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Wednesday, 12 May 2021

उनका ख्याल

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

समेट ले, कोई कैसे समुन्दर,
रोक लें कैसे, आती-जाती सी चंचल लहर,
दग्ध सा, मैं इक विरान किनारा,
उन्हीं लहरों से हारा!

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

यूँ तो रहे संग, सदियों मगर,
ज्यूँ, झौंके पवन के, बस गुजरते हों छूकर,
थका, मुग्ध सा, मैं तन्हा बंजारा,
उन्ही, झौकों से हारा!

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

अनगिनत, सितारे गगन पर,
चल दिए चाँद संग, इक सुनहरे सफर पर,
तकूँ, दुग्ध सा, मैं छलका नजारा,
उन्हीं नजारों से हारा!

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

कोई कैसे, समेट ले ये सफर,
गुजरती है, इक याद संग, जो इक उम्र भर,
स्निग्ध सा, मैं उस क्षण का मारा,
उन्हीं ख्यालों से हारा!

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 9 April 2021

उभर आओ ना

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत,
सिमटोगे, लकीरों में, कब तक!

झंकृत, हो जाएं कोई पल,
तो इक गीत सुन लूँ, वो पल ही चुन लूँ,
मैं, अनुरागी, इक वीतरागी,
बिखरुं, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

आड़ी तिरछी, सब लकीरें,
यूँ ही उलझे पड़े, कब से तुझको ही घेरे,
निकल आओ, सिलवटों से,
यूँ देखूँ, मैं कब तक! 
   
उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

उतरे हो, यूँ सांझ बन कर,
पिघलने लगे हो, सहज चाँद बन कर,
यूँ टंके हो, मन की गगन पर,
निहारूँ, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

खोने लगे हैं, जज्बात सारे,
भला कब तक रहें, ख्वाबों के सहारे,
नैन सूना, ये सूना सा पनघट,
पुकारूँ, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत,
सिमटोगे, लकीरों में, कब तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 7 September 2020

चाँद चला अपने पथ

वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!

बोल भला, तू क्यूँ रुकता है?
ठहरा सा, क्या तकता है?
कोई जादूगरनी सी, है वो  स्निग्ध चाँदनी,
अन्तः तक छू जाएगी,
यूँ छल जाएगी!

वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!

कुछ कहता, वो भुन-भुन-भुन!
कर देता हूँ मैं, अन-सुन!
यथासंभव, टोकती है उसकी ज्योत्सना,
यथा-पूर्व जब रात ढ़ला,
यूँ कौन छला?

वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!

दुग्ध सा काया, फिर भरमाया,
चकोर के, मन को भाया
पाकर स्निग्ध छटा, गगण है शरमाया,
महमाई फिर निशिगंधा,
छल है छाया!

वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 2 August 2019

निःस्तब्ध रात

निःशब्द कर मुझे, निरंतर ढ़ल रही थी!
निःस्तब्ध सी, वो रात!

निरुत्तर था, उसके हर सवाल पर मैं,
कह भी, कुछ न सका, उसके हाल पर मैं!
निःस्तब्ध, कर गई थी वो रात!

डाल कर, बस इक अंधेरी सी चादर,
तन्मयता से, निःस्तब्ध खामोशी पिरो कर!
रात को, भुला दी थी किसी ने!

वो ही जख्म अब, नासूर सा था बना,
दिन के उजाले से ही, मिले थे जख्म काले!
निरंतर, सिसकती रही थी रात!

दुबक कर, चीखते चिल्लाते निशाचर,
निर्जन तिमिर उस राह में, ना  कोई रहवर!
पीड़ में ही, घुटती रही थी रात!

उफक पर, चाँद आया था उतर कर,
बस कुछ पल, वो तारे भी बने थे सहचर!
लेकिन, अधूरी सी थी वो साथ!

गुम हुए थे तारे, रात के सारे सहारे,
निशाचर सोने चले थे, कुछ पल शोर कर!
अकेली ही, जगती रही वो रात!

क्षितिज पर, भोर ने दी थी दस्तक,
उठकर नींद से, मै भी जागा था तब तक!
आप बीती, सुना गई थी रात!

निःशब्द कर मुझे, निरंतर ढ़ल रही थी!
निःस्तब्ध सी, वो रात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 24 July 2019

चाँद के पार

धवलित है ये रात, हम हैं तैयार चलो....

कहते थे तुम, चाँद के पार चलो,
अब है हम तैयार चलो,
चाँद के पीछे ही कहीं, तुम आन मिलो,
चलो, अब रह जाएँ वहीं,
यूं, छुप जाएँ कहीं,
अब तो, चाँद के पार चलो...

विचलित है ये रात, हम हैं तैयार चलो....

तारे हैं वहीं, ख्वाब सारे हैं वहीं, 
ये सपन, हमारे हैं वहीं,
बहकी है ये कश्ती, अब सहारे हैं वहीं,
दुग्ध चाँदनी सी है रात,
ले, हाथों में हाथ,
संग मेरे, चाँद के पार चलो...

विस्मित है ये रात, हम है तैयार चलो....

वो थी, अधूरी सी इक कहानी,
इस दुनियाँ से, बेगानी,
सिमटती थी जो, किस्सों में कल-तक,
बिखरे हैं, वही जज्बात,
उम्र, का हो साथ,
संग-संग, चाँद के पार चलो...

धवलित है ये रात, हम है तैयार चलो....

(चंद्रयान-2 के सफल प्रक्षेपण से प्रभावित रचना)

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 27 October 2018

चाँद तक चलो

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

नभ को लो निहार तुम,
पहन लो, इन बाँहों के हार तुम,
फलक तक साथ चलो,
एक झलक, चाँद की तुम भर लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

प्राणों का अवगुंठण लो,
इस धड़कन का अनुगुंजन लो,
भाल जरा इक अंकन लो,
स्नेह भरा, मेरा ये नेह निमंत्रण लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

यूं हुआ जब मैं निष्प्राण,
बिंधकर उस यम की सुईयों से,
भटके दर-दर तुम कहते,
पिय वापस दे दो, यम सूई ले लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

ये झौंके हैं शीत ऋतु के,
ये शीतल मंद बयार मदमाए से,
ये अंग प्रत्यंग सिहराए से,
ये उन्माद, महसूस जरा कर लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

सिहरन ले आया समीर,
तुम संग चलने को प्राण अधीर,
पग में ना अब कोई जंजीर,
हाथ धरो, प्रिय नभ के पार चलो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

Thursday, 20 September 2018

कहकशाँ

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

बादलों के पीछे, उस चाँद के सरीखे,
छुपती छुपाती, तू ही तू बस दिखे,
मन को न इक पल भी गंवारा,
कि अस्तिव, कहीं भी नही है तुम्हारा....

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

होती न तुम तो, बरसते न मेघ ऐसे,
उड़ते न फिर, मेघों से केश ऐसे,
भटकते न, बादल ये आवारा,
न ही भीगता, बेजार सा ये मन बेचारा...

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

तारों की पूंज में, कहीं तुम हो छुपी,
हो रही है जहाँ, मद्धम सी रौशनी,
चमकती वो आँखे ही हैं तेरी,
है तुमसे ही, कहकशाँ सा सुंदर नजारा....

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

रिमझिम हुई, जब कहीं भी बारिशें,
राग मल्हार जब कहीं भी छिड़े,
खनकी है आवाज बस तेरी,
बजते हैं सितार, हो जैसे सुर तुम्हारा.... 

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

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कहकशाँ का अर्थ :
- आकाश में दूरस्थ तारों का ऐसा समूह जो धुँधले बादल जैसा दिखाई देता है; आकाशगंगाछायापथ; (मिल्की वे)।

Friday, 15 April 2016

आपके कदम

आप रख दें जो कदम, जिन्दगी हँस दे फिर वहाँ !

कदम आपके पडते हों जहाँ,
शमाँ जिन्दगी की जल उठती हैं वहाँ,
गुजरती हैं तुझसे ही होकर चाँदनी,
आपके साथ ही चला तारों का ये कारवाँ।

चाँद का रथ आपकी दामन के तले,
नूर उस चाँद का आपके साथ जले,
तेरी कदमों के संग निशाँ जिन्दगानी ये चले,
शमाँ जलती ही रहे जब तलक आप कहें।

तम के साए बिखरे हैं बिन आपके,
बुझ रहे हैं ये दिए बिन आस के,
बे-आसरा हो रहा चाँद बिन आपके,
जर्रे-जर्रे की रुकी है ये साँसे बिन आपके।

आप रख दें जो कदम, जिन्दगी हँस दे फिर वहाँ !

Wednesday, 30 March 2016

मलिन हुआ वो धवल चाँद

आज रूठा हुआ क्युँ मुझसे मेरा चाँद वो?

वो धवल चाँद मलिन सा दिख रहा,
प्रखर आभा बिखेरती थी जो रात को,
जा छुपा घने बादलों की ओट में वो,
क्या शर्म से सिमट रही है चाँद वो?

आज रूठा हुआ क्युँ मुझसे मेरा चाँद वो?

किसी अमावस की उसको लगी नजर,
धवल किरणें उसकी छुप रही हैं रात को,
निहारता प्यासा चकोर नभ की ओर,
क्या ग्रहण लग गई है उस चाँद को?

आज रूठा हुआ क्युँ मुझसे मेरा चाँद वो?

सिमट रही कुम्हलाई सी वो बादलों में,
पूंज किरणों की बिखर गई है आकाश में,
अंधकार बादलों के छट गए हैं साथ में,
क्या नभ प्रेम में डूबी हुई है चाँद वो?

आज रूठा हुआ क्युँ मुझसे मेरा चाँद वो?

Sunday, 21 February 2016

इक लम्हा मधुर चाँदनी

अरमान यही, इक लम्हा चाँदनी तेरे मुखरे पे देखूँ सनम।

फलक पे मुखरित चाँद ने, डाला है फिर से डेरा,
चलो आज तुम भी वहाँ, हम कर लें वहीं बसेरा,
गुजर रही है दिल की कश्ती उस चाँद के पास से,
तुम आज बैठी हों क्युँ, यहाँ बोझिल उदास सी।

अरमान यही, इक लम्हा चाँदनी तेरे मुखरे पे देखूँ सनम।

फलक निखर मुखर हुई, चाँद की चाँदनी के संग,
 कह रही है ये क्या सुनो, आओ जरा तुम मेरे संग,
निखर जाए थोड़ी चांदनी भी नूर में आपके सनम,
इक लम्हा मधुर चाँदनी, तेरे मुखरे पे निहारूँ सनम।

अरमान यही, इक लम्हा चाँदनी तेरे मुखरे पे देखूँ सनम।

प्रखर चाँदनी सी तुम छाई हो दिल की आकाश पे,
मन हुआ आज बाबरा, छूना चाहे तुझको पास से,
दिल की कश्ती भँवर में तैरती सपनों की आस से,
तुम चाँद सम फलक पे छा जाओ मीठी प्रकाश से।

अरमान यही, इक लम्हा चाँदनी तेरे मुखरे पे देखूँ सनम।