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Wednesday, 17 July 2024

अपनत्व

लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!

गूंथे वो एहसास, बींधे से ये साँस,
छलकी सी ये आँखें,
जागे ये पल, जागी सी रातें,
बंधा ये आस,
खाली ये पल, ऐसे ही तो न थे!

लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!

ये दूरियां, पर है वो हर पल यहां,
बंधता यादों का शमां,
फैलता गहराता घेरता धुआं,
नीला आसमां,
स्वप्निल ये पल, ऐसे ही तो न थे!

लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!

तोड़ते नीरवता, गूंजते उनके रव, 
स्वत्व को छोड़ता स्व,
हर तरफ वो, उनसे ही हर शै,
ये अपनत्व,
बंधते ये पल, ऐसे ही तो न थे!

लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!

Wednesday, 26 February 2020

तंग गलियारे

माना, हम सब सह जाएंगे,
दंगों के विष, घूँट-घूँट हम पी जाएंगे,
आगजनी, गोलीबारी,
तन-बदन और सीनों पर, झेल जाएंगे,
लेकिन, मन की तंग गलियारों से,
आग की, उठती लपटें,
धू-धू, उठता धुआँ,
इन साँसों में, कैसे भर पाएंगे?

जलता मन, सुलगता बदन,
आघातों के, हर क्षण होते विस्फोट,
डगमगाता विश्वास,
बहती गर्म हवाएँ, सुलगते से ये होंठ,
जहरीली तकरीरें, टूटती तस्वीरें,
चुभते, बिखरे से काँच,
सने, खून से दामन,
इस मन को, कैसे जोड़ पाएंगे?

मन के, ये तंग से गलियारे,
नफ़रतों, साज़िशों की ऊँची दीवारें,
वैचारिक अंन्तर्द्वन्द,
अन्तर्विरोध व अन्तः प्रतिशोध के घेरे,
अवरुद्ध हो चली, वैचारिकताएं,
घिनौनी मानसिकताएं,
चूर-चूर, होते सपने,
इन नैनों में, कैसे बस पाएंगे?

इन, तंग गलियारों में ....
माना, हम सब सह जाएंगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 19 January 2020

यूँ बन्दगी में

यूँ बन्दगी में.....
जरा सा, सर झुका लेना, ऐ हवाओं,
गुजरना, जब मेरी गली से!

ऐ हवाओं! झूल जाती हैं पत्तियाँ,
शाखें, टूट जाते हैं यहाँ,
धूल, जम जाती हैं दरमियाँ,
बस, खता माफ करना,
भूल जाना, जफा,
याद रख लेना पता, सर झुका लेना!

यूँ बन्दगी में.....

ऐ हवाओं! जल न जाए चिंगारी,
बुझी है जो, आग सारी,
न टूट जाए, फिर ये खुमारी,
बस, जरा एहसास देना,
साँस, भर जाना, 
हौले से बह जाना, सर झुका लेना!

यूँ बन्दगी में.....

ऐ हवाओं! रुख ना तुम बदलना,
छुवन, ये सहेज रखना,
खल न जाए, कमी तुम्हारी,
बस, परवाह कर लेना,
प्रवाह, दे जाना,
ठहर जाना कभी, सर झुका लेना!

यूँ बन्दगी में.....
जरा सा, सर झुका लेना, ऐ हवाओं,
गुजरना, जब मेरी गली से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 3 November 2019

पराई साँस

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

हूँ सफर में, साँसों के शहर में!
इक, पराए से घर में!
पराई साँस है, जिन्दगी के दो-पहर में!
चल रहा हूँ, जैसे बे-सहारा,
दो साँसों का मारा,
पर भला, कब कहा, मैंने इसे!
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

बुलाऊँ क्यूँ, उसको सफर में!
अंजाने, इस डगर में!
पराया देह है, क्यूँ परूँ मैं इस नेह में!
बंध दो पल का, ये हमारा,
दो पल का नजारा,
टोक कर, कब कहा, मैने उसे,
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

चले वो, अपनी मर्जी के तले!
इक, अपनी ही धुन में!
अकारण प्रेम, पनपाता है वो मन में!
हूँ इस सफर का, मैं बंजारा,
दे रहा ये मौत पहरा,
इस प्रवाह को, मैने कब कहा,
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 28 May 2016

लम्हों के विस्तार

निश्छल लम्हा, निष्ठुर लम्हा, यौवन लम्हों के साथ में...

हर लम्हा बीत रहा, इक लम्हे के इंतजार में,
हर लम्हा डूब रहा, उन लम्हों के ही विस्तार में,
आता लम्हा, जाता लम्हा, हर लम्हे के साथ में।

साँसे लेती ये लम्हा, बीते लम्हों की फरियाद में,
आह निकलती हर लम्हे से, उन लम्हों की याद में,
बीता लम्हा, खोया लम्हा, उन लम्हों के साथ में।

जीवन है हर लम्हा, बीता है जीवन इन लम्हों में,
हर पल बीतता लम्हा, खोया अपनों को इन लम्हों में,
रिश्ता लम्हा, नाता लम्हा, गुजरे लम्हों के साथ में।

हाथों से छूटा है लम्हा, लम्हे यादों सी सौगात में,
खुश्बू बन बिखरता लम्हा, हर लम्हा जीवन के साथ में,
हँसता लम्हा, हँसाता लम्हा, गम की लम्हों के बाद में।

वो पुकारता है लम्हा, लम्हा कहता है कानों में,
गुजरुँगा मैं तुझ संग ही, निर्झर सा तेरे संग विरानों में,
निश्छल लम्हा, निष्ठुर लम्हा, यौवन लम्हों के साथ में।

Sunday, 22 May 2016

बदली सी फिजाँ

बदली सी है फिजाँ, अब इस शहर की मेरी,
हर शख्स ढूँढ़ता है यहाँ, इक आशियाँ अलग सी,
इक नाम मेरा है खुदा, चप्पे-चप्पे पे इस शहर की,
आशियाँ तो है मेरा, जर्रा जर्रा इस शहर की।

बदले हैं बस लोग, बदली कहाँ ये गलियाँ,
चैनो-ओ-शुकुन बदले हैं, गम ही गम है अब यहाँ,
चेहरों पे चेहरे हैं लगे, जुदा मुझसे मेरा साया यहाँ, 
दिल के करीब थे जो, गुमसुदा वो मुझसे यहाँ।

बदलते मौसमों से, बदले हैं अब रिश्ते यहाँ,
मुरझा चुके है फूल सब, रिश्तों के धागे लहुलुहाँ,
हर धड़कते दिलों के अन्दर, दर्द के सैकड़ों निशाँ,
लब्जों में छुपे हैं खंजर, मन से उठता है धुआँ।

सोचता हूँ आज मैं, कब लोग समझेंगे यहाँ,
रिश्तों की भीनी खुश्बुओं में, हम साँस लेते हैं यहाँ,
अंश नई कोपलों से कोमल, लहलहाते हैं अपने यहाँ,
हम धूल हैं इस शहर की, ये शहर है आशियाँ मेरा।

Monday, 2 May 2016

तृष्णा और जीवन

तृष्णा ही है ये इस मन की, जिसमें डूबा है जीवन,

निर्णय-अनिर्णय के दोराहे पर डोलता जीवन,
क्या कुछ पा लूँ, किसी और के बदले में,
क्युँ खो दू कुछ भी, उन अनिश्चितता के बदले में,
भ्रम की इस किश्ती में बस डोलता है जीवन।

भ्रम के अंधियारे में है तृष्णा, जिसमें डूबा है जीवन।

कब मिल सका है सब को यहाँ मनचाहा जीवन,
समझौता करते है सब, खुशियों के बदले में,
खोना पड़ता है खुद को भी, इन साँसों के बदले में,
उस रब के हाथों में ही बस खेलता है जीवन।

कब बुझ पाएगी ये तृष्णा, जिसमें डूबा है जीवन।

Saturday, 30 April 2016

समय की सिलवटें

गुजरता यह समय, कितने ही आवेग से........!

कुलांचे भर रही,
ये समय की सिलवटें,
बड़ी ही तेज रफ्तार इसकी,
भर रही ये करवटें,
रोके ये कब रुक सका है, आदमी के वास्ते।

फिर किस वास्ते,
हैं शिकन की ये लकीरें,
किसका ये कब हो सका,
रोए है तू किसके लिए,
बदलता रहा है समय हमेशा, करवटें लेते हुए।

कुछ साँसें मिली,
है तुझे वक्त की ओट से,
जी ले यहाँ हर साँस तू,
इन मायुसियाें को छोड़ के,
फिर कहा तू जी सकेगा, इस समय की चोट से।

Wednesday, 27 April 2016

वो बेपरवाह

वो बेपरवाह,
सासों की लय जुड़ी है जिन संग,
गुजरती है उनकी यादें,
हर पल आती जाती इन सासों के संग।

वो बेपरवाह,
बस छूकर निकल जाते है वो,
हृदय की बेजार तारों को,
समझा है कब उसने हृदय की धड़कनो को।

वो बेपरवाह,
अपनी ही धुन मे रहता है बस वो,
परवाह नही तनिक भर उसको,
पर कहते है वो प्यार तुम्ही से है मुझको।

वो बेपरवाह,
हृदय की जर्जर तारो से खेले वो,
मन की अनसूनी कर दे वो,
भावनाओं के कोमल धागों को छेड़े वो।

वो बेपरवाह,
टूट टूट कर बिखरा है अब ये मन,
बेपरवाह वो कहता है धड़कन,
बंजारा सा फिरता अब व्याकुल बेचारा मन।

वो बेपरवाह,
झाक लेती गर हृदय के प्रस्तर में वो,
सुन लेती गर सासों की लय वो,
जीवन के लम्हों से लापरवाह ना होते वो।

वो बेपरवाह,
ललाट पर बिंदियों की चमकती कतारें होती,
सिन्दुरी मांग अबरख सी निखर उठती,
सुन्दर सी मोहक तस्वीर इस धड़कन में भी बसती।

Friday, 15 April 2016

आपके कदम

आप रख दें जो कदम, जिन्दगी हँस दे फिर वहाँ !

कदम आपके पडते हों जहाँ,
शमाँ जिन्दगी की जल उठती हैं वहाँ,
गुजरती हैं तुझसे ही होकर चाँदनी,
आपके साथ ही चला तारों का ये कारवाँ।

चाँद का रथ आपकी दामन के तले,
नूर उस चाँद का आपके साथ जले,
तेरी कदमों के संग निशाँ जिन्दगानी ये चले,
शमाँ जलती ही रहे जब तलक आप कहें।

तम के साए बिखरे हैं बिन आपके,
बुझ रहे हैं ये दिए बिन आस के,
बे-आसरा हो रहा चाँद बिन आपके,
जर्रे-जर्रे की रुकी है ये साँसे बिन आपके।

आप रख दें जो कदम, जिन्दगी हँस दे फिर वहाँ !

Friday, 8 April 2016

फुहार

इक लहर बन के लहराते अगर मन की इस बाग पे!

फुहार बन के बरसे थे वो एक दिन,
खिल उठी थी विरानियों में गुलशन वहीं,
चमन की हर शाख पर बूँदें छलक आई थी,
गर्म पत्तो की साँसे भी लहराई थी।

फिर वही ढूंढ़ता है दिल फुहारों के दिन,
वो बरसात किस काम की जब बहारें न हों,
बूँदें छलकती रहें चमन की हर शाख पर,
हरी पत्तियों की साँसें कभी गर्म न हों।

वादियों के ये दामन पुकारती हैं तुम्हें,
ये खुला आसमाँ फलक पे ढ़ूंढ़ती हैं तुम्हें,
गुम हुए तुम कहाँ चमन की शाख से,
इक लहर बन के लहराओ मन की इस बाग पे।

Wednesday, 6 April 2016

पिता

विलख रहा, पिता का विरक्त मन,
देख पुत्र की पीड़ा, व्यथा और जलन,
पुत्र एक ही, कुल में उस पिता के,
चोट असंख्य पुत्र ने, सहे जन्म से दर्द के।

सजा किस पाप की, मिली है उसे,
दूध के दाँत भी, निकले नही उस पुत्र के,
पिता उसका कौन? वो जानता नही!
दर्द उसके पीड़ की, पर जानता पिता वही।

दौड़ता वो पिता, उसके लिए गली गली,
साँस चैन की, पर उसे कहाँ मिली,
आस का दीप एक, जला था उस पुत्र से,
बुझने को अब दीप वो, बुझ रहा पिता वहीं।

Saturday, 26 March 2016

तुम दीप जलाने ना आई

तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया!
हृदय अरकंचन के पत्तों सा, जज्बात बूँदों सा बह आया!

प्रज्जवलित सदियों से एक दीप ह्रदय में,
जलता बुझ-बुझ कर साँसों की लौ मेंं,
नीर हृदय के लेकर जल उठता धू-धू कर मन में,
सूखे हैं अब वो नीर बुझ रहा दीप इस हिय में ।

तूम आ जाते जल उठता असंख्य दीप जीवन में,
तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया।

निर्झर नीर जज्बातों का बह रहा चिर निरंतर,
रुकता है ये कब अरकंचन के पत्तों पर,
अधूरी प्यास हृदय की प्यासी सागर के इस तट पर,
आकुल प्राणों के कण-कण किसकी आहट पर।

तुम आ जाते जल उठता दीप हृदय के इस तट पर,
तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया।

हृदय अरकंचन के पत्तों सा, जज्बात बूँदों सा बह आया।

Friday, 25 March 2016

दिया याद के तुम जला लेना

कहीं जब साँझ ढ़ले, दिया याद के तुम जला लेना!

सुनसान सी राहों पर, साँस जब थक जाए,
पथरीली इन सड़कों पर, जब चाल लड़खड़ाए,
मृत्यु खड़ी हो सामने और चैन हृदय ना पाए,
तब साँसों के रुकने से पहले, याद मुझे तुम कर लेना।

कहीं जब साँझ ढ़ले, दिया याद के तुम जला लेना!

दुनिया की भीड़ में, जब अपने बेगाने हो जाए,
स्वर साधती रहो तुम, गीत साधना के ना बन पाए,
घर के आईने मे तेरी शक्ल अंजानी बन जाए,
तब सूरत बदलने से पहले, याद मुझे तुम कर लेना।

कहीं जब साँझ ढ़ले, दिया याद के तुम जला लेना!

पीर पर्वत सी सामने, साथ धीरज का छूट जाए,
निराशा के बादल हों घेरे, आशा का दामन छूट जाए,
आगे हों घनघोर अंधेरे और राह नजर ना आए,
तब निराश बिखरने से पहले, याद मुझे तुम कर लेना।

कहीं जब साँझ ढ़ले, दिया याद के तुम जला लेना!

Thursday, 24 March 2016

हिचकियों का दौर

क्युँ सरक रहा हूँ मैं! क्या बेवसी में याद किया उसने मुझे?

शायद हो सकता है........
रूह की मुक्त गहराईयों में बिठा लिया है उसने मुझे,
साँसों के प्रवाह के हर तार में उलझा लिया है उसने मुझे,
सुलगते हुए दिलों के अरमान में चाहा है उसने मुझे,

क्या बरबस फिर याद किया उसनेे? आई क्युँ फिर हिचकी!

या फिर शायद..........
दबी हुई सी अनंत चाह है संजीदगी में उनकी,
जलप्रपात सी बही रक्त प्रवाह है धमनियों में उनकी,
फिजाओं में फैलता हुआ गूंज है आवाज में उनकी।

फिर हुई हिचकी! क्या चल पड़ी हैं वो निगाहें इस ओर ?

शायद हो न हो.......
तल्लीनता से वो आँखे देखती नभ में मेरी ओर,
मशरूफियत में जिन्दगी की ध्यान उनका है मेरी ओर,
या हिज्र की बात चली और आ रहे वो मेरी ओर।

सरक रहा हूँ मैं, रूह में अब बस गया ये हिचकियों का दौर ।