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Thursday, 29 October 2020

कदम

प्रारम्भ के, डगमग करते, वो दो कदम....
रहे वही निर्णायक!

चल पड़े जो, अज्ञात सी इक दिशा की ओर,
ले चले, न जाने किधर, किस ओर!
अनिश्चित से भविष्य के, विस्तार की ओर!
साथ चलता, इक सशंकित वर्तमान,
कंपित क्षण, अनिर्णीत, गतिमान!
इक स्वप्न, धूमिल, विद्यमान!

डगमग सी आशा, कभी गहराई सी निराशा,
लहरों सी उफनाती, कोई प्रत्याशा,
पग-पग, हिचकोले खाती, डोलती साहिल,
तलाशती, सुदूर कहीं अपनी मंजिल,
निस्तेज क्षितिज, लगती धूमिल!
लक्ष्य कहीं, लगती स्वप्निल!

जागृत, इक विश्वास, कि उठ खड़े होंगे हम, 
चुन लेंगे, निर्णायक दिशा ये कदम,
गढ़ लेंगे, स्वप्निल सा इक धूमिल आकाश,
अनन्त भविष्य, पा ही जाएगा अंत,
ज्यूँ, पतझड़, ले आता है बसन्त!
चिंगारी, हो उठती है ज्वलंत!

प्रारम्भ के, डगमग करते, वो दो कदम....
रहे वही निर्णायक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 9 May 2019

वही पगडंडियाँ

है ये वही पगडंडियाँ ....
चल पड़े थे जहाँ, संग तेरे मेरे कदम,
ठहरी है वहीं, वो ठंढ़ी सी पवन,
और बिखरे हैं वहीं, टूटे से कई ख्वाब भी,
चलो मिल आएं, उन ख्वाबों से हम,
उन्ही पगडंडियों पर!

है ये वही पगडंडियाँ ....
हवाओं नें बिखराए, तेरे आँचल जहाँ,
सूना सा है, आजकल वो जहां,
रह रही हैं वहाँ, कुछ चुभन और तन्हाईयाँ,
चलो मिटा आएं, उनकी तन्हाईयाँ,
उन्हीं पगडंडियों पर!

है ये वही पगडंडियाँ ....
तोड़ डाले जहाँ, मन के सारे भरम,
हुए थे जुदा, तुम और हम,
और दिल ने सहे, वक्त के कितने सितम,
चलो जोड़ आएं, हम वो भरम,
उन्हीं पगडंडियों पर!

है ये वही पगडंडियाँ ....
जहाँ वादों का था, इक नया संस्करण,
हुआ ख्वाबों का, पुनर्आगमण,
शायद फिर बने, नए भ्रम के समीकरण,
चलो फिर से करें, नए वादे हम,
उन्हीं पगडंडियों पर!

(Reincarnation of "वादों का नया संस्करण")
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 7 January 2019

खुद मैं @52

उम्र की सीढियां, न जाने, अंत हो कहाँ?

उस दरमियाँ, था मैं भी कभी जवाँ,
उत्थान ही, दिखता था हर पल,
मोर सा, आसमान, नाचता था सर पर,
टिकते थे कहाँ, राहों पे कदम,
मुट्ठियों में कैद, था जैसे ये सारा जहाँ,
यूँ ही नापते, उम्र की सीढियां!
इस मुकाम पर, पहुंचे हैं हम कहाँ?

उम्र की सीढियां, न जाने, अंत हो कहाँ?

अब भी यहाँ, वैसी ही है ये दुनियाँ,
दिन-रात की, एक सी है गति,
सूरज, चाँद, तारों की, बदली है न परिधि,
थम से गए, कुछ मेरे ही कदम,
खुल सी गई मुट्ठियाँ, छाने लगी झुर्रियाँ,
शायद, कुछ ही बची सीढियां!
या ढलान पर, आ रुके है हम यहाँ?

उम्र की सीढियां, न जाने, अंत हो कहाँ?

चटकने लगी, अपनी ही अस्थियाँ,
कुछ धुंधली, हुई है पुतलियाँ,
कुछ आइनें में, बदल सी गईं ये शक्ल,
अजान राह, बढ़ चले ये कदम,
जिन्दगी की सांझ, हो रही अब जवाँ,
झूलने लगी, है ये सीढियां!
क्या प्रारब्ध यही, अवसान का यहाँ?

उम्र की सीढियां, न जाने, अंत हो कहाँ?

Thursday, 25 October 2018

यही थे राह वो

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

वक्त के कदमों तले, यही थे राह वो,
गुमनाम से ये हो चले अब,
है साथ इनके, वो टिमटिमाते से तारे,
टूटते ख्वाबों के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

बिछड़े है जो कही, यही थे राह वो,
संग मीलों तक चले जो,
किस्से सफर के सारे, है आधे अधूरे,
तन्हा बातों के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

बदलते मौसमों मे, यही थे राह वो,
बहलाती हैं जिन्हें टहनियाँ,
अधखिले से फूल, सूखी सी कलियाँ,
शूल-काटो के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो....

Thursday, 18 October 2018

इंतजार

बस यूँ ही, उनसे हुई थी गुफ्तगू दो चार,
शायद उन्हें था, उस तूफाँ के गुजर जाने का इंतजार!

था मुझे भी एक ही इंतजाार...,
वो तूफाँ, गुजरता रहे इसी राह हर-बार!
होती रही अनवरत बारिशें,
दमकती रहे दामिनी, गरजते रहें बादल,
लड़खड़ाते रहें उनके कदम,
रुकते रहें, दर मेरे ही वो बार-बार.....

था सदियों किया मैंने इंतजार...,
एक पल, काश वो मुझ संग लेते गुजार!
सजाता मैं तन्हाई अपनी,
रोकता उन्हें, थामकर उनका ही आँचल,
या रोक देता वक्त के कदम,
मिन्नतें यही, मैं करता उनसे हजार....

था शायद उन्हें भी ये इंतजार....,
कोई सदा, कर गई थी उन्हे भी बेकरार!
दमकने लगी थी दामिनी,
गरजने लगे थे, कयामत के वही बादल,
निकल पड़े थे उनके कदम,
चौखट मेरे, आ पड़े वो पहली बार....

बस यूँ ही, उनसे हुई थी गुफ्तगू दो चार,
न था अब उन्हें, किसी तूफाँ के गुजरने का इंंतजार!

Wednesday, 8 August 2018

पड़ाव

स्नेहिल से कितने पड़ाव, और तय करेंगे हम?

चलो तय कर चुके, यह भी पड़ाव हम,
अब न जाने, ले जाए कहाँ ये बढते कदम!
भले ही ये फासले, कुछ हो चले हैं कम,
गंतव्य की ओर, जरा बढ़ चले हैं गम,
छोड़ आए है पीछे, यादों के वो घनेरे घन!

डोर रिश्तों के ये, खींचते हैं मेरे कदम,
यूं ही पड़ाव पर, रिश्तों में बंध गये थे हम!
भावनाओं में, थोड़े से बह गए थे हम,
तोड़ूंगा कैसे, ये भावनाओं के बंधन,
उम्र भर खीचेंगे, स्नेह के ये प्यारे से वन!

नये से पड़ाव पर, किसी से जुड़ेंगे हम,
अंजाने से शक्ल में, जब बेगाने से होंगे हम!
बरस ही जाएंगे, यादों के वो घनेरे घन,
कुछ पल भीग लेंगे, उन राहों पे हम,
मुड़-मुड़ के पीछे, यूं ही देखा करेंगे हम!

स्नेह के मोहक पड़ाव, कैसे छोड़ पाएंगे हम?

Friday, 14 April 2017

कुछ कदम और

साँस टूटने से पहले कुछ कदम मैं और चल लूँ,
मंजिलों के निशान बुन लूँ,
कांटे भरे हैं ये राह सारे,
कंटक उन रास्तों के मैं चुन लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

आवाज मंजिलों को लगा लूँ,
मूक वाणी मैं जरा मुखर कर लूँ,
साए अंधेरों के हैं उधर,
मशालें उजालों के मैं जला लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

ज्ञान की मूरत बिठा लूँ,
अज्ञानता के तिमिर अंधेरे मिटा लूँ,
बेरी पड़े हैं विवेक पे,
मन मानस को मैं जरा जगा लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

दर्द गैरों के जरा समेट लूँ,
विषाद हृदय के मैं जरा मिटा लूँ,
अब कहाँ धड़कते हैं हृदय,
हृदय को धड़कना मैं सीखा लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

प्रगति पथ प्रशस्त कर लूँ,
मुख बाधाओं के मैं निरस्त कर लूँ,
चक्रव्युह के ये हैं घेरे,
व्युह भेदन के गुण सीख लूँ,
बस कुछेक कदम और चल लूँ......

साँस टूटने से पहले बस कुछ कदम मैं और चल लूँ।

Saturday, 18 June 2016

धीरज

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुझमें इतना धीरज.........
कि यूँ ही तुम चलते रहो उम्र भर साथ,
बिन आशा, बिन आकांक्षा, बिन अभिलाषा,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
तुम सब झूठा हो जाने दो कहा-सुना,
कहना-सुनना क्या बस देखो इक सपना,
छल जाने दो उर को बस, रहो निराश उदास,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
अब उठे भी कहाँ से प्यार की बात,
असमंजस हों कदम-कदम पर उर में जब,
इस मन के एकाकी तारे को दो बस यूँ उछाल,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुममें इतना धीरज.........

Friday, 15 April 2016

आपके कदम

आप रख दें जो कदम, जिन्दगी हँस दे फिर वहाँ !

कदम आपके पडते हों जहाँ,
शमाँ जिन्दगी की जल उठती हैं वहाँ,
गुजरती हैं तुझसे ही होकर चाँदनी,
आपके साथ ही चला तारों का ये कारवाँ।

चाँद का रथ आपकी दामन के तले,
नूर उस चाँद का आपके साथ जले,
तेरी कदमों के संग निशाँ जिन्दगानी ये चले,
शमाँ जलती ही रहे जब तलक आप कहें।

तम के साए बिखरे हैं बिन आपके,
बुझ रहे हैं ये दिए बिन आस के,
बे-आसरा हो रहा चाँद बिन आपके,
जर्रे-जर्रे की रुकी है ये साँसे बिन आपके।

आप रख दें जो कदम, जिन्दगी हँस दे फिर वहाँ !

Tuesday, 22 March 2016

बेमतलब कोई बात बने

बेमतलब ही आँचल स्नेह का मिल जाए तब कोई बात बने!

वो कहते कुछ अपनी कह लूँ तब कोई बात बने!
साथ कहाँ कोई देता जग में यूँ ही,
यूँ बिन मतलब के बात यहाँ करता क्या कोई?
सबकी अपनी धुन सबकी अपनी राह,
मतलब की है सब यारी मतलब की सब बात,

बेमतलब की बातें दिल की कोई सुन ले तब बात बने।

वो कहते दो चार कदम मैं चल लूँ तब साथ बने!
क्या कदमों का चलना ही जीवन है?
दो चार कदम संग ढ़लना ही क्या जीवन है?
सबकी अपनी चाल सबका अपना रोना है,
जीवन बस इक राग, साथ-साथ जिसको गाना है।

बेमतलब ही कोई संग गीत गुनगुना ले तब कोई बात बने।

बेमतलब ही साया प्यार का मिल जाए तब कोई बात बने!

Sunday, 20 March 2016

भटकता मन

भीड़ मे इस दुनियाँ की,
एकाकी सा भटकता मेरा मन......

तम रात के साए में,
कदमों के आहट हैं ये किसके,
सन्नाटे को चीरकर,
ज उठे हैं फिर प्राण किसके।

चारो तरफ विराना,
फिर धड़कनों में बजते गीत किसके,
मन मेरा जो आजतक मेरा था,
अब वश में किस कदमों की आहट के।

टटोलकर मन को देखा तब जाना...

वो तो मेरा एकाकी मन ही है
भटक रहा है जो इस रात के विराने में,
वो तो हृदय की गति ही मेरी है,
धड़क रही जो बेलगाम अश्व सी अन्तः में।

भीड़ मे इस दुनियाँ की,
एकाकी सा भटकता मेरा मन......

Saturday, 6 February 2016

दहलीज पर कदम

दहलीज पर रखती कदम,
हसींन उम्मीदों की डोर संग,
मृदुल साँसें हृदय में बाँधे,
क्यारियों सी खुद को सजाए,
आँचल में कुछ याद छुपाए।

दहलीज वही जीवन की,
नेपथ्य की गूँज अब वहाँ नहीं,
समक्ष भविष्य की आवाजें,
दीवारों में चुनी हुई कुछ सांसें,
तू सोचती क्या आँचल फैलाए।

इक नई दुनियाँ यह तेरी,
करनी है रचना खुद तुमको ही,
बिखेरनी है खुशबु अपनी,
रंग कई भरने हैं तुझको ही,
दहलीज कहती ये दामन फैलाए।