Tuesday 26 November 2019

टूटा सा तार

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

संभाले, अनकही सी कुछ संवेदनाएं,
समेटे, कुछ अनकहे से संवाद,
दबाए, अव्यक्त वेदनाओं के झंकार,
अनसुनी, सी कई पुकार,
अन्तस्थ कर गई हैं, तार-तार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

कभी थिरकाती थी, पाँचो ऊंगलियाँ,
और, नवाजती थी शाबाशियाँ,
वो बातें, बन चुकी बस कहानियाँ,
अब है कहाँ, वो झंकार?
अब न झंकृत हैं, मेरे पुकार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

वश में कहाँ, किसी के ये संवेदनाएं,
खुद ही, हो उठते हैं ये मुखर,
कर उठते हैं झंकार, ये गूंगे स्वर,
खामोशी भरा, ये पुकार,
जगाता है, बनकर चित्कार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

ढ़ल चुका हूँ, कई नग्मों में सजकर,
बिखर चुका हूँ, हँस-हँस कर,
ये गीत सारे, कभी थे हमसफर,
बह चली, उलटी बयार,
टूट कर, यूँ बिखरा है सितार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

जज्ब थे, सीने में कभी नज्म सारे,
सब्ज, संवेदनाओं के सहारे,
बींधते थे, दिलों को स्वर हमारे,
उतर चुका, सारा खुमार,
शेष है, वेदनाओं का प्रहार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 24 November 2019

मौसम 26वाँ

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

तुम, जैसे, गुनगुनी सी हो कोई धूप,
मोहिनी सी, हो इक रूप,
तुम्हें, रुक-रुक कर, छू लेती हैं पवन,
ठंढ़ी आँहें, भर लेती है चमन,
ठहर जाते हैं, ये ऋतुओं के कदम,
रुक जाते है, यहीं पर हम!

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

कब ढ़ला ये दिन, कब ढली ये रातें,
गई जाने, कितनी बरसातें,
गुजरे संग, बातों में कितने पलक्षिण,
बीते युग, धड़कन गिन-गिन,
हो पतझड़, या छाया हो बसन्त,
संग इक रंग, लगे मौसम!

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

ठहरी हो नदी, ठंढ़ी हो छाँव कोई,
शीतल हो, ठहराव कोई,
क्यूँ न रुक जाए, इक पल ये पथिक,
क्यूँ न कर ले, थोड़ा आराम,
क्यूँ ढ़ले पल-पल, फिर ये ऋतु,
क्यूँ ना, ठहरे ये मौसम?

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
अपनी शादी कीं 26वीं वर्षगाँठ (यथा 24 नवम्बर 2019) पर, श्रीमति जी को समर्पित ...वही मौसम!

Sunday 17 November 2019

चुप हैं दिशाएँ

चुप हैं ये दिशाएँ, कहीं बज रहे हैं साज!
धड़कनों नें यूँ, बदले हैं अंदाज!

ओढ़े खमोशियाँ, ये कौन गुनगुना रहा है?
हँस रही ये वादियाँ, ये कौन मुस्कुरा रहा है?
डोलती हैं पत्तियाँ, ये कौन झूला रहा है?
फैली है तन्हाईयाँ, कोई बुला रहा है!
ये क्या हुआ, है मुझको आज!
लगे तन्हाईयों में, कहीं बज रहे हैं साज!
ख़ामोशियों ने, बदले हैं अंदाज!

चुप हैं ये दिशाएँ, कहीं बज रहे हैं साज!
धड़कनों नें यूँ, बदले हैं अंदाज!

किसकी है मुस्कुराहट, ये कैसी है आहट!
छेड़े है कोई सरगम, या है इक सुगबुगाहट!
चौंकता हूँ, सुन पत्तियों की सरसराहट!
सुनता हूँ फिर, अंजानी सी आहट!
खुली सी पलकें, हैं मेरी आज!
लगे तन्हाईयों में, कहीं बज रहे हैं साज!
मुस्कुराहटों के, बदले हैं अंदाज!

चुप हैं ये दिशाएँ, कहीं बज रहे हैं साज!
धड़कनों नें यूँ, बदले हैं अंदाज!

मुद्दतों तन्हा, रहा अकेला मेरा ही साया,
चुप हैं ये दिशाएँ, वो चुपके से कौन आया!
धुन ये कौन सा, धड़कनों में समाया?
रंग ये कौन सा, मन को है भाया?
ये पुकारता है, किसको आज!
लगे तन्हाईयों में, कहीं बज रहे हैं साज!
यूँ रुबाईयों ने, बदले हैं अंदाज!

चुप हैं ये दिशाएँ, कहीं बज रहे हैं साज!
धड़कनों नें यूँ, बदले हैं अंदाज!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 14 November 2019

एक क्षण

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

उसने तोड़ा था, बारीकियों से ये मन,
डाली से, ज्यूं झरते हैं सुमन,
ठूंठ होते हैं, ज्यूं पतझड़ में ये वन,
ज्यूं झर जाते हैं, ये पात-पात,
हौले-हौले, बिखरे हैं ये जज्बात,
एक क्षण की, वो बात,
हर-क्षण, उसे भी तड़पाता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

नाजुक सा ये मन, कोई पाषाण नहीं,
यूँ भूल जाना, आसान नहीं,
बिन खनक, यूँ ही टूट जाते हैं ये,
टुकड़ों में फिर, जी जाते है ये,
हौले-हौले, पिघलती है ये हर रात,
एक क्षण की, वो बात,
हर क्षण, उसे भी पिघलाता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

कटते नहीं, उम्र भर, ये एक ही क्षण,
कैसे रुके, बहती सी पवन,
कैसे रुके, बहते साँसों के ये घन,
कैसे रुके, ये जीवन के चरण,
हौले-हौले, बहा ले जाए ये साथ,
एक क्षण की, वो बात,
हर क्षण, उसे भी याद आता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

बीते ना ये पतझड़, न आये वो बसंत,
ये राह, क्यूँ हुआ है अनन्त,
विचारे है क्यूँ, अब ओढ़े ये मलाल,
बुझ गई, जली थी जो मशाल,
हौले-हौले, पतझड़ के वो लम्हात,
एक क्षण की, वो बात,
हर क्षण, उसे भी न भुलाता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 13 November 2019

महावर

मेहंदी सजाए, महावर पांवों मेें लगाए!
हर सांझ, यूँ कोई बुलाए!

गीत कोई, फिर मैैं क्यूँ न गाऊँ?
क्यूँ न, रूठे प्रीत को मनाऊँ?
सूनी वो, मांग भरूं,
उन पांवों में, महावर मलूँ,
ये पायलिया जहाँ, रुनुर-झुनुर गाए!

हर सांझ, यूँ कोई बुलाए!

फिजाओं से, क्यूँ न रंग मांग लूँ?
फलक से, रंग ही उतार लूँ!
रंग, उन्हें हजार दूँ,
अंग-अंग, महावर डाल दूँ,
सिंदूरी सांझ सी, वो भी मुस्कुराए!

हर सांझ, यूँ कोई बुलाए!

कभी, पतझड़ों सा ये दिन लगे?
मन के, पात-पात यूँ झरे!
प्रीत को, पुकार लूँ,
उनसे बसंत का, उपहार लूँ,
डारे पांवों में महावर, हमें रिझाए!

हर सांझ, यूँ कोई बुलाए!
मेहंदी सजाए, महावर पांवों मेें लगाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

महावर


[सं-स्त्री.] - 1. शुभ अवसरों पर एड़ियों में लगाया जाने वाला गहरा चटकीला लाल रंग 

2. लाख से तैयार किया गया गहरा लाल रंग

Tuesday 12 November 2019

प्रजातंत्र - सत्ता-लोलुपता

प्रजातंत्र के हंता, ये नेता!
उन्हें, भोगनी है सत्ता,
आम जन की, यहाँ कौन सोचता!
सर्वोपरि है, सत्ता-लोलुपता!

बस, कुर्सी दे दो उनको,
चूर नशे में, फिर रहने दो उनको,
मिटने दो, जन-उम्मीदों को!
प्रजातंत्र है, प्रजा खुद सुलझाएंगी,
समस्याएँ, जब बढ़ जाएंगी,
काँटों में, उलझ जाएंगी,
हो विवश, सत्ता-लोलुपता वश,
बुद्धि हीन हमें समझ,
हाथ जोड़, वो फिर से आएंगे,
हलके से, मुस्काएंगे,
देश राग गाएंगे,
वादों कसमों को दोहराएंगे,
इक आम जन, हैं हम,
सजा भोगते, मजबूर प्रजागण हैं हम,
हर हाल में, बस दीन-जन हैं हम,
राजा, हम फिर चुन लेंगे,
हमें कहाँ, ना कहने का है अवसर है,
मजबूरी है, ये प्रजातंत्र है,
हर शाख पर, फलती है सुख सत्ता,
गंदी सत्ता-लोलुपंता!
वोट, हम फिर दे ही आएंगे,
खर्च भी ! वहन हम ही कर जाएंगे!
ना भी, ना कह पाएंगे,
कौन सोचता, क्या हो प्रजा का अधिकार?
ना कहने का, बस उनका है अधिकार!
प्रजा, मूक-द्रष्टा, है बस भोगता,
झूठा, खोखला है ये प्रजातंत्र,
प्रजा की, देश की, यहाँ कौन सोचता!

प्रजातंत्र के ये हंता, ये नेता!
उन्हें, भोगनी है सत्ता,
आम जन की, यहाँ कौन सोचता!
सर्वोपरि है, सत्ता-लोलुपता!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 10 November 2019

बिटिया के नाम

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

जीवन के, इन राहों पर,
बाधाएं, आएंगी ही रह-रह कर,
भटकाएंगी ये मार्ग तुझे, हर पग पर,
विमुख, लक्ष्य से तुम न होना,
क्षण-भर, धीरज रखना,
विवेक, न खोना,
विचलित, तुम किंचित ना होना!

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

चका-चौंध, है ये पल-भर,
ये तो है, धुंधले से सायों का घर,
पर तेरा साया, संग रहता है दिन-भर,
समेटकर, सायों को रख लेना,
सन्मुख, सत्य के होना,
स्वयं को ना खोना,
धुंधलाते सायों सा, तुम ना होना!

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

बुद्धि तेरी, स्वयं है प्रखर,
ज्ञान तुझमें, भरा कूट-कूट कर,
पग खुद रखना, आलोकित राहों पर,
असफलताओं से, ना घबराना,
विपदाओं से, ना डरना,
तुम, हँसती रहना,
गिरना, संभलना, यूँ चलती रहना!

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

पिता हूँ मैं, हूँ तेरा रहबर,
पथ दिखलाऊंगा, हर-पग पर,
पर होगी, ईश्वर की भी तुझ पर नजर,
भरोसा, उस ईश्वर पर रखना,
कर्म-विमुख, ना होना,
आँखें, मूंद लेना,
कर्म के पथ पर, यूँ बढ़ती रहना!

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

घर आए राम

बेघर, भटके दर-दर, अब घर आएंगे राम!

था वनवास का इक, दीर्घ अन्तराल!
युग बीते, सदियाँ बीती....
ना बीत सका था, वो बारह साल!
पर, अन्तिम है यह साल,
बेघर, सदियों भटक चुके वो दर-दर,
तोड़ वनवास, राम आएंगे घर,
पुनर्स्थापित होगी मर्यादा,
प्रतिष्ठित होंगे, अब अपने घर राम!

बेघर, भटके दर-दर, अब घर आएंगे राम!

होना ही था, यह अति-दीर्घ विरह!
बेशक, कलयुग है यह....
मर्यादा की, परिभाषा ही झूठी थी,
सारी मर्यादाएं, टूटी थी,
सत्य की, बिखरी सी रिक्त सेज पर,
झूठ, फन फैलाए लेटी थी,
पुनः जाग उठे हैं राम,
झूठ का, हुआ अंततः काम तमाम!

बेघर, भटके दर-दर, अब घर आएंगे राम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
............................................................

एक आलेख-संदर्भ:

अयोध्या केस के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने शनिवार दिनांक 09.11.2019 को, 40 दिनों तक चली लगातार सुनवाई के पश्चात,  अपने फैसले में स्पष्ट रूप से यह कहा कि अयोध्या में विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद स्थल के नीचे एएसआई की खुदाई से संकेत मिलता है कि ‘‘अंदर जो संरचना थी वह 12वीं सदी की हिन्दू धार्मिक मूल की थी।’’

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 23 अक्टूबर, 2002 को खुदाई और विवादित स्थल पर वैज्ञानिक जांच का काम सौंपा था। 

पाँच सदस्यीय संविधान पीठ नें साक्ष्यों के आधार पर  यह भी माना कहा कि बहुस्तरीय खुदाई के दौरान एक गोलाकार संरचना सामने आयी जिसमें ‘मकर प्रणाला’ था, जिससे संकेत मिलता है कि आठवीं से दसवीं सदी के बीच हिन्दू वहां पूजा-पाठ करते थे। 

पीठ ने कहा, ‘‘अधिसंभाव्यता की प्रबलता के आधार पर अंदर पाई गई संरचना की प्रकृति इसके हिंदू धार्मिक मूल का होने का संकेत देती है जो 12 वीं सदी की है।’’ पीठ ने कहा कि एएसआई की खुदाई से यह भी पता चला कि विवादित मस्जिद पहले से मौजूद किसी संरचना पर बनी है। 

एएसआई की अंतिम रिपोर्ट बताती है कि खुदाई के क्षेत्र से मिले साक्ष्य दर्शाते हैं कि वहां अलग-अलग स्तरों पर अलग-अलग सभ्यताएं रही हैं जो ईसा पूर्व दो सदी पहले ‘उत्तरी काले चमकीले मृदभांड’ तक जाती है। 

न्यायालय ने कहा, ‘‘एएसआई की खुदाई ने पहले से मौजूद 12वीं सदी की संरचना की मौजूदगी की पुष्टि की है। संरचना विशाल है और उसके 17 लाइनों में बने 85 खंभों से इसकी पुष्टि भी होती है।’’ 

पुरातात्विक साक्ष्यों का विश्लेषण करने के बाद शीर्ष अदालत ने कहा कि नीचे बनी हुई वह संरचना जिसने मस्जिद के लिए नींव मुहैया करायी, स्पष्ट है कि वह हिन्दू धार्मिक मूल का ढांचा था।

यह कलयुग का चरम था, जब मर्यादा पुरुषोत्तम राम प्रताड़ित व तिरस्कृत हुए थे।

सार सत्य यही है कि भूतकाल में भारत के समृद्ध गौरवशाली इतिहास को पापियों ने रौंदकर हमें राम-रहित अमर्यादित समाज में रहने को विवश किया गया।

परन्तु, अब दीप जलाओ, खुशियाँ मनाओ, पुनः अपने घर आए राम।

Wednesday 6 November 2019

स्पंदन (1101 वीं रचना)

अन्तर्मन हुई थी, हलकी सी चुभन!
कटते भी कैसे, विछोह के हजार क्षण?
हर क्षण, मन की पर्वतों का स्खलन!
सोच-कर ही, कंपित सा था मन!

पर कहीं दूर, नहीं हैं वो किसी क्षण!
कण-कण, हर शै, में हैं उन्हीं के स्पंदन!
पाजेब उन्हीं के, यूँ बजते है छन-छन,
छू कर गुजरते हैं, वो ही हर-क्षण!

बदलते मौसमों में, हैं उनके ही रंग,
यूँ ही कुहुकुनी , कुहुकती न अकारण,
यूँ व्याकुल पंछियाँ, करती न चारण,
यूँ न कलियाँ, चटकती अकारण!

स्पन्दित है सारे, आसमान के तारे,
यूँ ही लहराते न बादल, आँचल पसारे,
यूँ हीं छुपते न चाँद, बादल किनारे,
उनकी ही आखों के, हैं ये इशारे!

नजदीकियाँ, दूरियों में हैं समाहित,
समय, काल-खंड, उन्हीं में है प्रवाहित,
ये काल, हर-क्षण, उनसे है प्रकम्पित,
यूँ रोम-रोम, पहले न था स्पंदित!

अन्तर्मन जगी है, मीठी सी चुभन!
कट ही जाएंगे, विछोह के हजार क्षण,
क्यूँ हो मन की पर्वतों पर विचलन?
उस स्पंदन से ही, गुंजित है मन!

(इस पटल पर यह मेरी 1101वीं रचना है।  आप सभी के प्रेम और स्नेह बिना यह संभव नहीं था। आभार सहित स्नेह-नमन)

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

दूर हैं वो

दूर हैं वो, पल भर को, जरा सा आज!
तो, खुल रहे हैं सारे राज!
वर्ना न था, मुझको ये भी पता,
कि, जिन्दा है, मुझमें भी एक एहसास!

थे वो, कल तक, कितने ही पास,
तो, न थी कहीं, कोई कमी,
बस, फिक्र में थी, कहीं वो ही ज़मीं!
रोज, थी अनर्गल सी हजारों बातें,
अनर्थक, बेफिक्र कई जिक्र,
निरर्थक सी, कभी लगती थी जो,
वही थी, अर्थपूर्ण सी सौगातें,
न थी, उनकी ललक,
हर शै, उनकी ही थी झलक,
झंकृत था, हर ईक कोना,
लगता था, जरूरी है कहीं एक घर होना!
खल गई है, जरा सी दूरी,
पर, है जरूरी, पल भर को ये भी दूरी,
ताकि, जगता रहे ये एहसास,
मानव न हो जाए पत्थर,
कोई दूरी, दरमियाँ, न जन्म ले उत्तरोत्तर!

दूर हैं वो, कुछ पल को, जरा सा आज!
तो, मैं मुझको ही, ढूंढ़ता हूँ आज !
वर्ना न था, मुझको ये भी पता,
कि, बचा है, मुझमें भी एक एहसास!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 3 November 2019

पराई साँस

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

हूँ सफर में, साँसों के शहर में!
इक, पराए से घर में!
पराई साँस है, जिन्दगी के दो-पहर में!
चल रहा हूँ, जैसे बे-सहारा,
दो साँसों का मारा,
पर भला, कब कहा, मैंने इसे!
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

बुलाऊँ क्यूँ, उसको सफर में!
अंजाने, इस डगर में!
पराया देह है, क्यूँ परूँ मैं इस नेह में!
बंध दो पल का, ये हमारा,
दो पल का नजारा,
टोक कर, कब कहा, मैने उसे,
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

चले वो, अपनी मर्जी के तले!
इक, अपनी ही धुन में!
अकारण प्रेम, पनपाता है वो मन में!
हूँ इस सफर का, मैं बंजारा,
दे रहा ये मौत पहरा,
इस प्रवाह को, मैने कब कहा,
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

प्यास

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

घूँट, कितनी ही पी गया मैं!
प्यासा! फिर भी, कितना रह गया मैं!
तृप्त, क्यूँ न होता, ये मन कभी?
अतृप्ति! ये कैसी रही?
मन की प्यास, क्यूँ वैसी ही रही?
कुछ है, जो पानी में नहीं!
ढूंढ़ता है, मन वही!
पानी के किनारे, हम थे पानी के सहारे,
पर भटक रहे हम, प्यास के मारे,
है पानी में, इक परछाईं मेरी,
हूँ मैं, परछाईं से अलग!

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

यूँ तो, संभलता रह गया मैं!
पी कर! थोड़ा, बहलता रह गया मैं!
मशगूल, रहकर दुनियाँ में कहीं!
भूला, सत्य को मैं कहीं!
गूंज मन की, दबाए खुद में कहीं!
करता ही रहा मैं, अनसुनी,
सुनता है, मन वही!
दरिया किनारे, कलकल बहते हैं धारे,
रेत ये सूखे से, हैं दरिया किनारे,
इस प्यास में है, रानाई मेरी,
हूँ मैं, रानाई से अलग!

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा