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Saturday, 22 October 2022

ले चला कौन

बड़ा ही मौन, मन का वो भीनापन,
ले चला कौन!
वो, अपनत्व और अपनापन!

शायद, बरस चुके हैं, बादल!
बिखर चले हैं, घन,
इक शून्य सा है, अन्दर,
ले चला कौन,
उन बादलों से, वो भीगापन!

यूं, शब्द सारे, हो चले हैं गूंगे!
क्यूं, लबों को ढूंढें?
हैं पुकार सारे, बेअसर,
ले चला कौन,
मुखर शब्दों से, वो पैनापन!

बेनूर, बेरंग सी मेरी परछाईं,
संग, बची है, बस,
वे हंस रही मुँह फेरकर,
ले चला कौन,
इस परछाईं से, मेरी लगन!

अब कहां, आती है वो सदा!
रंग, नैनों से जुदा,
राह, खुद गए हैं मुकर,
ले चला कौन,
सदाओं से, वो दिवानापन!

बड़ा ही मौन, मन का वो भीनापन,
ले चला कौन!
वो, अपनत्व और अपनापन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 9 March 2020

पहाड़ों पे

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

विशाल हृदय, वो स्नेह भरा दामन, 
इक सम्मोहन, वो अपनापन,
विस्मित करते, वो आकर्षण के पल,
बसे, नज़रो में हैं, हर-पल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

रोक रही राहें, खुली पर्वत सी बाँहें,
इक परदेशी, लौट कैसे जाए,
यूँ बांध गए थे, पाँवों में बेरी वो पल,
था तिलिस्म कोई, उस पल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

संदेश कोई, ले आई थी मंद पवन, 
मैं, एकाग्र-चित्त, ध्यान मग्न,
सांध्य किरण, लाई थी इक सिहरन,
ठहरे वो पल, थे बड़े चंचल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
.................................................
"पहाड़" हमेशा से ही हमारी अनुभूतियों को सजग करने में सक्षम रहे हैं,  जब भी इनकी ऊच्च शिखरों को देखता हूँ तो अनायास ही उस ओर खींचा चला जाता हूँ और लगता है जैसे "खुद को छोड़ आया हूँ उन पहाड़ों में ...."  -  पहाड़ों में 

Sunday, 2 June 2019

सौंधी मिट्टी

बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!

सौंधी सी ये खुश्बू, है अपनेपन की,
अटूट संबंधो और बंधन की,
अब भस्म हो चुके जो, उस अस्थि की,
बिछड़े से, उस आलिंगन की,
खींच लाते हैं वो ही, फिर चौखट पर!

सौंधी सी ये खुशबू, है इस मिट्टी की,
धरोहर, है जिनमें उन पुरखों की,
निमंत्रण, उनको दे जाती हैं जो अक्सर,
बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी वो ही खुश्बू, मिट्टी की पाकर!

सौंधी सी ये खुश्बू, है संस्कारों की,
संबंधों के, उन शिष्टाचारों की,
छूट चुके हैं जो अब, उन गलियारों की,
बचपन के, नन्हें से यारों की,
पुकारते हैं जो, फिर रातों में आकर!

सौंधी सी खुश्बू, है उन उमंगों की,
तीन रंगों में रंगे, तिरंगों की,
स्वतंत्रता व स्वाभिमान, के जंगों की,
बासंती से, खिलते रंगों की,
लोहित वो मिट्टी, बुलाती है आकर!

बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 10 November 2016

अतीत हूँ मैं

अतीत हूँ मैं बस इक तेरा, हूँ कोई वर्तमान नहीं...
तुमको याद रहूँ भी तो मैं कैसे,
मेरी चाहत का तुझको, है कोई गुमान नहीं,
झकझोरेंगी मेरी बातें तुम्हें कैसे,
बातें ही थी वो, आकर्षण का कोई सामान नहीं।

मेरी आँखों के मोती बन-बनकर टूटे हैं सभी,
सच कहता हूँ उन सपनों में था मुझको विश्वास कभी,
सजल नयन हुए थे तेरे, देखकर पागलपन मेरा,
अब हँसता हूँ मैं यह कहकर "लो टूट चुका बन्धन मेरा!"
अतीत के वो क्षण, अब मुझको हैं याद नहीं।

क्या जानो तुम कि एक विवशता से है प्रेरित...
जीवन सबका, जीवन मेरा और तेरा !
पर यह विवशता कब तक रौंदेगी जीवन को भी,
हो जाएंगे आँखों से ओझल जीवन के ये पृष्ठ सभी,
नव-यौवन की ये हलचल, हो जाएंगी खाक यहीं।

अपनाने में तुमको मैंने अपनेपन की परवाह न की,
पर क्रंदन सुनकर भी मेरी, तूने इक आह न की,
आह मेरे अब उभरे हैं बनकर गीत,
पर दुनिया मेरे गीतों में अपनापन पाए भी तो क्या?
बोल मेरे उन गीतों के, रह जाने हैं बस यहीं।

अतीत हूँ मैं बस इक तेरा, हूँ कोई वर्तमान नहीं.....

Monday, 11 April 2016

मूक प्राण

मूक प्राणों के निर्णय क्या ऐसे तय होते हैं जीवन में?

गुमसुम सी सजनी वो हाथों में मेंहदी रचकर,
इक सशंक जिज्ञासा पलती मन के भीतर,
अपरिचित सी आहट हर पल मन के द्वारे पर,
क्या वो हल्दी निखरेगी सजनी के तन पर?

द्वार हृदय के बरबस खोल रखें हैं उस सजनी नें,
कठिन परीक्षा देनी है उसे इक अनजाने को,
अपनेपन की परिभाषा इक नई लिखनी है उसको,
क्या वो अपरिचित अपनाएगा उस भाषा को?

मुक्ति भाव खोए से है सजनी की जड़ आँखों में,
भविष्य धुमिल है उसकी घनघोर कुहासों में,
पाँव थमें है स्तंभ शेष से, असमंजस है उसके मन में,
क्या मूक प्राणों के निर्णय ऐसे होते हैं जीवन में?

Monday, 15 February 2016

स्पर्शानुभूति

स्पर्श किया किसी ने दामन,
पीठ के पीछे से चुपके से,
कौंधी कहीं तब मेरी चितवन,
महसूस हुआ जैसे कंधों पर,
अपनी सी गर्माहट किसी ने रख दी।

उस स्पर्श मे कैसा अपनापन,
चल पड़ा परिमल का झोंका,
गूँजी पड़ीं फिर खिलखिलाहट,
टूक-टूक होकर बिखरा सन्नाटा,
निखरे होठ जब मर्माहट उसने रख दी।

स्पर्श किया था उसने जीवन,
स्पर्शानुभूति की सिलवटे मन में,
हृदय मंदार मंद मंद मुस्काता,
नींव रिश्तों की रखी तनमन में,
सिलसिले ख्वाबों के बनी हकीकत सी।

Monday, 8 February 2016

अजनबी

अजनबी से हर चेहरे यहाँ दिखते,
अजनबी से लोग बातें भी अजनबी सी करते,
सूबसूरत से किस्से लेकिन पराए से लगते।

अजनबी शहर ये रीत अजनबी से,
दीवानगी अजनबी सी मुफलिसी अजनबी से,
चेहरों पे चेहरे लगे हर किसी के यहाँ दिखते।

अजनबी लोग क्युँ अक्श सोचता मेरा!
दिखते सब हैं इक जैसे, पर सारे यहाँ अजनबी,
बेगानों की बस्ती मे रिश्ते भी अजनबी से लगते। 

गैरों से अपने अजनबी सा अपनापन,
रास्तोें की आहटें, रिश्तों की गर्माहटें यहाँ अजनबी,
खामोशियाँ तोड़ती हैं पत्तियों की बस सरसराहटें।