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Wednesday, 19 August 2020

सहिष्णुता

रुक नही सकता, सहिष्णुता के नाम पर,
रक्त है तो, उबल भी सकता है ये!

ओढ़ कर चादर, हमनें झेले हैं खंजर,
समृद्ध संस्कृति और विरासत पर,
फेर लूँ, मैं कैसे नजर!
बर्बर, कातिल निगाहें देखकर!
विलखता विरासत छोड़कर!
रक्त है, मेरे भी नसों में,
उबल जाता है ये!

रुक नही सकता, सहिष्णुता के नाम पर!

खोखली, धर्म-निरपेक्षता के नाम पर,
वे हँसते रहे, राम के ही नाम पर,
पी लूँ, कैसे वो जहर!
सह जाऊँ कैसे, उनके कहर,
राम की, इस संस्कृति पर!
रक्त है, मेरे भी नसों में,
उबल जाता है ये!

रुक नही सकता, सहिष्णुता के नाम पर!

गढ़ो ना यूँ, असहिष्णुता की परिभाषा,
ना भरो धर्मनिरपेक्षता में निराशा,
जागने दो, एक आशा,
न आँच आने दो, सम्मान पर,
संस्कृति के, अभिमान पर,
रक्त है, मेरे भी नसों में,
उबल जाता है ये!

रुक नही सकता, सहिष्णुता के नाम पर,
रक्त है तो, उबल भी सकता है ये!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 28 January 2020

धरोहर - इक चुनौती

ये सिरमौर मेरा, ये अभिमान हैं हमारे,
गर्व हैं इन पर हमें, ये हैं हमारे.... 

वर्षों पुरातन, सभ्यता हमारी,
आठ सौ नहीं, हजारों सदियाँ गुजारी,
नाज मुझे, मेरी संस्कृति पर,
कुचलने चले तुम, मेरे सारे धरोहर,
पर हैं जिन्दा, ये आज भी,
लिए गोद में, तेरी हर निशानी, 
ज़ुल्म की, तेरी हर कहानी,
और संजोये, नैनों में सपने सुनहरे,
कितनी ही, काँटों से गुजरे....

यूँ ही रहेंगे डटे, हमेशा ये सामने तेरे,
भले ये पथ, कंटकों से गुजरे...

जलती राह में, बिखरे अंगारे,
जलते रहे, भटके ना ये कदम हमारे,
विपत्तियों में, अंधेरों ने घेरे,
हर कदम, नए उलझनों के फेरे,
हर युग, चुनौतियों से गुजरे,
मिट ना सकी, संस्कृति हमारी,
जिन्दा है, ये धरोहर हमारी,
गर्व हमको, हैं यही अभिमान मेरे,
हम हर, अभिशाप से उबरे....

हिमगिरी सा, है खड़ा ये सामने तेरे,
भले ये पथ, कंटकों से गुजरे...

मिटाने चले थे, वो जो सभ्यता,
वो लूटेरा! भला क्या हमको लूटता,
कुछ लुटेरे, रह गए हैं देश में,
ये उनके वंशज, बदले से वेश में,
उगलते हैं, अब भी आग वो,
छेड़ जाते हैं, अलग ही राग वो,
जरा गर, लेते है साँस वो,
इक चुनौती, वही अब सामने घेरे,
चल हम, रूप अपना धरें....

ये सिरमौर मेरा, ये अभिमान हैं हमारे,
गर्व हैं इन पर हमें, ये हैं हमारे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 4 January 2020

मंद समीर


मंद-मलय, सहलाते हैं जब रिश्तों को,
आशय, अर्थ कई मिल जाते हैं रिश्तों को,

जज़्बातों से बंधा इन्सान, बदलते दौर में,  खुद को नए ढ़ंग से तराशते हुए, जज़्बातों से जुड़ी हर चीज को सहेजना चाहता है। जरूरी है कि एक मंद-समीर हमेशा मन को छूकर, रिश्तों के रास्तों पर, हौले-हौले गुजरती रहे।

हौले-हौले सहलाते, गर रिश्तों को,
आश्रय, घर कई मिल जाते रिश्तों को,
ना ये लम्हे हावी होते, रिश्तों पर,
ना उठती पीर, रह-रह मन के पर्वत पर,
ना तिल-तिल कर, दरकते ये प्रस्तर,
ना चूर-चूर, होते ये पत्थर!

बदलावों के इस दौर में, इन्सान न बदले, ये संभव नहीं और इन चाहे-अनचाहे बदलावों से हमारे सामाजिक व मानवीय संबंध भी अछूते नही रह पाते । विकास की अंधी दौर में, कभी-कभी, हम संस्कारों से भी भटक जाते हैं ।

बदलाव, हर पल टीसता इक घाव,
काँटों सा चुभता, रिश्तों का रक्त-स्राव,
विघटित होते घन, बरसता ये मन,
बिखरते संबंध, सिक्कों की खन-खन,
चकाचौंध, अंतहीन सा पागलपन,
खोया सा इक, अपनापन!

ये बदलाव, जब हमारे सामाजिक और पारिवारिक सरोकारों से हमें दूर कर देते हैं तब विघटन की एक प्रक्रिया, एक अनचाहा बदलाव, उसी क्षण आरम्भ हो जाती है। जरूरत है, सोए हुए जज्बातों को जगाने की...

सोए हैं, जगाते रहिए हर जज़्बात,
खत्म हो चली, तो फिर से करिए बात,
मंद समीर, बह जाने दे इस द्वार,
है ये पवन अधीर, आ मना ले त्योहार,
डाल गले में, फिर बाहों के हार,
बसा ले, छोटा सा संसार!

संबंध, पर्व-त्योहार व सामाजिक सरोकार, किसी समाज के विकास का आईना होते हैं। ये आईना बोलते हैं और हमारा असली रूप हमारे सामने रखते हैं । ये हमारे संस्कारों को सहेजते हुए सतत् संस्कार-पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देते हैं ।

सूरत प्यारा, दिखलाएगा आईना,
जब संस्कार हमारा, दिखाएगा आईना,
समृद्ध होगी, हमसे ही संस्कृति,
दूर होंगें दुर्गण, खत्म होगी दुष्प्रवृति,
संस्कार जगेंगे, मिटेंगी कुरीति, 
चलती रहे, सदा यह रीति!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 13 October 2019

आत्मविस्मृति

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

समृद्ध संस्कृति, सुसंस्कृत व्यवहार,
प्रबुद्ध प्रवृत्ति, सद्गुण, सद्-विवेक, सदाचार,
हो चले हैं काल-कवलित, ये सारे संदर्भ,
यूँ घेर रहे है मुझको, अब मेरे ही दर्प,
बतला दे, वो ही पुरखों की बातें!

ओ! विस्मृत सी यादें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

भरमाया हूँ, तुझको ही भूला हूँ मैं,
सम्मुख हैं पंख पसारे, विस्तृत सा आकाश,
छद्म सीमाओं में, इनकी ही उलझा हूँ मैं,
नव-कल्पनाओं का, दिला कर भास,
मंथन कर, अपनी याद दिला दे!

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

उलझाए हैं, दिशाहीन सी ये राहें,
सपनों से आगे, दूर कहीं ये मन जाना चाहे,
भटका हूँ, इक उलझन में, दोराहे पर मैं,
तू यूँ तो ना उलझा, सोए विवेक जगा,
हाथ पकड़, कोई राह दिखा दे!

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

संग तुम थे, तो चाहत थी जिन्दा,
दूर हुए तुम जब से, हम खुद से हैं शर्मिन्दा,
हूँ सद्गुण से विरक्त, पीछे छूटा कर्म पथ,
विरासत अपनी ही, भूल चुका हूँ मैं,
संस्कार मेरे, मुझको लौटा दे!

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!
___________________________________
आत्मविस्मृति
[सं-स्त्री.] - अपने को भूल जाना; किसी फँसाव के चलते ख़ुद का ध्यान न रखना; बेख़ुदी।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 8 October 2019

रावण दहन

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

अगणित रावण, दहन किए आजीवन,
मनाई विजयादशमी, जब हुआ लंका दहन,
उल्लास हुआ, हर्षोल्लास हुआ,
मरा नहीं, फिर भी रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

हर वर्ष, नया स्वरूप धर आया रावण,
कर अट्टहास, करता मानवता पर परिहास,
कर नैतिक मूल्यों का, सर्वनाश,
अन्तःमन, ही बैठा रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

बदला चित्र, चरित्र ना बदला रावण,
बना एकानन, खुले आम घूमते हैं दशानन,
घृणित दुष्कर्म, करते ये ही जन,
विभत्स, कर्मों के ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

आज फिर, अट्टहास कर रहा रावण,
मन ही मन, मानवता पर हँस रहा रावण,
गुलाम है सब, मेरे ही आजीवन,
दंभ यही, भर रहा ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

लाख करो इनकी, प्रतीक का शमन,
चाहे अनंत बार करो, इस पुतले का दहन,
शमन न होंगे, ये वैचारिक रावण,
दंभ और दर्प, वाले ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

मन ही जननी, मन दुःख का कारण,
मार सकें गर, तो मारें अपने मन का रावण,
जीत सकें गर, तो जीत ले मन,
शायद, मर जाएंगे ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 26 September 2019

हुंकार

गूंज उठी थी ह्यूस्टन, थी अद्भुत सी गर्जन!
चुप-चुप सा, हतप्रभ था नेपथ्य!
क्षितिज के उस पार, विश्व के मंच पर, 
देश ने भरी थी, इक हुंकार?

सुनी थी मैंने, संस्कृति की धड़कनें,
जाना था मैंने, फड़कती है देश की भुजाएं,
गूँजी थी, हमारी इक गूंज से दिशाएँ,
एक व्यग्रता, ले रही थी सांसें!

फाख्ता थे, थर्राए दुश्मनों के होश,
इक भूचाल सा था, फूटा था मन का रोश,
संग ले रहा था, एक प्रण जन-जन,
विनाश करें हम, विश्व आतंक!

आतंक मुक्त हों, विश्व के फलक,
जागे मानवता, आत॔कियों के अन्तः तक,
लक्ष्य था एक, संग हों हम नभ तक,
संकल्प यही, पला अंत तक!

चाह यही, समुन्नत हों प्रगति पथ,
गतिमान रहे, विश्व जन-कल्याण के रथ,
अवसर हों, हाथों में हो इक मशाल,
रंग हो, नभ पे बिखरे गुलाल!

महा-शक्ति था, जैसे नत-मस्तक,
पहचानी थी उसने, नव-भारत की ताकत,
जाना, क्यूँ अग्रणी है विश्व में भारत!
आँखों से भाव, हुए थे व्यक्त!

गूंजी थी ह्यूस्टन, जागे थे सपने,
फलक पर अब, संस्कृति लगी थी उतरने,
हैरान था विश्व, हतप्रभ था नेपथ्य!
निरख कर, भारत का वैभव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 24 January 2016

वो प्रगति किस काम का?

वो प्रगति किस काम का?

मानवीय मुल्यों का ह्रास हो जब,
सभ्यता संस्कृति का विनाश हो जब,
आदरभाव अनादर से हो तिरस्कृत,
जहाँ सम्मान, अपमान से हो प्रताड़ित,
अमिट कर्म की सत्यनिष्ठा घट जाए,

वो प्रगति किस काम का?

विमुख मानव कर्मपथ से हो जाए,
नाशवान वक्त को धरोहर न बन पाए,
मिट पाए न अग्यान का तिमिर अंधकार,
द्वेश-कलेश, ऊँच-नीच मन से न निकले,
जन-मानस की जीवन आशा मिट जाए,

वो प्रगति किस काम का?

विनाश क्रिया का न हो मर्दन,
विलक्षण प्रतिभा का न हो संवर्धन,
सद्गुण सद्गति संन्मार्ग न निखरे,
जन जन मे विश्वास का मंत्र न बिखरे,
मानव प्रगति के नव आयाम न छू ले।

वो प्रगति किस काम का?