रिक्त क्षणों में, रंग कोई भर देता,
तो यूं, फागुन न होता!
हँसते, वे लम्हे, बहते, वे लम्हे,
कुछ कहते-कहते, रुक जाते वे लम्हे,
यूं रिक्त, न हो जाते,
सिक्त पलों से,
कुछ रंग भरे, पल चुन लेता!
तो यूं, फागुन न होता!
हवाओं की, सरगोशी सुनकर,
यूं न हँसती, बेरंग खामोशी डसकर,
गीत, कई बन जाते,
गर, वो गाते,
राग भरे, आस्वर चुन लेता!
तो यूं, फागुन न होता!
यूं तो बिखरे सप्तरंग धरा पर,
पथराए नैन, कितने बेरंग यहां पर,
स्वप्न, वही भरमाते,
जो भूल चले,
स्वप्न वो ही, फिर रंग लेता!
रिक्त क्षणों में, रंग कोई भर देता,
तो यूं, फागुन न होता!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
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