Friday, 30 April 2021

विरक्ति क्यूँ

जीवन से, गर जीवन छिन जाए,
कौन, किसे बहलाए!

आवश्यक है, इक अंतरंग प्रवाह,
लघुधारा के, नदी बनने की अनथक चाह,
बाधाओं को, लांघने की उत्कंठा,
जीवंतता, गतिशीलता, और,
थोड़ी सी, उत्श्रृंखलता!

गर, धारा से धारा ना जुड़ पाए,
नदी कहाँ बन पाए!

कुछ सपने, पल जाएँ, आँखों में,
पल भर,  हृदय धड़क जाए, जज्बातों में, 
मन खो जाए, उनकी ही बातों में,
कण-कण में हो कंपन, और,
थोड़ी सी, विह्वलता!

गर, दो धड़कन ना मिल पाए,
सृष्टि, कब बन पाए!

विरक्ति, उत्तर नहीं इस प्रश्न का,
जीवन से विलगाव, राह नहीं जीवन का,
पतझड़, प्रभाव नहीं सावन का,
आवश्यक इक, मिलन, और,
थोड़ी सी, मादकता!

जीवन से, गर जीवन छिन जाए,
कौन, किसे बहलाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

जा, अप्रिल तू जा

झौंके बहुत, तूनें आँखों में धूल,
ओ, अप्रिल के फूल!

कटीली तेरी यादें, कठिन है भुला दें,
बोए तूने, इतने काँटे,
फूलों संग, घर-घर तूने दु:ख बाँटे,
जा, अब याद मुझे न आ,
जा, अप्रिल तू जा!

दूभर है, तुझ संग ये दिन निभ जाए,
बैरी ये पल कट जाए,
हर क्षण, कितने धोखे हमने खाए,
ना, अब सपनों में बहला,
जा, अप्रिल तू जा!

तू, क्या जाने, कुछ खो देने का, गम!
यूँ, अपनों से बिछड़न,
जीवन भर, जीवन खोने का गम,
जा, ना यूँ मन को बहला,
जा, अप्रिल तू जा!

झौंके बहुत, तूनें आँखों में धूल,
ओ, अप्रिल के फूल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 27 April 2021

नयन-नयन

नयन-नयन, कितने सूने क्षण!

निखरते थे कल, नैनों में काजल,
प्रवाह नयन के, कब रुकते थे कल-कल,
हँसी, विषाद के वो पल,
अब कितने, नासाद हो चले,
सूख चले, नैनों से आँसू,
रूठ चले, ये क्षण!

उपवन-उपवन, सूखे कितने ये घन,
नयन-नयन, कितने सूने क्षण!

इच्छाओं के घेरों में, निस्पृह मन,
ज्यूँ, निस्संग, कोई तुरंग, भागे यूँ सरपट,
सूने से, उन सपनों संग,
विवश, बंद-बंद अपने आंगन,
जागी सी, इच्छाओं संग,
कैद हुए, ये क्षण!

निस्पृह, आंगन-आंगन कामुक मन,
नयन-नयन, कितने सूने क्षण!

इच्छाएं, छलक उठती थी जिनसे,
कुछ उदास क्षण, अब झांकते हैं उनसे,
सूने हैं, नैनों के दो तट,
विरान, इच्छाओं के ये पनघट,
अब क्या, रोकेंगी राहें,
निस्पृह, ये क्षण!

नयन-नयन, कितने सूने क्षण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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निस्पृह; - 1. जिसे किसी प्रकार की इच्छा न हो; इच्छारहित; वासनारहित 2. जिसे लोभ न हो।

निस्संग; - 1. जिसके साथ कोई न हो; अकेला 2. जो किसी से कोई संबंध न रखता हो 3. सांसारिक विषय - वासनाओं से रहित;  उदासीन;  निष्काम;  निर्लिप्त

Saturday, 24 April 2021

टूटता पुरुष दंभ

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको,
सर्वस्व तुम्हें देकर, पा लेता मैं तुझको!

पर तुम थे, बस, दो बातों के भूखे,
स्नेह भरे, दो प्यालों के प्यासे,
आसां था कितना, तुझको अपनाना,
तेरे उर की, तह तक जाना,
कुछ भान हुआ, अब यह मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

दो शब्दों पे ही, तुम खुद को हारे,
निज को भूले, संग हमारे,
था स्वीकार तुझे, निःस्वार्थ समर्पण, 
पुरुष दंभ पर, स्व-अर्पण,
एहसास हो चला, अब ये मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

उर पर, अधिकार कर चले तुम,
हार चले, यूँ पल में हम,
दंभ पुरुष का, यूँ ही शीशे सा टूटा,
मन, कब हाथों से छूटा,
अब तक, भान हुआ ना मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

रिश्तों का, अजूबा यह व्यापार,
कुछ किश्तों में ही तैयार,
इक बंध, अनोखा जीवन भर का,
इक आंगन, दो उर का,
शेष है क्या, भान कहाँ मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको,
सर्वस्व तुम्हें देकर, पा लेता मैं तुझको!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

जीवट युगद्रष्टा

युगों-युगों, वो ही लड़ा!
ज्यूँ पीर, पर्वत सा, बन कर अड़ा,
चीर कर, धरती का सीना,
सीखा है उसने, जीवन जीना,
हारा कब, मानव,
जीवट बड़ा!

ढ़हते, घिसते, पिसते शिखर देखे,
बहते, उमरते, उफनते सागर देखे,
बवंडर, आईं और गईं,
सुनामियाँ, विभीषिक व्यथा लिख गईं,
जल-प्रलय, कहरी रुक गईं, 
महामारी, असह्य कथा ही कह गई,
कांधे, लाशों के बोझ धारे,
झेले, कहर सारे,
पर, हिम्मत कब वो हारे,
संततियों संग, युगों-युगों रहा डटा,
दंश, सह चुका, यह युगद्रष्टा,
मानव, जीवट बड़ा!

विपरीत, पवन कितनी!
घिस-घिस, पाषाण, हुई चिकनी,
संकल्प, हुई दृढ़ उतनी,
कई युग देखे, बनकर युगद्रष्टा,
खूब लड़ा, मानव,
जीवट बड़ा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 21 April 2021

समर

ये समर है मेरा, लड़ना है मुझको ही!

लहु-लुहान, यह रणभूमि,
पर, यह रण, अभी थमा नहीं,
निःशस्त्र हूँ, भले ही,
पर शस्त्र, हमने अभी, रखा नहीं,
हमने बांधा है सेहरा, ये समर है मेरा,
रक्त की, अंतिम बूँदों तक, 
लड़ना है मुझको ही!

ये समर है मेरा, लड़ना है मुझको ही!

ये पथ, हों जाएँ लथपथ,
होंगे और प्रशस्त, ये कर्म पथ,
लक्ष्य, समक्ष है मेरे,
छोड़ी है, ना ही, हमने राह अभी,
तुरंग मैं, कर्म पथ का, रण है ये मेरा,
साँसों की, अंतिम लय तक,
लड़ना है मुझको ही!

ये समर है मेरा, लड़ना है मुझको ही!

बाधाएं, विशाल राहों में,
पर, क्यूँ हो मलाल चाहों में,
भूलें ना, इक प्रण,
कर शपथ, छोड़ेंगे हम ना रण,
तोड़ेगे हर इक घेरा, समर है ये मेरा,
बाधा की, अंतिम हद तक,
लड़ना है मुझको ही!

ये समर है मेरा, लड़ना है मुझको ही!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 20 April 2021

तृष्णा

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

मानव की खातिर, कितना मुश्किल है खोना,
अपूरित ख़्वाहिशों का, जग उठना,
उस अनदेखे की, ख्वाहिशों संग सोना,
उनको भी, मन चाहे पा लेना,
निर्णय-अनिर्णय के, उन दोराहों पर, 
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

मन, पाए ना राहत, जग जाए जब ये चाहत,
अन्जाने ही, मन होता जाए आहत,
भ्रम की इक, किश्ती में, वो ढूंढे राहत,
जाने, पर स्वीकारे ना ये सत्य,
चाहत के, उस अनिर्णीत दोराहों पर, 
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

खो दे कुछ भी, उन अनिश्चितताओं के बदले,
पाना चाहे, उन इच्छाओं को पहले,
भले ही इच्छाओं को, इच्छाएं ही डस ले,
कैसी आशा, कैसा यह स्वप्न,
अंधियारे से, इक विस्तृत दोराहों पर,
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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इच्छा
1. कामना, चाह, ख्वाहिश; 2. रुचि।

इक्षा
1. नज़र; दृष्टि 2. देखने की क्रिया; दर्शन 3. विचारना; विवेचन करना; पर्यालोचन।

Monday, 19 April 2021

नारायण ही जाने

हम तो ठहरे, अन्जाने,
नारायण ही जाने, वो क्या-क्या जाने!

इक उम्र को, झुठलाते,
विस्मित करती, उनकी न्यारी बातें,
कुछ, अनहद प्यारी,
कुछ, उम्मीदों पर भारी!

नारायण ही जाने......

बातें, या जीवन दर्शन,
वो ओजस्वी वक्ता, हम श्रोतागण,
वो शब्द, अर्थ भरे,
जाने क्यूँ, निःशब्द करे!

नारायण ही जाने......

उनकी, बातों में कान्हा,
उनकी, शब्दों में कान्हा सा गाना, 
शायद, वो हैं राधा,
व्यथा, कहे सिर्फ आधा!

नारायण ही जाने......

जाने वो, क्षणिक सुख!
पर वो, भटके ना, उनके सम्मुख,
अनबुझ सी, प्यास,
या, प्रज्ज्वलित सी आस!

नारायण ही जाने......

हम तो ठहरे, अन्जाने,
नारायण ही जाने, वो क्या-क्या जाने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

रक्तरंजित बिसात

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

कौन जाने, क्या हो अगले पल!
समतल सी, इक प्रवाह हो, 
या सुनामी सी हलचल!
अप्रत्याशित सी, इसकी हर बात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

प्राण फूंक दे या, ये हर ले प्राण!
ये राहें कितनी, हैं अंजान!
अति-रंजित सा दिवस,
या इक घात लगाए, बैठी ये रात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

जाल बिछाए, वक्त के ये मोहरे,
कब धुंध छँटे, कब कोहरे,
कब तक हो, संग-संग,
कब संग ले उड़े, इक झंझावात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

कोरोना, वक्त का धूमिल होना,
पल में, हाथों से खो देना,
हँसते-हँसते, रो देना,
रहस्यमयी दु:खदाई, ये हालात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 18 April 2021

उभरता गजल

सांझ के, बादल तले,
उभर आए हो, बनकर इक गजल,
देखें किसे!

दैदीप्य सा, इक चेहरा, है वो,
सब, नूर कहते हैं जिसे,
पिघल कर, उतर आए जमीं पर,
चाँद कहते हैं,
हम उसे!

सांझ के, बादल तले...

बड़ी ही, सुरीली सी सांझ ये,
सब, गीत कहते हैं जिसे,
जो, नज्म बनकर, गूंजे दिलों में, 
गजल कहते हैं, 
हम उसे!

सांझ के, बादल तले...

चह-चहाहट, या तेरी आहट,
कलरव, समझते हैं उसे,
सुरों की, इक लरजती रागिणी,
संगीत कहते हैं,
हम उसे!

सांझ के, बादल तले,
उभर आए हो, बनकर इक गजल,
देखें किसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

मायूस ख्याल

लबों पे, ठहर जाते हैं, कुछ सवाल,
मायूस से, कुछ ख्याल!

उन पर, आ ही जाता है, रहम,
सो, चलाता हूँ कलम,
कागजों पर, 
टूट जाते है, सारे ही भरम,
बिखर जाते हैं,
सवाल!

मायूस से, कुछ ख्याल!

न जाने क्यूँ, कुछ बोलते नहीं!
क्यूँ लब, खोलते नहीं,
सिलते हैं ये,
बुनते हैं, सारे ही बवाल,
सिमट जाते है,
सवाल!

मायूस से, कुछ ख्याल!

क्या करे, बेजान से ये कागज!
नादान से, ये कागज,
ये कहे कैसे,
अधलिखे, हैं जो ख्याल,
मुकर जाते हैं, 
सवाल!

लबों पे, ठहर जाते हैं, कुछ सवाल,
मायूस से, कुछ ख्याल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 17 April 2021

सब्र

यूँ, सब्र के धागों को तुम तोड़ो ना!

हो, कितनी दूर, हकीकत, 
पर, मुमकिन है, सच को पा लें हम,
यूँ ही, खो जाने की बातें,
अब और करो ना!

सच से, यूँ ही आँखें तुम फेरो ना!

अन्धियारा, छा जाने तक,
चल, बुझता इक दीप, जला लें हम,
यूँ ही, घबराने की बातें, 
अब और करो ना!

यूँ ही, आशा का दामन छोड़ो ना!

जाना है, उन सपनों तक,
हकीकत ना बन पाए, जो अब तक,
यूँ, मुकर जाने की बातें,
अब और करो ना!

जज्ब से, जज्बातों को मोड़ो ना!

हो, कितनी दूर, हकीकत,
यूँ सच को, झुठलाए कोई कब तक,
यूँ ही, बैठ जाने की बातें,
अब और करो ना

यूँ, जीवन से आँखें तुम फेरो ना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 15 April 2021

किस्सों में थोड़ा सा

उनकी किस्सों का, इक अंश हूँ अधूरा सा!
उन किस्सों में, अब भी हूँ थोड़ा सा!

मुकम्मल सा, इक पल,
उत्श्रृंखल सी, इठलाती इक नदी,
चंचल सी, बहती इक धारा,
ठहरा सा, इक किनारा!

सपनों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

धारे के, वो दो किनारे,
भीगे से, जुदा-जुदा वो पल सारे,
अविरल, बहती सी वो नदी,
ठहरी-ठहरी, इक सदी!

सवालों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

अधूरी सी, बात कोई,
जो तड़पा जाए, पूरी रात वही,
याद रहे, वो इक अनकही,
रह-रह, नैनों से बही!

ख्यालों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

रुक-रुक, वो राह तके,
इस चाहत के, कहाँ पाँव थके!
उभर ही आऊँ, मैं यादों में,
जिक्र में, या बातों में!

उनकी किस्सों का, इक अंश हूँ अधूरा सा!
उन किस्सों में, अब भी हूँ थोड़ा सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

पत्ता

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

ऋतुमर्दन ही होना था, इक दिन तेरा, 
ऋतुओं में ही, खोना था,
ऋतुओं पर, ना करना था यूँ एतबार,
ऋतु पालक, ऋतु संहारक,
ऋतुओं से, रखना था, विराग जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

डाली पर पनपे, यूँ डाली से ही छूटे!
बिखरे, यह कैसी, इति!
व्यक्त और मुखर, ऋतुओं से बेहतर,
अभिव्यक्ति ही था कारण,
मौसमों में, रहना था अव्यक्त जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

निखर आए, तेरे अंग, ऋतुओं संग,
यूँ, नजरों में, चढ़ आए,
ऋतुओं संग, पनपता, अनुराग तेरा,
शायद, अखरा हो उनको,
डाली को करना था, विश्वास जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 14 April 2021

टूटे जो संयम

लास्य रचाते, जीवन के उन्मुक्त क्षण यहाँ,
तन कुम्हलाए, पर ये मन कहाँ!

लास्य रचाती, अभीप्साओं की उर्वशियाँ!
जीवन का गायन, मन का वादन,
हर क्षण, इक उद्दीपन,
डिग जाए आसन, टूटे जो संयम, 
फिर दोष कहाँ!

लास्य रचाते, जीवन के उन्मुक्त क्षण यहाँ!
पुकारे, नाद रचाती ये पैजनियाँ!

भरमाए, ये रश्मियाँ, आती जाती उर्मियाँ!
ये चंचल लहरें, वो रश्मि-किरण,
लहराते इठलाते, घन,
डोले जो आसन, टूटे जो संयम,
फिर दोष कहाँ!

लास्य रचाते, जीवन के उन्मुक्त क्षण यहाँ,
लुभाए, आँगन की ये रश्मियाँ!

तन, हो भी जाए वैरागी, पर ये मन कहाँ!
निमंत्रण दे, लास्य रचाते ये क्षण,
आबद्ध करे, आकर्षण,
डोले जो आसन, टूटे जो संयम,
फिर दोष कहाँ!

लास्य रचाते, जीवन के उन्मुक्त क्षण यहाँ,
तन कुम्हलाए, पर ये मन कहाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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लास्य का अर्थ:
- शास्त्रीय संगीत का एक रूप जिसमें कोमल और मधुर भावों तथा श्रृंगार रस की प्रधानता होती है
- एक स्त्रीसुलभ लालित्यपूर्ण नृत्य (तांडव जैसे पुरुष-प्रधान नृत्य के विपरीत)।
नाच या नृत्य के दो भेदों में से एक । वह नृत्य जो भाव और ताल आदि के सहित हो, कोमल अंगों के द्वारा  की जाती हो और जिसके द्वारा श्रृंगार आदि कोमल रसों का उद्दीपन होता हो । 
- साधरणतः स्त्रियों का नृत्य ही लास्य कहलाता है । कहते है, शिव और पर्वती ने पहले पहल मिलकर नृत्य किया था । शिव का नृत्य तांडव कहलाया और पार्वती का 'लास्य'।
लास्य के भी दो भेद हैं— छुरित और यौवत । नायक नायिका परस्पर आलिंगन, चुंबन आदि पूर्वक जो नृत्य करते हैं उसे छुरित कहते हैं । एक स्त्री लीला और हावभाव के साथ जो नाच नाचती है उसे यौवत कहते हैं । 
- इनके अतिरिक्त अंग प्रत्यंग की चेष्टा के अनुसार ग्रंथों में अनेक भेद किए गए हैं ।साहित्यदर्पण में इसके दस अंग बतलाए गए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं - गेयपद, स्थितपाठ, आसीन, पुष्पगंडिका, प्रच्छेदक, त्रिगूढ़, सैंधबाख्य, द्विगूढ़क, उत्तमीत्तमक और युक्तप्रयुक्त ।

Tuesday, 13 April 2021

गैर लगे मन

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

गैर लगे, अपना ही मन,
हारे, हर क्षण,
बिसारे, राह निहारे,
करे क्या!
देखे, रुक-रुक वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

तन्हा पल, काटे न कटे,
जागे, नैन थके,
भटके, रैन गुजारे,
करे क्या!
ताके, तेरा पथ वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

इक बेचारा, तन्हा तारा,
गगन से, हारा,
पराया, जग सारा,
करे क्या! 
जागे, गुम-सुम वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

संग-संग, तुम होते गर,
तन्हा ये अंबर,
रचा लेते, स्वयंवर,
करे क्या!
हारे, खुद से वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!


- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 11 April 2021

सफर

अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

जाना किधर, ये है किसको खबर,
कोई रह-गुजर, रोक ले, ये बाहें थामकर,
खोकर नेह में, रुक गए,
किसी की, स्नेह में, कहाँ झुक गए!
ये किसने जाना!

रोकती है राहें, छाँव, ये सर्द आहें,
पर जाना है मुझको, तू कितना भी चाहे,
भले हम, छाँव में सो गए,
यूँ कहीं ठहराव में, पल भर खो गए!
ये किसने जाना!

कोई पल न जाने, भिगो दे कहाँ, 
ये अँसुअन सी, नदी, ये बहता सा, शमाँ,
विह्वल, जो ये पल हो गए,
इक मझधार में, जाने कहाँ खो गए!
ये किसने जाना!
अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

वहीं रहना

मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

यही तो है, जो, बांधता है मुझको,
वेधता है, संज्ञाशून्ताओं को,
समझने की कोशिश में, तुझको सोचता हूँ,
लकीरों में, बुनता हूँ तुम्हें ही,
मिथक हो, या कितना भी पृथक हो,
पर, लगते सार्थक से हो!
शायद, जब तलक कल्पनाओं में हो!

मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

झूमती हुई, डालियों सी, चंचलता,
पृथक सी, अल्हड़ मादकता,
प्राकृत जीवंतताओं में, देखता हूँ तुझको,
समस्त विकृतियों से, अलग,
परिपूर्णताओं की, हदों से अलंकृत,
हर, रचनाओं में श्रेष्ठ!
शायद, जब तलक कल्पनाओं में हो!

मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

यूँ तो, इन विसंगतियों से परे कौन,
लेकिन, रहे कोई, जैसे मौन,
ताकती सी मूरत, झांकती सी एक सूरत,
अल्हड़, बिल्कुल  नादान सी,
ज्यूँ, अरण्य में, विचरती हो मोरनी,
खुद ही, से अनभिज्ञ!
शायद, जब तलक कल्पनाओं में हो!

मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

करोड़ों उभरते सवाल, उनमें तुम,
क्यूँ रहें, बन एकाकी हम!
ओढ़े आवरण, क्यूँ न संजोएं इक भरम!
करूँ, मौजूदगी का आकलन,
रखूँ, समय की सेज पर तुम्हें पृथक,
क्यूँ मानूं, तुमको मिथक!
शायद, जब तलक कल्पनाओं में हो!
 
मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)