जीवन के अनुभवों पर, मेरे मन के उद्घोषित शब्दों की अभिव्यक्ति है - कविता "जीवन कलश"। यूं, जीवन की राहों में, हर पल छूटता जाता है, इक-इक लम्हा। वो फिर न मिलते हैं, कहीं दोबारा ! कभी वो ही, अपना बनाकर, विस्मित कर जाते हैं! चुनता रहता हूँ मैं, उन लम्हों को और संजो रखता हूँ यहाँ! वही लम्हा, फिर कभी सुकून संग जीने को मन करता है, तो ये, अलग ही रंग भर देती हैं, जीवन में। "वैसे, हाथों से बिखरे पल, वापस कब आते हैं! " आइए, महसूस कीजिए, आपकी ही जीवन से जुड़े, कुछ गुजरे हुए पहलुओं को। (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Saturday, 6 March 2021
तब मानव कहना
Wednesday, 25 March 2020
एकान्त
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एकान्त (Listen Audio on You Tube)
https://youtu.be/hUwCtbv0Ao0
Wednesday, 5 June 2019
उत्कर्ष
तब भी याचक सा, फैल जाए दामन!
वही उत्थान है, वही है चरम!
चरम प्राप्ति पर जब-जब होते हैं हम,
संग-संग, जागृत हो उठते हैं अहम के फन,
प्रवेश करती हैं, चारित्रिक वर्जनाएं,
प्रभावी होता है, नैतिक पतन,
खोता है पल-पल संयम,
स्व-मूल्यांकन के, ये ही होते हैं क्षण!
आधिपत्य होता है, जब अंधियारों का,
व्याप लेती है, क्षण भर में वो विशाल धरा,
चरम को, पाती है रातों की नीरवता,
पर, खुद सहम जाती है रात,
प्रभा-किरणों की चाह में,
किसी याचक सा, फैलाती है दामन!
सूरज भी ढ़लता है, शिखर के पश्चात,
सांझ देकर ही जाती है, अंततः हर प्रभात,
उजालों की भी, होती है इक परिधि,
प्रभावी हो, निकलती है रात,
क्षीण हो जाते हैं ये दिन,
याचक बन, फैलाती है वो दामन !
निश्चित होना है, हर उत्थान का पतन,
सर्वथा ये हैं, इस जीवन के ही दो चरण,
अहम कैसा, जब मिली सफलता,
पतन हुआ, तो क्या है गम,
खोएं पल भर ना संयम,
स्व-मूल्यांकन के, होते हैं ये क्षण!
उत्कर्ष में, शिखर को जब पा जाए जीवन,
तब भी याचक सा, फैल जाए दामन!
वही उत्थान है, वही है चरम!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
Monday, 7 January 2019
खुद मैं @52
उस दरमियाँ, था मैं भी कभी जवाँ,
उत्थान ही, दिखता था हर पल,
मोर सा, आसमान, नाचता था सर पर,
टिकते थे कहाँ, राहों पे कदम,
मुट्ठियों में कैद, था जैसे ये सारा जहाँ,
यूँ ही नापते, उम्र की सीढियां!
इस मुकाम पर, पहुंचे हैं हम कहाँ?
उम्र की सीढियां, न जाने, अंत हो कहाँ?
अब भी यहाँ, वैसी ही है ये दुनियाँ,
दिन-रात की, एक सी है गति,
सूरज, चाँद, तारों की, बदली है न परिधि,
थम से गए, कुछ मेरे ही कदम,
खुल सी गई मुट्ठियाँ, छाने लगी झुर्रियाँ,
शायद, कुछ ही बची सीढियां!
या ढलान पर, आ रुके है हम यहाँ?
उम्र की सीढियां, न जाने, अंत हो कहाँ?
चटकने लगी, अपनी ही अस्थियाँ,
कुछ धुंधली, हुई है पुतलियाँ,
कुछ आइनें में, बदल सी गईं ये शक्ल,
अजान राह, बढ़ चले ये कदम,
जिन्दगी की सांझ, हो रही अब जवाँ,
झूलने लगी, है ये सीढियां!
क्या प्रारब्ध यही, अवसान का यहाँ?
उम्र की सीढियां, न जाने, अंत हो कहाँ?
Monday, 28 December 2015
सन्निकट अवसान
अवसान सन्निकट जीवन के,
छाए स्वत: हो रहे अब दीर्घ,
वेग-प्रवाह धीमे होते रक्त के,
सांसें स्वतः हो रहे अब प्रदीर्घ।
बीत रहा प्रहर निर्बाध अधीर,
अभिलाशाएँ हृदय की बहाती नीर,
सांझ जीवन की आती अकुलाई,
वश में कर सकै ऐसा कौन प्रवीर।
उत्थान-पतन और विहान-अवसान,
महाश्रृष्टि रचयिता के हैं दो प्रमाण,
जीर्ण होकर ही दे पाता ये नव जीवन,
कर्म अडिग कर, बना अपनी पहचान।
Saturday, 26 December 2015
आरोह-ठहराव-अवरोह
उत्थान अगर सम्मुख है तो, पतन भी प्रशस्त प्रभावी,
जीवन चेतन सत्य है तो, मृत्यु भी है शास्वत भावी,
समुन्दर मे है ज्वार प्रबल तो, भाटा भी निरंतर हावी।
जैसे खेत मे बीजों का अंकुरित होना,
खिलते कलियों-फूलों का इठलाना,
काली घटाओं का नभ पर छा जाना,
मदमाते सावन का झूम के बरस जाना,
समुद्र में अल्हर ज्वार का उठ जाना,
सुबह के लाली की आँखों का शरमाना,
प्रात: काल पंछियों का चहचहाना,
नव दुलहन का पूर्ण श्रृंगार कर जीवन में..........
..............आशाओं के नव दीप जलाने की बारी।
जैसे खेतों के बीजों का पौध बन फल जाना,
कलियों-फूलों के चेहरों का मुरझाना,
काली घटाओं का मद्धिम पड़ जाना,
सावन की मदिरा का सूखकर थम जाना,
समुद्री ज्वार का भाटा बन लौट जाना,
सूरज की किरणों का तेज निस्तेज पड़ जाना,
पंछियों का थककर वापस घर लौट आना,
दुल्हन का श्रृंगार जीवन भट्ठी में झौंक.........
............संध्या प्रहर मद्धिम दीप जलाने की तैयारी।
आता है पल ईक ठहराव का भी,
कुछ अंतराल के लिए ही सही पर,
दे जाता है इनको अल्पविराम भी,
मानव से मानव भावना की, गठजोर कर जाने को,
संसार की सारी खुशियाँ, दामन में समेट ले जाने को,
उपलब्धियों की सार्थकता, अर्थपूर्ण कर जाने को,
अवरोह बेला उन्मादरहित, अनुकरणीय बना जाने को!
सा, नी, ध, प, म, ग, रे, सा के मध्य,
सा - है ठहराव, अल्पविराम,सम की स्थिति,
सुर नही सध सकते बिन इनके पूर्ण।
सम है तो निर्माण है संभव,
वर्ना है विध्वंश की बारी !!!!!!!!!!