो गुजरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

घुलती हुई, पिघलती फिजां,
फिसलन लिए, भीगी थी राहें वहाँ,
आसां न था, खुद को बचाना,
कोई सर्द आहों से पूछे,
वो कहरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

हलचल सी, रहती प्रतिपल,
वो बेचैन, कहीं ठहरता न इक पल,
ना ठौर कोई, ना ही ठिकाना,
कोई उन ख्यालों से पूछे,
वो ठहरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 24 October 2020

एक टुकड़ा मन

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

घर से, निकला ही क्यूँ, बेवजह मैं?
न था आसान, इतना, कि आँखें मूंद लेता,
मन के, टुकड़ों को, कैसे रोक लेता!
समझा न पाया, मैं उनको,
आसान न था, समेट लेना, मन के टुकड़ों को!

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

मशगूल था, खुद में ही, था भला मैं!
यूँ, किसी की, हूक सुनकर, चल पड़ा था,
विह्वल सा हुआ था, एक टुकड़ा मन,
पिरोकर हूक, में खुद को,
मुश्किल था बड़ा, समेट लेना, शेष टुकड़ों को!

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

बस, होश है बाकी, शेष हूँ कहाँ मैं!
बेदखल, पराए गमों से, रह सका कहाँ मैं, 
भिगोते ही रहे सदा, आँसूओं के घन,
बहला न पाया, मैं मन को,
बिखर कर, टूटना ही था, मन के टुकड़ों को!

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
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