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Saturday, 12 March 2022

समय से परे

गहन अनुभूतियों ने, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

किसकी परछाईं थी, जो दबे पांव आई थी!
चुप सी बातों में, कैसी गहराई थी?
जैसे, वियावान में, गूंज कोई लहराया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

संकोचवश, वो शायद कुछ कह ना पाए हों!
वो, दो पंखुड़ियां, खुल ना पाए हों!
अनियंत्रित पग ही, उन्हें खींच लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

अक्सर, उसकी ही बातें, अब करता है मन,
बिन मौसम, कैसा छाया है ये घन!
पतझड़ में, डाली फूलों से भर आया था,
न जाने, कौन यहां आया था! 

भ्रम मेरा ही होगा, सत्य ये हो नहीं सकता!
नहीं एक भी कारण, आकर्षण का,
शायद, बावरे इस मन ने ही भरमाया था, 
न जाने, कौन यहां आया था!

पर हूँ वहीं, अब भी, लिए वही अनुभूतियां,
पल सारे, अब भी, कंपित हैं जहां,
सीमाओं से परे, समय जिधर लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

गहन अनुभूतियों नें, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 10 March 2019

अपरिचित या पूर्व-परिचित

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

हो जाने-पहचाने, या अंजाने से,
कुछ अपने हो, या हो बिल्कुल बेगाने से,
परिचय की, किस परिधि में आते हो,
अविस्मृत, यादों में हरपल रहते हो,
कहो ना, मेरे क्या लगते हो तुम?

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

मन की घाटी में, फलीभूत होते हो,
पर्वत पर घटाओं जैसे, घनीभूत होते हो,
कोई सर्द हवाओं से, अनुभूत होते हो,
विहँसते फूल जैसे, प्रतिभूत होते हो,
कहो ना, मेरे क्या लगते हो तुम?

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

संग निशा के, तुम जग पड़ते हो,
चुप सा होता हूँ मैं, जब तुम कुछ कहते हो,
तिरोहित रातों में, हर-क्षण संग रहते हो,
सम्मोहित बातों से, मन को करते हो,
कहो ना, मेरे क्या लगते हो तुम?

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

घेरे दुविधा में, हर-पल रहते हो,
असमंजस की धारा में, संशय सा बहते हो,
बलखाती नदिया सी, बस बहते रहते हो,
सुस्त समीर सा, कभी छूकर बहते हो,
कहो ना, मेरे क्या लगते हो तुम?

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 3 January 2019

पाथेय

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

सौरभ हूँ, समीर संग, साँसों में बहूंगा,
अनुभूति हूँ, जंजीर संग, मन बांध लूंगा,
रक्त हूँ, रुधिर संग, शिराओं में बहूंगा,
वक्त हूँ, संग-संग कहीं, बीतता मिलूंगा,
याद हूँ, एकांत में, अधीर हो उठुंगा!

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

शीतल समीर, जब छू जाएगी बदन,
कानों में, कुछ बात कह जाएगी पवन,
सुरीला गीत , गुन-गुनाएगी चमन,
होगा अधीर, मन का हिरण,
कोई आलाप बन, होंठों पे सजूंगा!

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

उम्र की प्रवाह में, सूनी सी राह में,
ढ़लती सी हर सांझ में, ढूंढ लेना मुझे
एकाकीपन के, विपिन प्रांतर में,
अकेली राह में, संग चलता रहूूंगा,
फूल हूँ, रंग सा, खिलता मिलूंगा!

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

Tuesday, 7 February 2017

मृदु पल

सुखद स्पर्श दे गए, मृदु अनुभूति के थिरकते पल...

ऊबा था जग की बेमतलब बातों से ये दिल,
बिंध चुका था कटीले शब्दों के नश्तर से ये दिल,
चैन कहीं था मन का और कहीं पर था ये दिल,
वेदना के दंश कई झेल चुका था ये दिल,
मन को ऐसे में छू गए, स्नेह भरे दो मीठे से पल...

कुछ पल को ही तो मिला था दिल को वो मृदु संसर्ग!!!
व्यथित मन की पीड़ा हर गया स्नेह का वो स्पर्श,
मृदु अनुभूति की घनी सी छाँव दे गया था वो संसर्ग,
जैसे याचक की चाह पूर्ण कर गया था वो संसर्ग,
करुणा के सागर में मन को डुबो गया था वो संसर्ग....

कनकन नीर तन को जैसे कर गई हो शीतल,
घनेरी धूप में, छाँव सघन सी जैसे दे गई हो पीपल,
मिला बिलखते बचपन को जैसे स्नेह का आँचल,
बाँध तोड़ जैसे बह गई हो दरिया का जल,
मृदु अनुभूति के सुखद स्पर्श मन ढूंढता है हर पल......

Tuesday, 3 May 2016

हँसते मेरे अंश

निशाँ मेरी अंश के बिखरेे कण-कण में लगते हैं यहाँ!

वक्त ने आज फिर से बदली हैं करवटें,
राहों ने मोड़ दी है फिर से जीवन की दिशाएँ,
बदला-बदला सा है सब कुछ आज यहाँ,
न जानें क्युँ आज फिर प्राणों में इक कंपन सी यहाँ।

वक्त ले आया फिर उसी जगह पर हमें,
किलकारियाँ भर हँस पड़ते थे अंश जहाँ पर मेरे,
थामे उँगलिया चल पड़ते थे कहीं दिशाहीन,
अाज वो दिशाएँ दिख रही हैं प्रशस्त जीवन के यहाँ।

यादों के उस बस्ती में लाया वक्त हमें,
उन अनुभूतियों ने नए ढ़ंग से फिर सहलाया हमें,
नन्ही उँगलियाँ मेरे अंश के मन में हैं रवां,
मन में उठे हैं सुखद एहसासों के ज्वार फिर से यहाँ।

वक्त ने जगाया सुखद अनुभूतियों को नए सिरे से यहाँ!

Wednesday, 13 April 2016

श्रृंगार

श्रृंगार ये किसी नव दुल्हन के, मन रिझता जाए!

कर आई श्रृंगार बहारें,
रुत खिलने के अब आए,
अनछुई अनुभूतियाें के अनुराग,
अब मन प्रांगण में लहराए!

सृजन हो रहे क्षण खुमारियों के, मन को भरमाए!

अमलतास यहां बलखाए,
लचकती डाल फूलों के इठलाए,
नार गुलमोहर सी मनभावन,
मनबसिया के मन को लुभाए।

कचनार खिली अब बागों में, खुश्बु मन भरमाए!

बहारों का यौवन इतराए,
सावन के झूलों सा मन लहराए,
निरस्त हो रहे राह दूरियों के,
मनसिज सा मेरा मन ललचाए।

आलम आज मदहोशियों के, मन डूबा जाए!

Friday, 4 March 2016

साऱांश तुम हो उपलब्धियों की

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

तुम सार हो चिर सुख के लम्हों की,
तुम से ही प्रेरणा जीवन में कुछ करने की,
तुम विभूषित अनुभूति हो इस मन की,
मैं सह गया व्यथा तुम संग पूरे जीवन की।

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

कायनात सपनों की तेरे ही दामन में,
डग लम्बे भरता हूँ तुम संग ही जीवन में,
आशा और विश्वास तुझसे ही मानस में,
जीवन का सार तुझसे ही इस मन प्रांगण में।

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

इस मन वीणा की सुरमई संगीत तुम,
सप्तराग में गाती कोई मधुर सी गीत तुम,
उनमुक्त गगण के पंछी की आवाज तुम,
जीवन की अनुराग का संचित आधार तुम।

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

Tuesday, 1 March 2016

अक्सर वो एकाकीपन

अक्सर अन्त:मानस मे एकाकीपन की कसक सी,
अंतहीन अन्तर्द्वन्द अक्सर अन्तरआत्मा में पलती,
मानस पटल पर अक्सर एक एहसास दम तोड़ती|

अक्सर वो एकाकीपन बादल सा घिर आता मन में,
दर्द का अंतहीन एहसास अकसर तब होता मन मैं,
तप, साधना, योग धरी की धरी रह जाती जीवन में|

अक्सर रह जाते ये एहसास अनुत्तरित अनछुए से,
अंतहीन अनुभूति लहर बन उठती अक्सर मन से,
तब मेरा एकाकीपन अधीर हो कुछ कहता मुझसे|

Saturday, 20 February 2016

मैं एक अनछुआ शब्द

मैं अनछुआ शब्द हूँ एक!
किताबों में बन्द पड़ा सदियों से,
पलटे नही गए हैं पन्ने जिस किताब के,
कितने ही बातें अंकुरित इस एक शब्द में,
एहसास पढ़े नही गए अब तक शब्द के मेरे।

एक शब्द की विशात ही क्या?
कुचल दी गई इसे तहों मे किताबों की,
शायद मर्म छुपी इसमे या दर्द की कहानी,
शून्य की ओर तकता कहता नही कुछ जुबानी,
भीड़ में दुनियाँ की शब्दों के खोया राह अन्जानी।

एक शब्द ही तो हूँ मैं!
पड़ा रहने दो किताबों में युँ ही,
कमी कहाँ इस दुनियाँ में शब्दों की,
कौन पूछता है बंद पड़े उन शब्दों को?
कोलाहल जग की क्या कम है सुनने को?

अनछुआ शब्द हूँ रहूँगा अनछुआ!
इस दुनियाँ की कोलाहल दे दूर अनछुआ,
अतृप्त अनुभूतियों की अनुराग से अनछुआ,
व्यक्त रहेगी अस्तित्व मेरी "जीवन कलश" में अनछुआ,
अपनी भावनाओं को खुद मे समेट खो जाऊँगा अनछुआ।

Wednesday, 20 January 2016

तुम्हारी यादों के संग

दिल तन्हा भटक रहा वादियों में,
सुरमई यादों के साये,
उड़ रहा बादलों के संग मे।

तुम छिपे हो किन परछाईयों मे,
मेरे गीत तुझको पुकारते,
मचल कर हवाओं के संग में।

शमां बदल रहा है मदहोशियों मे,
दिये जल रहे सुलगते,
बेचैनियाँ अब तन्हाईयों के संग में।

गुफ्तगु कर रहा दिल विरानियों मे,
अपनी ही परछाईयों से,
दब चुके खामोशियों के संग में।