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Wednesday, 30 June 2021

दो रोटियाँ

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!
इसलिए, वो जागता होगा!

वो भला, सो कर क्या करे!
जिन्दा, क्यूँ मरे?
जीने के लिए, 
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!

क्या ना कराए, दो रोटियाँ!
दर्द, सहते यहाँ!
उम्मीदें लिए,
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!

यूँ जिक्र में, फिक्र कल की!
जागते, छल की,
आहटें लिए,
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!

फिर भी, जीतने की जिद!
वही, जद्दो-जहद,
ललक लिए,
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!

जलाकर, उम्मीदों के दिए!
आस, तकते हुए,
चाहत लिए,
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!
इसलिए, वो जागता होगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 20 April 2021

तृष्णा

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

मानव की खातिर, कितना मुश्किल है खोना,
अपूरित ख़्वाहिशों का, जग उठना,
उस अनदेखे की, ख्वाहिशों संग सोना,
उनको भी, मन चाहे पा लेना,
निर्णय-अनिर्णय के, उन दोराहों पर, 
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

मन, पाए ना राहत, जग जाए जब ये चाहत,
अन्जाने ही, मन होता जाए आहत,
भ्रम की इक, किश्ती में, वो ढूंढे राहत,
जाने, पर स्वीकारे ना ये सत्य,
चाहत के, उस अनिर्णीत दोराहों पर, 
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

खो दे कुछ भी, उन अनिश्चितताओं के बदले,
पाना चाहे, उन इच्छाओं को पहले,
भले ही इच्छाओं को, इच्छाएं ही डस ले,
कैसी आशा, कैसा यह स्वप्न,
अंधियारे से, इक विस्तृत दोराहों पर,
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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इच्छा
1. कामना, चाह, ख्वाहिश; 2. रुचि।

इक्षा
1. नज़र; दृष्टि 2. देखने की क्रिया; दर्शन 3. विचारना; विवेचन करना; पर्यालोचन।

Thursday, 15 April 2021

किस्सों में थोड़ा सा

उनकी किस्सों का, इक अंश हूँ अधूरा सा!
उन किस्सों में, अब भी हूँ थोड़ा सा!

मुकम्मल सा, इक पल,
उत्श्रृंखल सी, इठलाती इक नदी,
चंचल सी, बहती इक धारा,
ठहरा सा, इक किनारा!

सपनों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

धारे के, वो दो किनारे,
भीगे से, जुदा-जुदा वो पल सारे,
अविरल, बहती सी वो नदी,
ठहरी-ठहरी, इक सदी!

सवालों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

अधूरी सी, बात कोई,
जो तड़पा जाए, पूरी रात वही,
याद रहे, वो इक अनकही,
रह-रह, नैनों से बही!

ख्यालों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

रुक-रुक, वो राह तके,
इस चाहत के, कहाँ पाँव थके!
उभर ही आऊँ, मैं यादों में,
जिक्र में, या बातों में!

उनकी किस्सों का, इक अंश हूँ अधूरा सा!
उन किस्सों में, अब भी हूँ थोड़ा सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 20 December 2020

और कितने दूर

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

सब तो, छूट चुका है पीछे,
फिर भागे मन, किन सपनों के पीछे,
वो, जो है रातों के साए,
कब हाथों में आए,
जाने, कहाँ-कहाँ, भटकाएगी,
अधूरी मन की चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

जाने कब, भूल चुके सब,
मन के स्नेहिल बंधन, तोड़ चले कब,
बिसराए, नेह भरे गंध, 
वो गेह भरे सुगंध,
तन्हा पल में, याद दिलाएगी,
बन कर इक आह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

अब तक, लब्ध रहा क्या!
क्या प्रासंगिक थी, सारी उपलब्धियाँ!
गिनता हूँ अब तारों को,
मलता हूँ हाथों को,
झूठी चाहत, क्या करवाएगी?
बस, भटकाएगी राह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

प्रसंग कई, जब छूट चले,
जाना, जब खुद अप्रासंगिक हो चले,
तर्क, भला  क्या देना!
राहों में, क्या रोना!
इस प्रश्नकाल में, जग जाएगी!
इक तृष्णा इक चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 15 March 2020

मन चाहे

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

संदर्भ नए, फिर लिख डालूँ,
नजर, विकल्पों पर फिर से डालूँ,
कारण, सारे गिन डालूँ,
हारा भी, तो मैं,
क्यूँ हारा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

खोए से वो पल, दोहरा लूँ,
जीवन से, बिखरे लम्हे पा डालूँ,
मोती, बिखरे चुन डालूँ,
बिखरा तो, वो पल,
क्यूँ बिखरा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

ख्वाब अधूरे, चाहत के सारे,
जीवन के, भटकावों से हम हारे,
खुद को ही, समझा लूँ,
ठहरा भी, तो मैं,
क्यूँ ठहरा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 10 May 2017

इक खलिश

पलकें अधखुली,
छू गई सूरज की किरण पहली,
अनमने ढंग से फिर नींद खुली।।।
मन के सूने से प्रांगण में दूर तलक न था कोई,
इक तुम्हारी याद! निंदाई पलकें झुकाए,
सामने बैठी मिली...!

मैं करता रहा,
उसे अपनाने की कोशिश,
कभी यादों को भुलाने की कोशिश…
रूठे से ख्वाबों को निगाहों में लाने की कोशिश,
तेरी मूरत बनाने की कोशिश…
फिर एक अधूरी मूरत....!

क्या करूँ?
सोचता हूँ सो जाऊँ,
नींद मे तेरी ख्वाबों को वापस बुलाउँ,
फिर जरा सा खो जाऊँ,
मगर क्या करूँ...
ख्बाब रूठे है न मुझसे आजकल....!

इन्ही ख्यालों में,
इक पीड़ सी उठी है दिल में,
चाह कोई जगी है मन मॆं,
अब तोड़ता हूँ दिल को धीरे धीरे तेरी यादों में,
वो क्या है न, चाहत में...
रफ्ता रफ्ता मरने का मजा ही कुछ और है...!

Wednesday, 25 January 2017

चाहत के सिलसिले

ये जादू है कोई! या जुड़ रहे हैं कोई सिलसिले?....

बेखुदी में खुद को कहीं, अब खोने सा लगा हूँ मैं,
खुद से हीं जुदा कहीं रहने लगा हूँ मैं,
कुछ अपने आप से ही अलग होने लगा हूँ मैं,
काश! धड़कता न ये मन, खोती न कही दिल की ये राहे,
काश! देखकर मुझको झुकती न वो पलकें.....

ये कैसा है असर! क्या है ये चाहत के सिलसिले?...

अंजान राहों पे कहीं, भटकने सा लगा हूँ मैं,
भीड़ में तन्हा सा रहने लगा हूँ मैं,
या ले गया मन कोई, अंजान अब तक हूँ मैं,
काश! पिघलता न ये मन, डब-डबाती न मेरी ये आँखें,
काश! अपनापन लिए कुछ कहती न वो पलकें.....

ये रिश्ता है कोई? या है ये जन्मों के सिलसिले?.....

वक्त ठहरा है वहीं, बस बीतने सा लगा हूँ मैं,
जन्मों के तार यूँ ही ढूंढने लगा हूँ मैं,
या डूबकर उन आँखों में ही, उबरने लगा हूँ मैं,
काश ! तड़पता न ये मन, अनसुनी होती न मेरी ये आहें,
काश! सपनो के शहर लिए चलती न वो पलकें.....

ये कैसी है चाहत? या हसरतो के हैं ये सिलसिले?...

Wednesday, 28 September 2016

इतनी सी चाह

प्रिय, बस कुछ और नहीं, प्रिय, और नहीं कुछ चाह !

चाहूँ बस इतना सा,
ले लूँ मैं हाथों में हाथ,
अंतहीन सी दुर्गम राहों पर,
पा जाऊँ मै तेरा साथ।

प्रिय, बस कुछ और नहीं, प्रिय, और नहीं कुछ चाह !

चुन लूँ राहों के वो काँटें,
चुभते हैं पग में जो चुपचाप,
घर के कोने कोने मे मेरे,
तेरी कदमों के हो छाप।

प्रिय, बस कुछ और नहीं, प्रिय, और नहीं कुछ चाह !

रख दो शानों पर मेरे,
तुम स्नेह भरे सर की सौगात,
भर लो आँखों मे सपने,
सजाऊँ मैं तेरे ख्वाब।

प्रिय, बस कुछ और नहीं, प्रिय, और नहीं कुछ चाह !

वादी हो इक फूलों की,
चंचल चितवन हो जिसमें तेरी,
झोंके पवन के बन आऊँ मैं,
खेलूँ मैं बस तेरे साथ।

प्रिय, बस कुछ और नहीं, प्रिय, और नहीं कुछ चाह !

चाह यही मेरी अनन्त,
तुम बनो इस जीवन का अन्त,
अंतहीन पल का हो अंत,
तेरी धड़कन के साथ।

प्रिय, बस कुछ और नहीं, प्रिय, और नहीं कुछ चाह !

Sunday, 14 August 2016

तीन रंग

चलो भिगोते हैं कुछ रंगों को धड़कन में,
एक रंग रिश्तों का तुम ले आना,
दूजा रंग मैं ले आऊँगा संग खुशियों के,
रंग तीजा खुद बन जाएंगे ये मिलकर,
चाहत के गहरे सागर में डुबोएंगे हम उन रंगों को....

चलो पिरोते हैं रिश्तों को हम उन रंगों में,
हरे रंग तुम लेकर आना सावन के,
जीवन का उजियारा हम आ जाएंगे लेकर,
गेरुआ रंग जाएगा आँचल तेरा भीगकर,
घर की दीवारों पर सजाएँगे हम इन तीन रंगों को....

आशा के किरण खिल अाएँगे तीन रंगों से,
उम्मीदों के उजली किरण भर लेना तुम आँखों में,
जीवन की फुलवारी रंग लेना हरे रंगों से,
हिम्मत के चादर रंग लेना केसरिया रंगों से,
दिल की आसमाँ पर लहराएँगे संग इन तीन रंगों को....

Monday, 8 August 2016

कुछ लम्हे मेरी शब्दों के संग

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.........

आँखें मिली जो आपसे शब्दों के जैसे नींद उड़ गए,
शब्दों को जैसे सुर्खाब के पर लग गए,
सुरूर कुछ छाया ऐसा शब्दों के जेहन पर,
कोरे कागज पर जज्बातों के ये प्रहर से लिख गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

नैनों मे खोए शब्द कभी हँस परे खिलखिलाकर,
कुछ के जज्बात बूँदों में बह निकले,
कुछ शब्दों के वाणी रूँधकर लड़खड़ाए,
कोरे कागज पर मिश्रित से कई तस्वीर उभर गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

शुरू हुई फिर शब्दों में नोंक-झोंक के सिलसिले,
कुछ कहते, वो आए थे मुझसे मिलने गले,
कुछ कहते मेरी चाहत में थे उनके दामन गीले,
कोरे कागज पर शब्दों में अंतहीन जंग से छिड़ गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

अब उन्हीं लम्हों को ढूंढ़ते मेरे शब्द पन्नों पर,
अनकहे जज्बात कई लिख डाले मैंने इन पन्नों पर,
मेरे शब्दों के स्वर और भी मुखर हो गए,
कोरे कागज पर इन्तजार के वो लम्हे बिखर से गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

Thursday, 2 June 2016

चाहत की जिन्दगी

मुस्कुराहटों में गीत सी बजती है जिन्दगी,
उन नर्म होठों पे खिल के जब बिखरती है वो हँसी,
खिलखिलाहट में है उनकी नग्मों की रवानगी,
उन सुरमई आँखों में खुद ही कहीं तैरती है जिन्दगी।

दूरियों के एहसास अब दिलाती है जिन्दगी,
जेहन में अब तो बार-बार फिर उभरती है वो हँसी,
सजदा किए थे हमने जिन किनारों के कहीं,
कगार-ए-एहसास फिर वही अब मांगती है जिन्दगी।

बेकरारियों के दिए फिर जलाती है जिन्दगी,
कानों में इक आवाज सी बन के गूँजती है वो हँसी,
साज धड़कनों के मचल बज उठे फिर कहीं,
चाहतों का इक रंगीन सफर फिर चाहती है जिन्दगी।

Wednesday, 1 June 2016

राख

दिल की हदों से गुजरी थी कभी जिन्दगी,
किस्से मोहब्बत के तमाम बाकी हैं,

चाहत के फूलों से सजा था कभी गुलशन,
जिन्दगी के अब कुछ निशान बाकी हैं,

उजड़ी है बस्तियाँ खत्म हो चुकी हैं कहानी,
चाहत के बस कुछ अल्फाज बाकी है,

मजार-ए-मीनार बनी इक अधूरे ईश्क की,
चाहत की मुकम्मल सी याद बाकी है,

अब अक्श है वो सामने जैसे लपटें हो आग की,
जलते हुए ईश्क की बस राख बाकी है।

Wednesday, 25 May 2016

साहिलों पे कहीं

लिखते रहे जिन्दगी की किताब सूखी साहिलों पे कहीं...

डोलती सी इक पतवार की तरह,
दूर खोए कहीं अपनी साहिल से वो थे,
उनकी फितरत तो थी टूटते एतवार की तरह,
वो साहिल के कभी तलबगार ही न थे।

मैं किताबों में बंद कहानी सा खोया साहिलों पे कहीं...

वो भँवर में रहे डूबते मौजों की तरह,
कहीं बेखबर जिन्दगी की कहानी से वो थे,
उनकी चाहत तो रही डूबते इन्तजार की तरह,
वो साहिलों के कहीं मुकाबिल ही न थे।

बिखरा है ये जीवन इन्तजार में उसी साहिलों पे कहीं...

Friday, 8 April 2016

रूप लावण्य

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

उभरा है रूप वही फिर इक बार सामने,
तड़प कई जगा गई है वो रूप इन धड़कनों में,
आईने की तरह रूबरू वो रूप इस मन में,
दबी चाहतों के स्वर निखरे हैं फिर से चमन में।

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

सम्मोहन है कैसी न जाने उस रूप में,
असंख्य तार जुड़े है तड़प के उस स्वरूप में,
हो न हो उस तरफ मैं ही हुँ उनके मन में,
लावण्य रूप का वो बस चुकी है मेरे हृदय में।

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

आईना रूप का वो न टूटे कभी इस मन में,
लावण्य चाहतों का कभी कम न हो उस रूप में,
कतारें बहारों की ढ़लती रहे उनके ही संग में,
बीते ये जीवन उस रूप के आँचलों के साये तले में।

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

Sunday, 3 April 2016

घर

घर एक चाहतों का ले सका आज मैं,
मगर घर नही मेरा वो, जिसमें तुम न रहती हो!

घर मेरा वो जहाँ बाल तुम्हारे गीले हों,
मैं देखता हुँ आईना और तुम देख सँवरती हो,
मांग मे तेरी सिंदूर हो और सिंन्दूरी शाम ढ़लती हो,
बिंदिया की जगमगाहट तेरी माथे पे सजती हो,
घर चाहतों का वही जिसे तुम सजाती हो.......

घर मेरा वही जहाँ सपने सजते हों तेरे,
भोर के गीत बज उठते हो मधुर स्वरों में तेरे,
दिन ढ़ल जाती हो रंगीन साये में आँचल के तेरे,
गुँजती हो किलकारियाँ कई स्वरूपों के मेरे,
घर चाहतों का वही तुम सँवारती हो जिसे .......

घर वही जहाँ संग बाल सफेद हों तेरे,
गुजरते लम्हों में सफेद बाल चमकीले हों तेरे,
वक्त की बारीकियाँ झुर्रियों में उभरे तेरे,
कमजोर आँखें तेरी मदहोशियों से देखे मुझे,
घर चाहतों का ये गर जिन्दगी मे तू साथ हो मेरे......

साथ हर कदम रहे जीवन मे तू मेरे,
डूबता ही रहूँ तेरी फूल सी खुशबुओं के तले,
बंद होने से पहले ये आँखे बस देखती हों तुझे,
साँस जीवन की आखिरी बस यही पे हम संग लें,
घर मेरा वो बने जब एक दूसरे की यादों में हम पलें......

घर एक चाहतों का ले सका आज मैं,
मगर घर नही मेरा वो, जिसमें तुम न रहती हो!

Saturday, 2 April 2016

इबादत की शिद्दत

ख्यालों में उनके है तस्वीर कोई!
मगर कौन वो? दिखती कहाँ लेकिन सूरत है उसकी?

शिद्दत तो दिखती है इबादत में उनकी,
एहसास भी कुछ भीगे से जज्बातों मे उनकी,
पर शोहबत कहाँ है हकीकत में उनकी।

उमरता हुआ इक लहर उधर दिख रहा है,
बेकरारी भी दिखती उमरते लहर की रवानियों में,
पर साहिल से मिलने की नीयत कहाँ है।

उन फूलों में दिखती है खिलने की चाहत,
खुशबु भी कुछ भीनी कोमल पंखुड़ियो में उसकी,
पर कुचली सी पूजा की चाहत है उसकी।

हो न हो, शिद्दत तो दिखती है इबादत में उनकी......!

Monday, 14 March 2016

मुझे रोक लेना मेरे वश में नहीं

तुम ही तुम हर पल एहसास सी,
ज़िक्र क्यों हर पल तेरा मेरी यादों में,
आसान नहीं ये समझ पाना,
मान लो तुम इसे खुदा कि मर्जी,
मेरी यादों को रोक लेना मेरे वश में नहीं।

तूम इक एहसास सी बनकर मुझमें,
फुरक़त-ए-एहसास अनोखी तेरी बातों में,
बंधन के वे स्वर भूल जाना मुमकिन नहीं,
रोक लूं खुद को मैं कैसे तुम्हें चाहने से,
मेरी चाहत को रोक लेना मेरे वश में नहीं ।

इसे इत्तफ़ाक़ कहो या फिर मेरी नादानी.....

बड़े बेनूर से पड़े थे मेरे एहसास,
रौनक ए एहसास आपके आने से आई,
खोया हूँ उस तसव्वुर-ए-मदहोशी में,
मुमकिन नहीं अब होश में आना,
हाँ ....! हाँ, कतई मुमकिन नहीं......!
मेरी मदहोशी को रोक लेना मेरे वश में नहीं । 

Tuesday, 22 December 2015

चाहत की मंजिल

मेरी भीगी चाहतों को जैसे, आज मंजिल मिल गई
एक मुश्त खिलखिलाती, सुनहरी धूप मिल गई,
सफल हुई मेरी पूजा, ज़िन्दगी फूलों सी खिल गई।

कोई शिकायत न रही किश्तों मे मिली जिन्दगी से,
जिस निगाहे नूर की कमी थी,
वो निगाहें चश्मेबद्दूर मिल गई,

जी खोलकर की जब उसने मन की बातें,
रौशन लगने लगी हैं अब जीवन की राहें,
उसकी ज़रा सी नूर काफ़ी थी ज़िन्दगी के लिए,
किश्मत मेरी, मुझे विसाले यार मिल गई।

करती रही वो बेपरवाह मनगढंत शिकायतें,
कि तुमने ये क्युँ कहा? तुमने वो क्युँ नही कहा?
तुम्हारी भाषा भटक क्युँ गई? तुमने पूछा क्युँ नही?
बेपरवाह हँसती रही वो इन सवालों में,
जैसे निगाहे यार को भी सुकून मिल गई।

मैने देखा उस बेपरवाही में है जीवन अनंत, 
उन आँखों मे रौशनी है असीम, आशाएँ हैं दिगन्त,
साधना सफल हुई मेरी, जीवन हुआ जैसे पूर्ण
मुझे मेरी जीवन दिगन्त मिल गई।