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Sunday, 25 September 2022

अन्तर्निहित


निरर्थक सी, उन बातों में,
शायद, अन्तर्निहित हैं जीवन के अर्थ सारे!
मैं ही, ना-समझ,
बुनता रहता हूँ, अर्थ कोई!

फूलों का, यूं खिल आना,
निरर्थक, कब था!
अर्थ लिए, आए वो, मौसम के बदलावों में, 
मुकम्मल सा, श्रृंगार कोई!

हवाओं में घुलते कलरव,
इक संशय में, सब,
रीत, ये कैसा, राग कौन सा, पिरोए विहग!
या अर्थपूर्ण, विहाग कोई!

नत-मस्तक, इक बादल,
शीष उठाए, पर्वत,
अधूरे से दोनों, दोनों ही इक दूजे के पूरक,
भावप्रवण ये, प्रीत कोई!

चुपचुप गुमसुम सी रात,
अर्थपूर्ण, हर बात,
उस छोर, वही लिख जाती सुरीली प्रभात,
रहस्यमई, जज्बात कोई!

निरर्थक सी, उन बातों में,
शायद, अन्तर्निहित हैं जीवन के अर्थ सारे!
मैं ही, ना-समझ,
बुनता रहता हूँ, अर्थ कोई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 2 April 2022

पतवार

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?
ठहर, ऐ नाव मेरे,
वक्त की पतवार ही, इक धार लाएगी,
बहा ले जाएगी, तुमको,
आंहें क्यूँ भरे!

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?

अभी, बहते पलों में, समाया एक छल है,
ज्यूं, नदी में, ठहरा हुआ जल है,
बांध ले, सपने,
यूं, ठहरता पल कहां, रोके किसी के!
कहीं, तेरे संग ये पल,
छल ना करे!

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?

पहलू अलग ही, वक्त के बहते भंवर का,
बहा ले जाए, जाने किस दिशा,
है जिद्दी, बड़ा, 
रोड़ें राह के, कभी थाम लेती हैं बाहें,
वास्ता, उन पत्थरों से,
यूं कौन तोड़े!

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?

डोल जाए ना, कहीं, अटल विश्वास तेरा!
तू सोचता क्यूं, संशय में घिरा?
ले, पतवार ले,
धीर रख, मन के सारे संशय वार ले,
पार जाएगी, ये नैय्या,
मन क्यूं डरे!

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?
ठहर, ऐ नाव मेरे,
वक्त की पतवार ही, इक धार लाएगी,
बहा ले जाएगी, तुमको,
आंहें क्यूँ भरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 9 September 2021

टूटते किनारे

दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम,
और, चुप से तुम!

जैसे, रुक सी रही हो, इक नदी,
चीख कर, खामोश सी हो, इक सदी,
ठहर सा रहा हो, वक्त का दरिया,
गहराता सा, एक संशय,
इक-इक पल, लिए कितने आशय,
पर, संग, बड़े बेखबर से हम,
और, गुम से तुम!
 
दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम..

जैसे, खुद में छुपी इक कहानी,
साँसों में उलझी, अल्हर सी रवानी,
वक्त, बह चला हो, वक्त से परे,
टूटते से, वो दो किनारे,
छूटते, निर्दयी पलों के, वो सहारे,
पर, कितने, अन्जान थे हम,
और, चुप से तुम!

दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम..

अब, वही, यादों के अवशेष हैं,
संचित हो चले, जो वो पल शेष हैं,
बहा ले चला, वक्त का दरिया,
ना जाने, तुझको कहाँ,
नजरों से ओझल, है वो कारवाँ,
पर, उन्ही ख़ामोशियों में हम,
और, संग हो तुम!

दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम,
और, चुप से तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 14 March 2021

दोराहों पर

साथ चले होते, कुछ पल,
संशय के उन दोराहों पर, काश!
था, वहीं कही!
नीला सा, अपना भी आकाश!

हठात्, करता क्या अम्बर,
अकस्मात्, टूटा था इक विश्वास,
निर्णय-अनिर्णय के, उस दोराहे पर,
उभर आए, कितने ही सागर,
व्याकुल, लहर-लहर!

ज्यूँ, सावन में, हो पतझड़,
पात-पात, टूट बिखरे राहों पर,
मन्द हो चला हो, सावन का माधुर्य,
सांसें उखरी हों, उम्मीदों की,
अन्तः, टूटा हो स्वर!

सुलझा लेना था, संशय,
दोराहों को, दे देना था आशय,
एक पथ, पहुँचा देती मंजिल तक,
सहज, दूर होता असमंजस,
राहों में, ठहर-ठहर!

पर, हावी थी इक जिद,
अहम, प्रभावी था निर्णय पर,
रिश्ते शर्मसार हुए थे, दोराहों पर,
संज्ञा-शून्य हुए, मानव मूल्य,
तिरस्कृत, हो कर!

दर्पण, अक्श दिखाएगा,
तुझसे वो जब, नैन मिलाएगा,
पूछेगा सच, क्यूँ छोड़ा तुमने पथ?
डुबोई क्यूँ, तुमने इक नैय्या,
साहिल पर, लाकर!

साथ चले होते, कुछ पल,
संशय के उन दोराहों पर, काश!
था, वहीं कही,
नीला सा, अपना भी आकाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 1 January 2021

नव-परिचय

हाथ गहे, अब सोचे क्या! ओ अपरिचित!
माना, अपरिचित हैं हम-तुम,
पर, ये कब तक?
कुछ पल, या कि सदियों तक!

देखो ना, तुम आए जब, द्वार खुले थे सब!
सब्र के बांध, टूट चुके थे तब,
अ-परिचय कैसा?
नाहक में, ये संशय कब तक?

आओ बैठो, शंकित मन को, धीर जरा दो!
दुविधाओं को, तीर जरा दो,
आस जरा ले लो!
संशय में, पीड़ पले कब तक?

अब सोचे क्या, नव-परिचय की यह बेला?
दो हाथों की, इक गाँठ बना,
इक विश्वास जगा,
ये सांस चले, संग सदियों तक!

हर्ष रहे, नव-वर्ष मनें, परिचय की गाँठ बंधे,
चैन धरे, रहे फिर हाथ गहे,
कोई नवताल सुनें,
कुछ पल क्या? सदियों तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 12 January 2020

युग के युवा

युगद्रष्टा हो तुम, हो इस युग के तुम युवा,
तुम ही हो, इस युग के निर्णायक,
इक युग निर्माण के, तुम ही हो गवाह,
हो तुम, इस युग के युवा!

युगों की बली चढ़ी जब, जन्म तेरा हुआ,
हर युग में रावण, तूने ही संहारा,
युग की जिम्मेदारी का, कर तू निर्वाह,
हो तुम, इस युग के युवा!

हर युग में थी बाधाएं, तुमने ही पाई राहें,
तुमने ही दी, युग को नई दिशाएँ,
क्षण भर विचलित, तू ना कभी हुआ,
हो तुम, इस युग के युवा!

तुझ में प्रतिभा, तुझ में ही विलक्षणताएँ,
विवेकानन्द, तुम्ही तो कहलाए,
शून्य को तुमने ही, था व्योम बनाया,
हो तुम, इस युग के युवा!
हट के हो तुम, फिर क्यूँ भटके हो तुम?
अंजाने में, क्यूँ संशय में हो तुम,
युग लिखना है तुझे, तू कलम उठा,
हो तुम, इस युग के युवा!

राम तुम्हीं, कृष्ण तुम्हीं, युग तुमनें गढ़ा,
बाधा के, हर पर्वत पर तू चढ़ा,
संस्कारी ये भारत, तुझसे ही बना,
हो तुम, इस युग के युवा!

सारथी हो तुम, पौरुष और पुरुषार्थ के,
ध्वजवाहक, युग के सम्मान के,
हर युग तू जीवन, परमार्थ ही जिया,
हो तुम, इस युग के युवा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 10 March 2019

अपरिचित या पूर्व-परिचित

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

हो जाने-पहचाने, या अंजाने से,
कुछ अपने हो, या हो बिल्कुल बेगाने से,
परिचय की, किस परिधि में आते हो,
अविस्मृत, यादों में हरपल रहते हो,
कहो ना, मेरे क्या लगते हो तुम?

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

मन की घाटी में, फलीभूत होते हो,
पर्वत पर घटाओं जैसे, घनीभूत होते हो,
कोई सर्द हवाओं से, अनुभूत होते हो,
विहँसते फूल जैसे, प्रतिभूत होते हो,
कहो ना, मेरे क्या लगते हो तुम?

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

संग निशा के, तुम जग पड़ते हो,
चुप सा होता हूँ मैं, जब तुम कुछ कहते हो,
तिरोहित रातों में, हर-क्षण संग रहते हो,
सम्मोहित बातों से, मन को करते हो,
कहो ना, मेरे क्या लगते हो तुम?

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

घेरे दुविधा में, हर-पल रहते हो,
असमंजस की धारा में, संशय सा बहते हो,
बलखाती नदिया सी, बस बहते रहते हो,
सुस्त समीर सा, कभी छूकर बहते हो,
कहो ना, मेरे क्या लगते हो तुम?

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 30 March 2018

किसलय

नील नभ के निलय में, खिल आए ये किसलय...

नव आशा के निलय से,
झांक रही वो कोमल किसलय,
इक नई दशा, इक नई दिशा,
करवट लेती इक नई उमंग का,
नित दे रही ये आशय....

नील नभ के निलय में, खिल आए ये किसलय...

कोमल सी इन कलियों में,
जन्म ले रहा इक जीवट जीवन,
बाधाओं को भी कर बाधित,
प्रतिकूल स्थिति को अनूकूल कर,
जिएंगी ये बिन संशय....

नील नभ के निलय में, खिल आए ये किसलय...

पंखुड़ियों पर ही खेलती,
प्रचन्ड रवि की ये उष्मा झेलती,
स्वयं नव ऊर्जा संचित कर,
जीने के ये खुद मार्ग प्रशस्त करती,
सुकोमल से ये किसलय....

नील नभ के निलय में, खिल आए ये किसलय...

Tuesday, 20 March 2018

संशय

कुछ पूछे बिन लौट आता है, मन बार-बार....

पलते हैं इस मन शंका हजार,
मन को घेरे हैं संशय, कर लेता हूं विचार!
क्या सोचेंगे वो! क्या समझेंगे वो? 
क्या होगा उनका व्यवहार?
गर, मन की वो बातें, रख दूं उतार!
फिर, लाखों संशय से मन घिर जाता है!
डरता है, घबराता है, सकुचाता है.....
जाता है उन राहों पे हर-बार....

कुछ पूछे बिन लौट आता है, मन बार-बार....

फिर करता हूं मन को तैयार,
संशय में जीता, संशय में मरता हूं यार?
क्या संशय में मिल पाएंगे वो?
क्या यह संशय है बेकार?
या त्याग दूं संशय, हो जाऊँ बेजार!
फिर, संशय की बूंदों से मन घिर जाता है!
भीगता है, रुकता है, फिर चलता है...
जाता है भीगी राहों पे हर-बार....

कुछ पूछे बिन लौट आता है, मन बार-बार....