Wednesday, 24 February 2016

वजूद आपका

शायद! इक ख्वाब बन के रहते हो तुम मुझमें ही कहीं।

तुम मुझमें ही खिलती हो इक फूल बनकर कहीं,
वजूद तेरा कहीं और है मुझको पता नहीं,
साया मेरा दिखने लगा है कुछ आप सा ही।

शायद! वो वजूद है आपका जो ढ़ल रहा मुझमें ही कहीं।

तेरा अक्श अब्र सा पिघल रहा मुझमें ही कहीं,
हर शैं खुशबु-ए-हिजाब मे डूबी है आपके ही,
रंगत मेरी दिखने लगी है कुछ आप सी ही।

शायद! आपकी खुश्बू गुजर रही है मुझमें ही कहीं।

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