Showing posts with label ब्रम्ह. Show all posts
Showing posts with label ब्रम्ह. Show all posts

Friday, 21 September 2018

ब्रम्ह और मानव

सुना है! ब्रम्ह नें, रचकर रचाया ये रचना....
खुद हाथों से अपने,
ब्रम्हाण्ड को देकर विस्तार,
रचकर रूप कई,
गढ़ कर विविध आकार,
किया है साकार उसने कोई सपना...

सुना हैं! उन सपनों के ही इक रूप हैं हम....
अंश उसी का सबमें,
रंग विविध से दिए है उसने,
भरकर भाव कई,
देकर मन रुपी संसार,
किया है हृदय में ममता का श्रृंगार....

सुना है! ब्रम्हलोक गए वे सब कुछ देकर...
दे कर विशाल सपने,
एहसास उपज कर मानव में,
इच्छाएं दे कई,
किए बिन सोच विचार,
सृष्टि पर सौंप दिया था अधिकार....

सुना है! अब पश्चाताप कर रहा वो ब्रम्ह...
श्रेष्ठ ज्ञान दिया जिसे,
योनियों में उत्तम रचा जिसे,
भूला राह वही,
कपट क्लेश व्यभिचार,
सृष्टि की संहार पर तुला है मानव...

सुना है! टूट चुकी है अब ब्रम्ह की तन्द्रा...
रूठ चुका है वो सबसे,
त्रिनेत्र खोल दिए है शिव ने,
प्रलय न हो कहीं!
प्रकृति में है हाहाकार,
हो न हो, है विनाश का ये हुंकार...

सुना है! अब भी नासमझ बना है मानव...