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Friday, 19 January 2024

अलिखित हस्तलिपि

अपितु, कठिन जरा!
पढ़ पाना,
जज्बातों की, अलिखित हस्तलिपि....

पीड़ बन, छलक पड़े जब संवेदना,
अश्रू, सिमटे ना,
कहती जाए, व्यथा की कथा,
सारे दर्द, सिलसिलेवार!

जटिल जरा,
मूक हृदय के, संघातो की ये संतति....

कोरों से छलके, जाए क्या कहके!
बतलाऊं कैसे?
कब इन्हें, शब्दों की दरकार?
वर्ण, लगे, बिन आकार!

है मूक बड़ा,
अनकहे जज्बातों की, ये प्रतिलिपि....

बूझे ही कब, जज्बातों की भाषा!
पाषाण हृदय,
जाने ही कब, मूक अभिलाषा,
अन्तः, पीड़ करे बेजार!

अपितु, कठिन जरा!
पढ़ पाना,
जज्बातों की, अलिखित हस्तलिपि....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 5 August 2022

संवेदना


जगाएगी, उम्र भर,
इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!
ये संवेदना!

संवेदनाओं से विमुख, रहा कौन?
बस चीर जाती है हृदय, किसी का मौन!
तड़पा जाती है, चेतना,
यूं चुभोती इक कसक, मन के आंगना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

गर न हो, तेरा, हृदय एक पाषाण,
शर्म हो, खुद को कहलाने में एक इन्सान,
सो ना चुकी हो, चेतना,
बींध जाएगी, मन को, किसी की वेदना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

गर सुन सको, तुम, उनकी चीखें,
आह, किसी की, आ तेरे कदमों को रोके,
पड़े, यूं नींद से जागना,
अन्त:करण, देने लगे तुझको उलाहना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

जगाएगी, उम्र भर,
इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!
ये संवेदना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 27 July 2022

खानाबदोश


मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे,
कितने ख्वाब, कितने अरमां, कितनी हसरतें,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

करता भी क्या, पंख लगे थे पैरों पर,
मुड़ जाता भी कैसे, मजबूरी हर कदमों पर,
रहा देखता, कभी, यूं रुक-रुक कर,
बहते राहों के, उन साहिल पर,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे...

अनसुनी, संवेदनाओं की सिसकियां,
अनकहे जज्बातों की, बिसरी सब गलियां,
पुकारती हैं कभी, अनुगूंज बनकर,
रोकते कहीं, टूटे वादों के गूंज,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे...

धीर धरे कैसे, और, आए कैसे होश,
वश के बाहर, बेवश सा इक खानाबदोश,
बना लेता, भंगुर, अरमानों का ठांव,
ढूंढता, उन्हीं हसरतों का छांव,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे,
कितने ख्वाब, कितने अरमां, कितनी हसरतें,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 12 November 2021

छाँव

तनिक छाँव, कहीं मिल जाए,
तो, जरा रुक जाऊँ!

यूँ तो, वृक्ष-विहीन इस पथ पर,
तप्त किरण के रथ पर,
तारों के उस पार, तन्हा मुझको जाना है,
इक साँस, कहीं मिल जाए,
दो पल, रुक जाऊँ!

काश ! कहीं, इक पीपल होता,
उन छाँवों में सो लेता,
पांवों के  छालों को, राहत के पल देता,
इक छाँव, कहीं मिल जाए,
दो पल, रुक जाऊँ!

वो कौन यहाँ जो छू जाए मन,
कौन सुने ये धड़कन,
बंजर से वीरानों में, फलते आस कहाँ,
इक आस, कहीं मिल जाए,
दो पल, रुक जाऊँ!

पथ पर, कुछ बरगद बोने दो,
पथ प्रशस्त होने दो,
चेतना के पथ पर, पलती हो संवेदना,
इक भाव, कहीं जग जाए,
दो पल, रुक जाऊँ!

तनिक छाँव, कहीं मिल जाए,
तो, जरा रुक जाऊँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 17 February 2021

कैसा भँवर

जाने क्यूँ? बह पड़े हैं, सारे भाव!
अन्तः, जाने कैसा है भँवर!
पीड़ असहज, दे रहे हृदय के घाव!
ज्यूँ फूट पड़े हैं छाले!

पर, अब तक, बड़ा सहज था मैं!
या, कुछ ना-समझ था मैं?
शायद, अंजाना सा, यह प्रतिश्राव,
आ लिपटा है मुझसे!

शायद, जाग रही, सोई संवेदना,
या, चैतन्य हो चली चेतना!
या, हृदय चाहता, कोई एक पड़ाव,
आहत होने से पहले!

जाने क्यूँ, अनमनस्क से हैं भाव!
अन्तः, उठ रहा कैसा ज्वर!
कंपित सा हृदय, पल्पित सा घाव!
ज्यूँ छलक रहे प्याले!

भँवर या प्रतिश्राव, तीव्र ये बहाव,
समेट लूँ, सारे बहते भाव!
रोक लूँ, ले चलूँ, ऊँचे किनारों पर,
बिखर जाने से पहले!

जरा, समेट लूँ, यह आत्म-चेतना,
फिर कर पाऊंगा विवेचना!
व्याकुल कर जाएगा, ये प्रतिश्राव,
संभल जाने से पहले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 16 December 2020

आसां नहीँ

आसां नही, किसी के किस्सों में समा जाना,
रहूँ मैं जैसा! हूँ मगर आज का हिस्सा,
कल के किस्सों में, शायद रह जाऊँ बेगाना!
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

जीवंत, एक जीवन, सुसुप्त करोड़ों भावना,
कितना ही नितांत, उनका जाग जाना!
कितने थे विकल्प, पर न थी एक संभावना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

मन की किताबों पर, कोई लिख जाए कैसे!
मौन किस्सों का हिस्सा, बन जाए कैसे!
कपोल-कल्पित, सारगर्भित सा मेरा तराना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

ये हैं चह-चहाहटें, है ये ही कल की आहटें,
जीवंत संवेदनाओं की, मूक लिखावटें!
सुने ही कौन, ये अनगढ़ा, मूक सा फ़साना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

क्यूँ कोई बनाए, किसी को याद का हिस्सा,
क्यूँ कोई पढ़े, कोई अनगढ़ा सा किस्सा,
क्यूँ कोई संभाले, किसी और की संवेदना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

पहर दोपहर, बढ़ा, असंवेदनाओं का शहर,
मान कर अमृत, पान कर लेना ये जहर,
रख संभालना, जीवंत भावना व संवेदना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 19 June 2020

मन हो चला पराया

मेरी सुसुप्त संवेेेेदनाओं को फिर पिरोने,
वो कौन आया?
मन हो चला पराया!

लचकती डाल पर,
जैसे, छुप कर, कूकती हो कोयल,
कदम की ताल पर,
दिशाओं में, गूंजती हो पायल,
है वो रागिनी या है वो सुरीली वादिनी!
वो कौन है?
जो लिए, संगीत आया!

जग उठी, सोई सी संवेदनाएँ,
मन हो चला पराया!

आँखें मूंद कोई,
कुछ कह गया हो, प्यार बनकर,
गिरी हो बूँद कोई,
घटा से, पहली फुहार बनकर,
है वो पवन, या वो है नशीला सावन!
वो कौन है?
जो लिए, झंकार आया!

जग उठी, सोई सी संवेदनाएँ,
मन हो चला पराया!

चहकती सी सुबह,
जैसे, जगाती है झक-झोरकर,
खोल मन की गिरह,
कई बातें सुनाती है तोलकर,
है वो रौशनी या वो है कोई चाँदनी!
वो कौन है?
जो लिए, पुकार आया!

मेरी सुसुप्त संवेेेेदनाओं को फिर पिरोने,
वो कौन आया?
मन हो चला पराया!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 26 November 2019

टूटा सा तार

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

संभाले, अनकही सी कुछ संवेदनाएं,
समेटे, कुछ अनकहे से संवाद,
दबाए, अव्यक्त वेदनाओं के झंकार,
अनसुनी, सी कई पुकार,
अन्तस्थ कर गई हैं, तार-तार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

कभी थिरकाती थी, पाँचो ऊंगलियाँ,
और, नवाजती थी शाबाशियाँ,
वो बातें, बन चुकी बस कहानियाँ,
अब है कहाँ, वो झंकार?
अब न झंकृत हैं, मेरे पुकार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

वश में कहाँ, किसी के ये संवेदनाएं,
खुद ही, हो उठते हैं ये मुखर,
कर उठते हैं झंकार, ये गूंगे स्वर,
खामोशी भरा, ये पुकार,
जगाता है, बनकर चित्कार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

ढ़ल चुका हूँ, कई नग्मों में सजकर,
बिखर चुका हूँ, हँस-हँस कर,
ये गीत सारे, कभी थे हमसफर,
बह चली, उलटी बयार,
टूट कर, यूँ बिखरा है सितार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

जज्ब थे, सीने में कभी नज्म सारे,
सब्ज, संवेदनाओं के सहारे,
बींधते थे, दिलों को स्वर हमारे,
उतर चुका, सारा खुमार,
शेष है, वेदनाओं का प्रहार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 6 October 2018

संवेदनाएं

विलख-विलख कर जब कोई रोता है,
क्यूँ मेरा उर विचलित होता है?
ग़ैरों की मन के संताप में,
क्यूँ मेरा मन विलाप करता है?
औरों के विरह अश्रुपात में,
बरबस यूँ ही क्यूँ....
द्रवित हो जाती हैं ये मेरी आँखें.....

परेशाँ करती है मुझको मेरी संवेदना!
संवेदनशीलता ही मुझको करती है आहत!
सिवा तड़प के पाता ही क्या है मन?
क्यूँ रोऊँ मैं औरों के गम में,
क्यूँ ढ़ोऊँ मैं बेवजह के ये सदमें,
बरबस यूँ ही क्यूँ.....
भीगे तन्हाई में ऐसे ये मेरी आँखें...

आहत मुझको ही क्यूँ कर जाते है?
संताप भरे वो पलक्षिण,
उन नैनों के श्रावित कण,
मेरे ही हृदय क्यूँ प्रतिश्राव दिए जाते हैं,
विमुख क्यूँ ना हो पाता हूँ मैं,
बरबस यूँ ही क्यूँ....
छलक सी जाती है ये मेरी आँखें....

सिवा तड़प के पाता ही क्या है मन?
काश! पत्थर सा होता ये मन,
न ही आहत करती मुझको ये संवेदनाएं,
भावुक झण भर भी ना ये होता,
पाता राहत की कुछ साँसें,
बरबस ही न यूं....
सैलाब सी उफनती ये मेरी आँखें......

Friday, 31 August 2018

प्रतिश्राव

वही तार
संवेदना के
बार-बार
क्यूं?
छेड़ते हो तुम,
अपनी ही
संवेदनाओं के
प्रतिश्राव
क्या!
इन आँखो में,
चाहते हो
देखना तुम...!

पीड़ा का
है ना
मुझको
तनिक भी भान,
मैं
गम से
हूँ बिल्कुल
अंजान,
दिखता हूँ
मैं जैसा,
तू वैसा ही
मुझको जान...

मुझ है
न कोई व्यथा,
न ही
दुख भरी
है मेरी
कोई भी कथा,
फिर
बार-बार
क्यूँ ?
पूछते हो
मुझसे
ये प्रश्न तुम,
जख्म
कोई नया,
क्यूँ ?
हरबार
कुरेदते हो तुम....!

छलक पड़ेंगी
अनायास ही
मेरी
ये आँखे
प्रतिश्राव होगा वह!
तुम्हारे ही,
स्नेह का,
इस प्यार में,
तुम्हारे प्रश्न ही
छलक कर
बह पड़ेंगे
मेरे अश्रुधार में....!

क्या यही?
चाहते हो तुम
क्यूँ?
अपनी ही
संवेदनाओं के
प्रतिश्राव
मेरी इन
आँखो में,
डालते हो तुम,
शायद!
चाहते हो
वही प्रतिश्राव
मेरी
कोमल से,
हृदय में,
देखना तुम...!

Thursday, 23 August 2018

दिल धड़कता ही नहीं

धड़कता ही नहीं ये दिल आज-कल...

संवेदन शून्य, संज्ञाविहीन सा ये दिल,
उर कंठ इसे गर कोई लगाता,
झकझोर कर धड़कनों को जगाता,
घाव कुछ भाव से भर जाता,
ये दिल! शायद फिर धड़क जाता!

संवेदनाओं से सिर्फ इसे कैसे जगाएँ,
रिक्त है रक्त की सारी शिराएँ,
धमनियों में निर्वात सा माहौल है,
एकांत सा दिल में कोई आता,
ये दिल! शायद फिर धड़क जाता!

तीर दिल के सदियों कोई आया नहीं,
सदियों यहाँ बसंत छाया नहीं,
स्पंदन तनिक भी कभी पाया नहीं,
स्पर्श जरा भी कोई कर जाता,
ये दिल! शायद फिर धड़क जाता!

संज्ञा-शून्य सा अब हो चला है ये दिल,
विरानियों में ही रमा है ये दिल,
न गम है, न ही है अब इसे विषाद,
विषाद ही गर इसे मिल जाता,
ये दिल! शायद फिर धड़क जाता!

धड़कता ही नहीं ये दिल आज-कल...

Friday, 3 August 2018

लिखता हूं अनुभव

निरंतर शब्दों मे पिरोता हूं अपने अनुभव....

मैं लिखता हूं, क्यूंकि महसूस करता हूं,
जागी है अब तक आत्मा मेरी,
भाव-विहीन नहीं, भाव-विह्वल हूं,
कठोर नहीं, हृदय कोमल हूं,
आ चुभते हैं जब, तीर संवेदनाओं के,
लहू बह जाते हैं शब्दों में ढ़लके,
लिख लेता हूं, यूं संजोता हूं अनुभव...

निरंतर शब्दों मे पिरोता हूं अपने अनुभव....

मैं लिखता हूं, जब विह्वल हो उठता हूं,
जागृत है अब तक इन्द्रियाँ मेरी,
सुनता हूं, अभिव्यक्त कर सकता हूं,
संजीदा हूं, संज्ञा शून्य नहीं मैं,
झकझोरती हैं, मुझे सुबह की किरणें,
ले आती हैं, सांझ कुछ सदाएं,
सुन लेता हूं, यूं बुन लेता हूं अनुभव...

निरंतर शब्दों मे पिरोता हूं अपने अनुभव....

Tuesday, 16 January 2018

बवाल जिन्दगी

संवेदनाओं के सरसब्ज ताल में, खुशहाल जिन्दगी...

बड़ी बवाल जिन्दगी, बेमिसाल जिन्दगी,
मसरूफियत में है, सरसब्ज सवाल जिन्दगी,
सारे सवाल का है जवाब जिन्दगी,
सराहत से परे, व्यस्त और बवाल जिन्दगी!

वेदनाओं से, विचलित न हुआ कभी,
संवेदनाओं के ताल में, विचरती रही जिंदगी,
ठहरी अगर, पल भर भी ये कहीं,
शजर गई संवेदनाएँ, चल पड़ी ये जिन्दगी!

मसरूफ जिन्दगी के, सरसब्ज राह ये,
न रुकी है ये किनारे, संवेदनाओं के ताल के,
मशगूल सी, ये रही है हर घड़ी,
वक्त के सरखत पे, छोड़ती निशाँ जिन्दगी!

सरनामा न कोई, जिन्दगी की राह का,
कैसे करूँ मैं सराहत, जिन्दगी के पैगाम का,
व्याख्या से परे, सरसब्ज जिन्दगी,
शजरती संवेदनाओं के, उस पार जिन्दगी!
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मसरूफ: 
व्यस्त, काम में लगा हुआ ; मशगूल 
किराया या अन्य लेन-देन संबंधी हिसाब लिखने की छोटी बही, किसी प्रकार का अधिकार पत्र अथवा प्रमाण-पत्र, परवानाआज्ञापत्र
किसी लेख आदि का शीर्षक, किसी पत्र आदि में संबोधन के रूप में लिखा जाने वाला पद, भेजे जाने वाले पत्र पर लिखा जाने वाला पता। 
हरा-भरा; उर्वर; लहलहाता हुआ; जो सूखा न हो, वनस्पतियों और हरियाली से युक्त, संतुष्टप्रसन्नख़ुशहाल; फलता-फूलता

Thursday, 14 December 2017

कत्ल

जीने की आरजू लिए, कत्ल ख्वाहिशों के करता हूँ....

जिन्दा रहने की जिद में, खुद से जंग करता हूँ
लड़ता हूँ खुद से, रोज ही करता हूँ कत्ल....
भड़क उठती बेवकूफ संवेदनाओं का,
लहर सी उमड़ती वेदनाओं का,
सुनहरी लड़ियों वाली कल्पनाओं का,
अन्त:स्थ दबी बुद्धु भावनाओं का,
दबा देता हूँ टेटुआ, बेरहम बन जाता हूँ,
जीने की आरजू लिए, रोज ही कई कत्ल करता हूँ....

यही बेकार की बातें, न देती है जीने, न ही मरने,
करती है हरपल अनर्गल बकवास मुझसे,
भुनभुनाती है कानों में, झकझोरती है मन को,
बड़ी ही वाहियात सी है ये चीजें, 
कहाँ चैन से पलभर भी रहने देती है मुझको,
मन की ये वर्जनाएँ, जीने न देती है मुझको,
कभी तो नजर अंदाज कर देता हूँ मै इन्हे,
ऊबकर फिर कभी, अपनी हाथों से कत्ल करता हूँ.....

जीने की आरजू लिए, रोज ही कत्ल नई करता हूँ....

Saturday, 1 April 2017

संवेदनहीन

पतंग प्रीत की उड़ती है कोमल हृदयाकाश में,
संवेदनहीन हृदय क्या भर पाएगा इसे बाहुपाश में,
पाषाण हृदय रह जाएगा बस प्रीत की आश में,
मुश्किल होगा प्रीत की डोर का आकाश मे उड़ पाना,
व्यर्थ सा होगा संवेदनाओं के पतंग उड़ाना!

हो चुके हो जब तुम इक पाषाण सा संवेदनहीन,
निरर्थक ही होगा तुमसे प्रीत की कोरी उम्मीद लगाना,
संवेदनाओं के पतंगों को हमें ही होगा समेटना,
असम्भव ही होगा धागे की एक छोर को पकड़े बिना,
प्रीत की पतंग का ऊँचे आकाश में उड़ पाना!

हाँ, पर कोमल सा हृदय हूँ मैं, कोई पत्थर नहीं,
इन कटी पतंगों संग तब तक सिसकेगा ये मेरा मन,
बस उम्मीद की डोर थामे, मैं तुमसे मिलूंगा वहीं,
जग जाए जब संवेदना, वो छोड़ दूजा तुम थाम लेना,
है मुश्किल तुम बिन प्रीत की पतंग उड़ाना!

Sunday, 5 March 2017

उत्कंठा और एकाकीपन

दिशाहीन सी बेतरतीब जीवन की आपाधापी में,
तड़प उठता मन की उत्कंठा का ये पंछी,
कल्पना के पंख पसारे कभी सोचता छू लूँ ये आकाश,
विवश हो उठती मन की खोई सी रचनात्मकता,
दिशाहीन गतिशीलताओं से विलग ढूंढता तब ये मन,
चंद पलों की नीरवता और पर्वत सा एकाकीपन...

जीवन खोई सी आपधापी के अंतहीन पलों में,
क्षण नीरव के तलाशता उत्कंठा का ये पंछी,
घुँट-घुँट जीता, पल-पल ढूंढता अपना खोया आकाश,
मन की कँवल पर भ्रमर सी डोलती सृजनशीलता,
तब अपूर्ण रचना का अधूरा ऋँगार लिए ढूंढता ये मन,
थोड़ी सी भावुकता और गहरा सा एकाकीपन.....

रचनाएँ करती ऋँगार एकाकीपन के उन पलों में,
पंख भावना के ले उड़ता उत्कंठा का ये पंछी,
कोमल संवेदनाओं को मिलता अपना खोया आकाश,
नीरव सा वो पल देती उत्कंठाओं को शीतलता,
विविध रचनाओं का पूर्ण संसार बन उठता ये मन,
सार्थक करते जीवन, ये पर्वत से एकाकीपन....

Thursday, 29 December 2016

आहत संवेदना

घड़ी सांझ की सन्निकट है खड़ी,
लग रहा यूँ हर शै यहाँ बिखरी हुई है पड़ी,
अपना हम जिसे अबतक कहते रहे,
दूर हाथों से अब अपनी ही वो परछाँई हुई।

विरक्त सा अब हो चला है मन,
पराया सा लग रहा अब अपना ही ये तन,
बुझ चुकी वो प्यास जो थी कभी जगी,
अपूरित सी कुछ आस मन में ही रही दबी।

थक चुकी हैं साँसे, आँखें हैं भरी,
धूमिल सी हो चली हैं यादों की वो गली,
राहें वो हमें मुड़कर पुकारती नही,
गुमनामियों में ही कहीं पहचान है खोई हुई।

संवेदनाएँ मन की तड़पती ही रही,
मनोभाव हृदय के मेरे, पढ ना सका कोई,
सिसकता रहा रूह ताउम्र युँ ही,
हृदय की दीवारों से अब गूँज सी है उठ रही।

बीत चुका भले ही वक्त अब वो,
पर टीस उसकी, आज भी डंक सी चुभ रही,
अब ढह चुके हैं जब सारे संबल,
काश ! ये व्यथा हमें अब वापस ना पुकारती !

शिकायतें ये मेरी आधार विहीन नहीं,
सच तो है कि सांझ की ये घड़ी भी हमें लुभाती,
गर संवेदनाएँ मेरी भावों को मिल जाती,
तब ये सांझ की घड़ी भी हमें भावविभोर कर जाती!

Tuesday, 25 October 2016

संवेदनाएँ

पल-पल प्रबल आघात करती ये निरीह संवेदनाएँ ...

करवट ली है संवेदनाओं ने आज फिर से,
झकझोर दिया हो दरिया को मछवारे ने जैसे,
आँधियों में झूलती हों पत्तियाँ डाल पर जैसे,
मन की शांत झील, झंकृत है लहराकर ऐसे.....

संवेदनाएँ! निरीह, लाचार खुद अन्दर से,
पतली सी काँच कहीं चकनाचूर रखी हों जैसे,
कनारों के धार नासूर सी डस रही हों जैसे,
अंतःकरण हृदय के, लहुलुहान कर गई ये ऐसे....

वश में कहाँ, किसी मानव की ये संवेदनाएँ,
बाँध तोड़ कर बह जाती हो, धार नदी की जैसे,
मगरूर शिलाएँ प्लावित होती हैं इनमें जैसे,
विवश कर गई ये, अंतःमानस के कण-कण ऐसे...

सुख में कभी सम्मोहित करती संवेदनाएँ,
छलक पड़ती हैं फिर आँखों में बूंद-बूंद बनके,
छिरकते हैं मनोभाव कभी तेज कदमों से,
क्या रह पाऊँगा पृथक? मैं इन संवेदनाओं से....?

Wednesday, 2 March 2016

गरीब होना क्या गुनाह?

कोई बताए! गुनाह है क्या गरीब होना भी?

चीथडों में लिपटा है इक गरीब,
क्या पाया है उसने भी नसीब ?
मिला उसको भी  हैै एक शरीर,
कहलाता वो भी है इक इंसान।

मानव श्रृंखला की वो इक कड़ी,
श्रृंखला ये उसके बिन पूरी नहीं,
नंगा वो,पर है अहमियत उसकी,
गरीब मर जाना उसकी नियति?

सोचता हूँ,क्या जीवन है ये भी?
संवेदना गुम कहाँ इन्सानों की ?
विसंगति कैसी! ये श्रृंखला की?
गुनाह है! क्या  गरीब होना भी?

सोंचे क्या संवेदनशील इन्सान हैं आप भी?

Friday, 5 February 2016

मैं और मेरी संवेदना

मैं.......!
इच्छाओं से भरपूर इक शख्श हूँ मैं,
अपनी ही आशाओं से उद्वेलित अक्श हूँ मैं,
इंतजार मुझको इक मुक्कमल सुबह का,
मगर हर रात आने वाले चाँद से भी बेहद प्यार है!

मैं......!
वेदनाओं मे बंधा जीवन का अक्श हूँ मैं,
संसार की पीड़ा देख सर्वथा व्यथित शख्श हूँ मैं,
इंतजार मुझको इक उज्जवल जीवन का,
मगर जीवन की हर रंग से भी बेहद लगाव है!

मेरी नींद .................!
बेहद जरुरी है सेहत के लिए,
संतुलित सजग तीव्र मष्तिष्क के लिए!

मगर सपने .........!
नींद से भी ज्यादा तीमारदार,
सपना वेदना रहित सुखद संसार के लिए!

एक दिल, एक जाँ है मुझमे.....!

मैं.......!
एक ही शक्स हूँ मैं...भावुक, सहृदय कोमल, संवेदनशील।
फिर भी आईने में देखकर लगता है ....!
कितनी ही परछाइयों का मिश्रित अक्श हूँ मैं..........!