Sunday, 14 December 2025

पूर्वज

वो, आसमां पे रब हुए.....

करुण स्वर, जिनके, कर जाते थे सहज,
पूर्वज मेरे, जिनके, हम हैं वंशज,
वो, आसमां पे रब हुए, दूर कब हुए!

वो, आसमां पे रब हुए.....

देकर आशीर्वचन, चल पड़े वो इक डगर,
दिया जन्म जिसने, अब वो ही नहीं इस घर,
तस्वीर, उनकी, बस रह गयी, इस नजर,
गूंजते, अब भी उनके मधुर स्वर,
ओझल नैन से वो, पर, दूर कब हुए!

वो, आसमां पे रब हुए.....

मन की क्षितिज पर, रमते अब भी वही,
छलक उठते, ये नयन, जब भी बढ़ती नमी,
यूं तो, घेरे लोग कितने, पर है इक कमी,
संग, उनकी दुवाओं का, असर,
वो हैं, इक नूर शब के, दूर कब हुए!

वो, आसमां पे रब हुए.....

उनके एहसान का, चुकाऊं उधार कैसे,
दी जो विरासत, उनका, रख लूं मान कैसे,
यूं ही होने दूं, पूर्वजों का अपमान कैसे,
ये कर्ज, हम पर, युग-युगांतर,
सर्वथा, इस ऋण से उबार कब हुए!

वो, आसमां पे रब हुए.....

उन पूर्वजों को, हम, करते नित नमन,
तस्वीर वो ही, बसती मेरे मन,
वो, आसमां पे रब हुए, दूर कब हुए!

वो, आसमां पे रब हुए.....

Sunday, 7 December 2025

धुंधली लकीरें

तैरती नींद में, धुंधली सी, लकीरें,
फिर उभर आई, वही भूली सी तस्वीरें!

अधर उनके, फिर, छंद कई लिखती गई,
यूं कहीं, अधख़िली सी, चंद कली खिलती गई,
सिमट आए, ख्वाब सारे, बंद पलकों तले,
उभरती रहीं, नींद में, तैरती लकीरें!

शक्ल वो ही पहचानी, लेती रही आकार,
यूं, बंद पलकों तले, धुंधले से, स्वप्न थे साकार,
फिर, धागे वो ही, मोह के स्वतः बंध चले,
ले चली किधर, उभरती वो तस्वीरें!

घिरा अंकपाश में, न कोई आस-पास में,
जड़वत देखता रहा, मैं उनको ही अंकपाश में,
गुजारी पल में सदियां, उस छांव के तले,
बहला गई, नींद में, उभरती लकीरें!

टूटा वो दिवास्वप्न, टूटे सब वो झूठे भ्रम,
ढ़ाए थे नींद ने, दिल पे, बरबस, सैकड़ों सितम,
ख्वाब सारे, बिखर गए, इन पलकों तले,
उभर कर, बिखर गई, तैरती लकीरें!

शुक्रिया करम, नींद के ओ मीठे से भ्रम, 
वहम ही सही, पल भर, जीवन्त कर गए तुम,
ग़म से कोसों दूर, हम कहीं, संग थे चले, 
छल गई भले, धुंधली सी वो लकीरें!

खुली आंख, बहती स्वप्न की नदी कहां!
ग़म से बोझिल पल बिना, बीतती सदी कहां!
पड़ जाती यहां, दिन में, छाले पावों तले,
गर्म सी रेत पर, बनती कहां लकीरें! 

तैरती नींद में, धुंधली सी, लकीरें,
उभर आई फिर, वही भूली सी तस्वीरें!

Friday, 28 November 2025

बिछड़ी पात

भीगे से पल में......, 
बिछड़ चली, इक डाली से पात,
निर्मम, कैसी ये बरसात!

प्रलय ले आई, छम-छम करती बूंदें,
गीत, कर उठे थे नाद,
डाली से, अधूरी थी हर संवाद,
बस, बह चली वो पात!

भीगे से पल में......, 
बिछड़ चली, इक डाली से पात,
निर्मम, कैसी ये बरसात!

मौसम ने दी थी, फीकी सी सौगात,
ठंड पड़े, सारे जज्बात,
छूटी पीछे, रिश्तों की गर्माहट,
करती भी क्या, वो पात!

भीगे से पल में......, 
बिछड़ चली, इक डाली से पात,
निर्मम, कैसी ये बरसात!

हंसते वो मौसम, ले आए कैसे ग़म,
सर्वथा, खाली थे दामन,
यूं सर्वदा के लिए, टूटा था मन,
बेरंग, कर गई बरसात!

भीगे से पल में......, 
बिछड़ चली, इक डाली से पात,
निर्मम, कैसी ये बरसात!

यूं हंसी किसी की, बन जाए अट्टहास,
आस ही, कर दे निराश,
सर्वथा, अपना भी ना हो पास,
पल दिन के, लगे रात!

भीगे से पल में......, 
बिछड़ चली, इक डाली से पात,
निर्मम, कैसी ये बरसात!

मौसम तो भर ही जाएंगे, डाली के ग़म,
वृष्टि ही, लगाएगी मरहम,
समाहित, कर जाएगी हर ग़म
इसी सृष्टि में, हर बात!

भीगे से पल में......, 
बिछड़ चली, इक डाली से पात,
निर्मम, कैसी ये बरसात!

दास्तां, इक पल की, बन चला पात,
रहा, भीतर एक उन्माद,
इक सफर अधूरी, डाली से दूरी,
पिघलती, इक जज़्बात!

भीगे से पल में......, 
बिछड़ चली, इक डाली से पात,
निर्मम, कैसी ये बरसात!

Tuesday, 25 November 2025

32 वर्ष

हां, समाहित हो तुम, यूं मुझमें ही वर्षों....

वर्षों, सम्मोहित करते रहे, तेरे बुने सरसों,
प्रफुल्लित करते रहे, मुझे, उन फूलों सा स्पर्श, 
आकर्षित करते रहे, सरसों सा फर्श,
यूं, कटे संग-संग 32 वर्ष,
ज्यूं, संग चले, तुम कल परसों!

हां, समाहित हो तुम, यूं मुझमें ही वर्षों....

कुछ है कारण, बादल बन आए ये सावन,
रंगों का सम्मोहन, भीगे मौसम के आकर्षण,
खिलते, अगहन में पीले-पीले सरसों,
भीगे, फागुन की आहट,
चाहत के, ये अनगिन रंग वर्षों!

हां, समाहित हो तुम, यूं मुझमें ही वर्षों....

यूं इन रेखाओं में, मुकम्मल सी तुम हो,
जितना पाया, शायद, अब तक वो कम हो!
शेष बचा जो, वो हर पल हो विशेष,
चल, बुनें फिर से सरसों, 
संग, उसी राह, चले फिर वर्षो!

हां, समाहित हो तुम, यूं मुझमें ही वर्षों....


Celebrating 32nd years of togetherness at Chennai on 24.11.2025

Wednesday, 19 November 2025

ऊंघते पल

ऊंघ रहे ओ पल, चल, दूर कहीं ले चल....

मूंद रहा मैं पलकें, नैनों में सागर सा छलके,
शिथिल पड़ा तन, पर मन क्यूं बहके,
भटकाए उन राहों पर, पल-पल रह-रह के,
नींद, करे अपनी ही बात,
उलझन सा हर पल!

ऊंघ रहे ओ पल, चल, दूर कहीं ले चल....

अनहद सपनों के पार, जहां, डूबा हो हर शै,
शायद छंट जाए, उन लम्हों में संशय,
इस जीवन को मिल जाए, जीने का आशय,
यहां, अधूरी सी हर बात,
अनबुझ सा हर पल!

ऊंघ रहे ओ पल, चल, दूर कहीं ले चल....

मुमकिन है, खिल जाए कुम्हलाई ये कलियां,
उन राहों मिल जाएं, उनकी भी गालियां,
शायद हो जाए, उनसे, चंद मिश्री सी बतियां,
यहां, फीकी सी हर बात,
व्याकुल सा हर पल!

ऊंघ रहे ओ पल, चल, दूर कहीं ले चल....

Monday, 20 October 2025

रौशनी

अंधेरी हैं गलियां, इक दीप तो जलाओ,
यूं गगन पर, टिमटिमाते ओ सितारे, 
जरा, रौशनी ले आओ!

प्रदीप्त हो जलो, बस यूं न टिमटिमाओ,
अवरोध ढ़ले, किरण चहुं ओर जले,
जरा, बांहे तो फैलाओ! 

तू करे इंतजार क्यूं, और कोई बात क्यूं,
डर के यूं, क्यूं जले, चुप, यूं क्यूं रहे,
बस यूं ना टिमटिमाओ!

न होते तुम अगर, ना जगती उम्मीद ये,
रहता जहां पड़ा, यूं ही अंधकार में,
विश्वास, यूं भर जाओ!

विलख रहा जो मन, तू उनको आस दो,
मन के अंधकार को, यूं प्रकाश दो,
इक विहान, बन आओ!

पुकारती हैं राहें, इक दीप तो जलाओ,
यूं गगन के, टिमटिमाते से सितारे, 
जरा, रौशनी ले आओ!

Sunday, 19 October 2025

राह दिखाए रब

आश लिए कितने, गिनता अपनी ही आहें,
घिरा किन विरोधाभासों में, जाने मन क्या चाहे,
कभी उमड़ते, जज्बातों के बादल,
कभी, सूना सा आंचल!

बंधकर, कितनी बातों में, बंधती है आशा,
पलकर, कितनी आशों में, टूटी कितनी आशा,
कभी बुझ जाती, हर इक प्यास,
कभी, रह जाता प्यासा!

उस पल रह जाता, बस इक विरोधाभास,
उसी इक पल, जग जाता, जाने कैसा विश्वास,
कभी, दुविधाओं भरा वो आंगन,
कभी, पुलक आलिंगन!

उम्मीदें ले आती, आवारा मंडराते बादल,
दिलासा दे जाते, सहलाते हवाओं के आंचल,
क्षण भर को, जग उठती उम्मीदें,
फिर, छूटी, सारी उम्मीदें!

बंधा जीवन, मध्य इन्हीं विरोधाभासों में,
कटता हर क्षण, यूं उपलाते इन एहसासों में,
अकस्मात, कोरे पन्नों से जज्बात,
कह उठते, मन की बात!

दोनों ही तीर, उमड़े, जज्बातों के भीड़,
कभी छलक उठते ये पैमाने, बह उठते नीर,
ढ़ाढस, इस मन को, कौन दे अब,
राह दिखाए, वो ही रब!

Wednesday, 1 October 2025

अनुरूप

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं, 
और, गीत वही दोहराऊं!

इक मैं ही हूं, जब तेरी हर आशाओं में,
मूरत मेरी ही सजती, जब, तेरे मन की गांवों में,
भिन्न भला, तुझसे कैसे रह पाऊं,
क्यूं और कहीं, ठाव बसाऊं!

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं...

सपने, जो तुम बुनती हो मुझको लेकर,
रंग नए नित भरती हो, इस मन की चौखट पर,
हृदय, उस धड़कन की बन जाऊं,
कहीं दूर भला, कैसे रह पाऊं!

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं...

बहती, छल-छल, तेरे नैनों की, सरिता,
गढ़ती, पल-पल, छलकी सी अनबुझ कविता,
यूं कल-कल, सरिता में बह जाऊं,
कविता, नित वो ही दोहराऊं!

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं...

मुझ बिन, अधूरी सी, है तेरी हर बात, 
अधूरी सी, हर तस्वीर, अधूरे, तेरे हर जज्बात,
संग कहीं, जज्बातों में, बह जाऊं,
संग उन तस्वीरों में ढल जाऊं!

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं...
और, गीत वही दोहराऊं!

Thursday, 25 September 2025

व्यतीत

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

व्यतीत, हुआ जाता हूं, पल-पल,
अतीत, हुआ जाता हूं,
फलक पर, उगता था, तारों सा रातों में,
कल तक था, सबकी आंखों में,
अब, प्रतीत हुआ जाता हूं! 

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

कल, ये परछाईं भी संग छोड़ेगी,
हर पहलू मुंह मोड़ेगी,
सायों सा संग था, खनकता वो कल था,
सर्दीली राहों में, वो संबल था,
अब, प्रशीत हुआ जाता हूं!

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

जाते लम्हे, फिर लौट ना आयेंगे,
कैसे अतीत लौटाएंगे,
लम्हे जो जीवंत थे, लगते वो अनन्त थे,
अंत वहीं, वो उस पल का था,
इक गीत सा ढ़ला जाता हूं!

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

छिन जाएंगे, शेष बचे ये पहचान,
होगी शक्ल ये अंजान,
आ घेरेंगी शिकन, शख्त हो चलेंगे पहरे,
कल तक, धड़कन में कंपन था,
अब, प्रतीक बना जाता हूं!

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

क्षण, ज्यूं क्षणभंगुर, हुआ व्यतीत,
क्षण यूं ही बना अतीत,
फलक पर, वो तारा ही कल ओझल हो,
ये आंखें सबकी भी बोझिल हों,
यूंही, प्रतीत हुआ जाता हूं! 

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

Sunday, 21 September 2025

अचानक

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए!

धुआं, खुद ही छट जाएगा,
हट जायेगा, धुंध, 
रख कर, खुद को अलग,
इस आग को, होने दीजिए, स्वतः सुलग,
फूटेगी इक रोशनी,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

स्वतः, जम जाते हैं कोहरे,
कोहरों का क्या?
उमड़ते रहते हैं ये बादल,
बूंदें स्वतः ही संघनित होती है हवाओं में,
सुलगेगी जब आग,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

धुंधली ना हो जाए यकीन, 
जरा दो भींगने,
विश्वास की सूखी जमीं,
बरसने दो बादलों को, हट जाने दो नमीं,
उभरने दो आकाश,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

कभी, मन को भी कुरेदिए,
ये परतें उकेरिए,
दबी मिलेंगी, कई चाहतें,
उभर ही उठेंगी, कोमल पलों की आहटें,
बज उठेगा संगीत,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

Monday, 8 September 2025

चुप जो हुए तुम

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

रही अधूरी ही, बातें कई,
पलकें खुली, गुजरी न रातें कई,
मन ही रही, मन की कही,
बुनकर, एक खामोशी,
छोड़ गए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

पंछी, करे क्या कलरव!
तन्हा, उन शब्दों को कौन दे रव!
ढ़ले अब, एकाकी ये शब,
चुनकर, रास्ते अलग,
गुम हुए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

शायद, मिल भी जाओ!
हैं जो बातें अधूरी, फिर सुनाओ!
फिर, ये चूड़ियाँ खनकाओ,
यहीं, रख कर जिन्हें,
भूल गए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

Saturday, 6 September 2025

शुक्रिया पाठकगण - 500000 + Pageview

500000 (+) पेज व्यू - शुक्रिया पाठकगण


माननीय पाठकगण,

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समस्त Referring साइट्स एवं विश्व भर के पाठकों का अभिवादन।।।।

कोटिशः धन्यवाद, नमन व आभार।

Thursday, 4 September 2025

आत्मश्लाघा

कर, स्मृतियों को, आत्म-साथ, 
मुग्ध होते थे, पल सारे,
कुंठित मन, अब इन विस्मृतियों से हारे,
हुई स्याह, वो, गलियां!

शायद, धूमिल हो रही स्मृतियाँ,
पसर गईं, स्याह परतें,
मुकर गई, स्मृतियों में लिपटी वो गलियां,
बिखर गई, विस्मृतियाँ!

खुल कर, बिखरे, बुने जो धागे,
नैन उनींदें, अब जागे,
बिखरती, आत्मश्लाघा में पिरोई लड़ियां,
पसरती, ये विस्मृतियाँ!

अब उलझाता, मन को, ये द्वंद्व,
बोझिल सा, हर छंद,
उकेर दूं स्याह परतें, उकेरूँ विस्मृतियाँ,
उकेर दूं, विसंगतियां!

शायद, पुनः, मुखर हो स्मृतियाँ,
आत्मश्लाघित दुनियां,
पुनः कर पाऊं, आत्म-साथ उन को ही,
पुनः रौशन हो गलियां!

Monday, 1 September 2025

अनवरत प्रवाह

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

है जीवन, तो है ये चंचलता,
शाश्वत है, जीवंतता,
खुद को ये बुनता,
स्वतः ही, उठता इक लहर सा,
स्वयं, प्रवाह बन चलता,
उफनती मझधार में,
ये ही संबल!

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

गुदगुदाती, बहती ये पवन,
यूं, रोक लेते कदम,
यूं, छू लेते बदन,
सरकती, यूं जमीं कदमों तले,
सोए, एहसासों को लगे,
ज्यूं, संग कोई चले,
और दे संबल!

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

बिन पूछे, उभर आते रंग,
खींच ले जाते, संग,
वो चटकते अंग,
लहराती, झूमती सी ये वादियां,
मुखर होती ये कलियां,
पंछियों के कलरव,
मीठे हलचल!

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

Wednesday, 27 August 2025

अब जो हुआ


अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

इन संवेदनाओं को अब, सहेजना होगा,
ढ़ाल कर, कहीं चेतनाओं में,
मूर्त कल्पनाओं में,
भरकर अल्पनाओं में, रखना होगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

पल जो हुए कल, रुलाएंगी वो ही कल,
जागते वो ही पल, होंगे मूर्त,
जगाएंगे, व्यर्थ में,
अब जो हैं ये पल, उन्हें सीना होगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

अब बिंब हो उठी हैं, समस्त असंवेदना,
सुसुप्त सी हो चली, चेतना,
सहेजे, कौन भला,
अब जो ढ़ल रहा, ये पल न रुकेगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

बिखेरेंगे न ये रंग, वेदनाओं के आंगन,
दोहराएंगे, न ये गीत कोई,
अनसुना, सब कहा,
लौट कर, फिर न अब दोहराएगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

Tuesday, 19 August 2025

शुक्र है...

शुक्र है, चलो, आए तो तुम!

यूं तो, लगता था,
तृण-विहीन सा है, तेरे एहसासों का वन,
बंजर सा मन,
लताएं, उग ही न पाते हों जिन पर,
जमीं ऐसी कोई!
पर, शुक्र है, उग तो आए एहसास,
इस राह में, 
इक बहार बन, छाए तो तुम!

शुक्र है, चलो, आए तो तुम!

यूं, बोल पड़ी, सदी,
जग उठी, दफ्न हो चली, कहानियां कई,
संघनित हो बूंदें, 
बिखर गईं, ठूंठ हो चली शाख पर,
झूमती पात पर,
बहक उठे, फिर वो सारे जज्बात,
इक एहसास,
या ख्याल बन, छाए तो तुम!

शुक्र है, चलो, आए तो तुम!

यूं दे गया, फिर कोई सदा,
ज्यूं अचानक ही मिला, मंजिलों का पता,
पुकारती, दो बाहें,
यूं, प्रशस्त कर गई, विलुप्त सी राहें,
उभरी, वही नदी,
समेट चली थी जो, सदियां कई,
इस धुंध में,
इक सदा बन, छाए तो तुम!

शुक्र है, चलो, आए तो तुम!

Thursday, 14 August 2025

ताना

कभी-कभी, खुल जाते वक्त के तहखाने...

यूं ही, छिड़ जाते, बिसरे कई तराने,
शिकायतें अनगिनत पलों के, अंतहीन से ताने,
कर भी ना पाऊं, अब उनको अनसुना,
समझ भी न पाऊं, क्यूं उसने बूना!

उधेड़-बुन इक, फिर, बुनता ये मन,
वक्त के, किस पहलू से, थी मेरी क्या अनबन!
छूआ ही कब, मैने, संवेदनाओं के तार,
बीते वो पल, हैं क्यूं इतने बेजार!

अनकही, रह गई मेरी ही अनसुनी,
शिकायतें, एकाकी से, इस मन की ही थी दूनी,
शब्दहीन ही रह गए थे, वो शिकवा सारे,
गवाह अब भी, वो गगन के तारे!

ठहरे कुछ पल, चुभ जाते कांटों से,
बनकर कुछ बूंदें, जब-तब, बह आते आंखों से,
चलता कब वश, जब करते वो बेवश,
खींच ले जाते, उसी ओर बरवस!

मन कब चाहे, फिर, उस ओर जाना,
कंपित-गुंजित पल में, जी कब चाहे, मर जाना,
ठहरा, इक दरिया सा, पर वो ही पल,
संग रहता, एक साया सा हरपल!

काश! दफन हो जाते, सारे अफसाने,
फिर कभी ना खुलते, वक्त के वो बंद तहखाने,
संतप्त रह पाती, सोई मेरी संवेदना,
उधेड़-बुन, न बुनती कोई वेदना!

कभी-कभी, खुल जाते वक्त के तहखाने...

Sunday, 10 August 2025

छल

क्षण भर जो भाया, उस क्षण ही मन जी पाया,
पाने को तो, जीवन भर कितना पाया,
शेष क्षण, बस सूना ही पाया!

गुंजन, कंपन, सिहरन, तड़पन भरा वो आंगन,
सुने क्षण में, विरह भरा वो आलिंगन, 
कितना कुछ, मन भर लाया!

ये दामन, कितना भरा-भरा, हर ओर हरा-हरा,
नैनों में, अब भी, सावन सा नीर भरा,
शायद, वो ही क्षण गहराया!

जो छलता ना वो क्षण, यूं पिघलता ना ये क्षण,
न जलता ये मन, न होता धुआं-धुआं,
न होता, एकाकी इक छाया!

आकुल ही रहा, व्याकुल भटकता ये आकाश,
लिए हल पल, अबुझ बूंदों की प्यास,
वहीं, क्षितिज पर उतर आया!

क्षण वो ही इक भाया, उस क्षण ने ही तड़पाया,
रंग, उस क्षितिज का, जब भी गहराया,
नैनों में, वो क्षण उभर आया!

क्षण भर जो भाया, उस क्षण ही मन जी पाया,
पाने को तो, जीवन भर कितना पाया,
शेष क्षण, बस सूना ही पाया!

Monday, 4 August 2025

मां

कौन सा वो जहां, वो कौन सी क्षितिज,
खोई मां कहां?

जली, इक चिता,
उस रोज, भस्मीभूत हुई थी वो काया,
उठ चला,
मां का, सरमाया!

पर, बिंबित रही,
नैनों में अंकित, करुणामय रूप वही,
पास सदा,
उसका ही, साया!

शेष, बचे वे स्पर्श,
सारे संदर्भ, सारे सारगर्भित आदर्श,
प्राण अंश,
देती, इक छाया!

पर वे शब्द कहां,
नि:स्तब्ध करते, निश्छल वे नैन कहां,
लुप्त हुआ,
जो भी था पाया!

एकाकी, थी वो,
झेले पति-प्रलाप, सहे दंश सदियों,
वही दुख,
बांट, न पाया!

ले भी ना सका,
ममता के, सुखमय अंतिम वे क्षण,
न सानिध्य,
ही, निभा पाया!

वक्त ही, रूठा,
छांव मेरा, वक्त ने ही, मुझसे लूटा,
सोचूं बैठा,
मंदिर, क्यूं टूटा!

दो पल ही सही, 
ले चल मुझे ओ गगन,ओ क्षितिज,
देखूं जरा,
है कैसी मां वहां!

कौन सा वो जहां, वो कौन सी क्षितिज,
खोई मां कहां?

Sunday, 3 August 2025

जीवन-शंख

गूंज उठी, कहीं इक शंख,
बिखेर गई, हवाओं में अनगिनत तरंग,
उठा, मृत-मन में,  उन्माद सा,
जागी, तन में, इक सिहरन,
जागे, मृत-प्राण,
इक, नव-जीवन का उन्वान!

जीवन, ज्यूं विहीन पंख,
हर ओर धुआं, विलीन राहें, मन-मलंग,
इक गुंजन का, विस्तार उठा,
पंख लिए, ये प्राण उठा,
इक, नव-विहान,
महकी पवन, चहका प्राण!

मृत सी, लगती वो शंख,
पर सिमेटे, विस्तृत, विविध, रंग-उमंग,
अन्तस्थ, अनंत जीवन-शय,
अन्तः, गाता इक हृदय,
जागा, इक प्राण,
सोए, हर मन का विहान!

कुछ हम गूंजे, शंख सा,
तुम दो, खाली पन्नों को, इक रंग सा,
भर दो, वादी में इक लय,
सुने क्षण में इक सुर,
वाणी में, तान,
नव-आशा का, उत्थान!