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Sunday, 4 December 2022

छोर

इधर ही, उस राह का इक छोर है,
लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

छोड़ आए, उधर ही, कितनी गलियां,
कितने सपने, छूटे उधर,
मन के मनके, टूटकर, बिखरे राह में,
अब, लौट भी न, पाएं उधर,
छूटा जिधर, वो डोर है!

लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

शक्ल अंजान कितने, इस छोर पर,
हैं हादसे, हर मोड़ पर,
सिमटता हर आदमी अपने आप में,
डस रही, अपनी परछाइयां,
विरान कैसा, ये छोर है!

लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

धूल-धुसरित हो चले, ये पांव सारे,
धूमिल से दोनों किनारे,
ढूंढता खुद की ही, पहचान राहों में,
थक कर, चूर-चूर ये बदन, 
करे हैरान, यह छोर है!

इधर ही, उस राह का इक छोर है,
लिए जाए किधर, ये मोड़ है!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 30 May 2021

जागे सपने

जाने कब से, घुप अंधियारों में,
पलकें खोले,
जागे से, सपनों को तोले,
जागा सा मैं!

शायद, सपनों के पर, 
छूट चले हों, बोझिल पलकों के घर,
उड़ चली नींद,
झिलमिल, तारों के घर,
आकाश तले, संजोए ख्वाब कई,
जागा सा मैं!

जाने, फिर लौटे कब,
शायद, तारों के घर, मिल जाए रब,
खोई सी नींद,
दिखाए, दूजा ही सबब,
पलकें मींचे, नीले आकाश तले,
जागा सा मैं!

ये, सपनों की परियाँ,
शायद, हों इनकी, अपनी ही दुनियाँ,
भूली हो नींद,
अपने, पलकों का जहाँ,
खाली उम्मीदों के, दहलीज पर,
जागा सा मैं!

जाने कब से, घुप अंधियारों में,
पलकें खोले,
जागे से, सपनों को तोले,
जागा सा मैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 14 May 2021

गुमसुम सा, ये घर

बड़ा ही, खुशमिजाज शहर था मेरा,
पर बड़ा ही खामोश, 
गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!

कल चमक उठती थी, ये आँखें,
इक उल्लास लिए,
आज फिरती हैं, ये आँखे,
अपनी ही, लाश लिए,
किन अंधेरों में, जा छुपा है सवेरा!

गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!

धड़कनें थी, कोई उम्मीद लिए,
कितने संगीत लिए,
अब थम सी गई, हैं साँसें,
विरहा के, गीत लिए,
जाते लम्हों में कहाँ, विश्वास मेरा!

गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!

मिल कर, चह-चहाते थे ये लब,
रुकते थे, ये कब,
आज, भूल बैठे हैं ये सब,
बेकरारी का, ये सबब,
ये तन्हाई, ले न ले ये जान मेरा!

गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!

न जाने, फिर, वो सहर कब हो!
वो शहर, कब हो!
छाँव वाली, पहर कब हो!
मेरे सपनों का वो घर,
यूँ ही न उजड़े, ये अरमान मेरा!

बड़ा ही, खुशमिजाज शहर था मेरा,
पर बड़ा ही खामोश, 
गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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# कोरोना

Sunday, 8 November 2020

बंजारे

सारे हैं बंजारे, देखे जो ख्वाब तुम्हारे!

सोचा था, रख लूँगा, मन के घेरों में,
संजो लूँगा, कुछ तस्वीरें, ख्वाबों के डेरों में,
पर, खुश्बू थे वो सारे, 
निकले, बंजारे,
बहते, नदियों के धारे,
पवन झकोरे,
पल भर, वो कब ठहरे,
निर्झर नैनों में, ख्वाब सुनहरे!

सारे हैं बंजारे, देखे जो ख्वाब तुम्हारे!

बेचारा मन, भटके बेगानों के पीछे,
दौरे है बेसुध,आँखें मींचे, बंजारों के पीछे,
पर, ठहरे हैं कब बंजारे,
वो राहों के मारे,
बातों में, ढ़ल जाते सारे,
धुंथलाते तारे,
भोर प्रहर, वो कब ठहरे,
दीवाने नैनों में, ख्वाब सुनहरे!

सारे हैं बंजारे, देखे जो ख्वाब तुम्हारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 21 March 2020

बिन तुम्हारे

सो गए, अरमान सारे, 
दिन-रात हारे,
बिन तुम्हारे!

अधूरी , मन की बातें, 
किसको सुनाते,
कह गए, खुद आप से ही,
बिन तुम्हारे!

झकोरे, ठंढ़े पवन के,
रुक से गए हैं,
छू गई, इक तपती अगन, 
बिन तुम्हारे!

सुबह के, रंग धुंधले,
शाम धुंधली,
धुँधले हुए, अब रात सारे,
बिन तुम्हारे!

जग पड़ी, टीस सी,
पीड़ पगली,
इक कसक सी, उठ रही,
बिन तुम्हारे!

चुभ गई, ये रौशनी,
ये चाँदनी,
सताने लगी, ये रात भर,
बिन तुम्हारे!

पवन के शोर, फैले,
हर ओर,
सनन-सन, हवाएँ चली,
बिन तुम्हारे!

पल वो, जाते नहीं,
ठहरे हुए,
जज्ब हैं, जज्बात सारे,
बिन तुम्हारे!

रंग, तुम ही ले गए, 
रहने लगे,
मेरे सपने , बेरंग सारे,
बिन तुम्हारे!

सो गए, अरमान सारे, 
दिन-रात हारे,
बिन तुम्हारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 8 February 2020

सपने

अजीब होते हैं, ये कितने...
बंद होते ही आँखें, तैरने लगते हैं सपने!
क्षण-भर को, कितने लगते ये अपने,
समाए कब, खुली पलकों में,
जागे से पल में, गैर लगे ये कितने!
विस्मित करते, ये सपने!

सपने ना होते, तो होती ना आशा,
कहीं ना रहता, ये मन बंधा सा,
उभरते ना, रंग कहीं उन ख्वाबों में,
रोशनी, होती न अंधियारों में,
यूँ, कल्पनाओं में, गोते ना खाते,
यूँ गीत कोई, पंछी ना गाते,
यूँ, खिलती ना कलियाँ, 
यूँ भौंरे, डोल-डोल न उन पर आते,
फूल कोई, फिर यूँ ना शर्माते,
सजती ना, फूलों से डोली, 
आती ना, लौटकर होली,
यूँ, गूंजती ना, कोयल की बोली,
संजोती ना, दुल्हन,
नैनों में रुपहले, सपने!

अजीब होते हैं, ये कितने....
दिग्भ्रमित कभी, कर जाते हैं ये सपने!
राह कहीं भटकाते, बन कर अपने,
समाए कब, पनाहों में सारे,
टूटे बिखरे, जैसे आसमां के तारे!
व्यथित करते, ये सपने!

सपने ना होते, पनपती ना निराशा,
उड़ता ये मन, आजाद पंछी सा,
न कैद होते, ये पंख किसी पिंजरे में,
हर वक्त, न होते इक पहरे से,
यूँ, आशाओं के, टुकड़े ना होते,
यूँ, टूट कर, काँच ना चुभते,
यूँ, बिखरते ना ये अरमाँ,
यूँ,भभक-भभक, जलती ना शमां,
यूँ, दूर कोई, विरहा ना गाता,
टूटती ना, फूलों की माला,
यूँ कोई, पीता ना हाला,
बिलखती ना, वो दुल्हन नवेली,
आँसुओं में, बहकर,
ना ढ़ल जाते, ये सपने!

अजीब होते हैं, ये कितने...
बहा ले जाते, कहीं छोड़ जाते ये सपने!
क्षण-भर ही, करीब होते जैसे अपने,
कभी करते, संग गलबहियाँ,
दूर हुए जब ये, गैर लगे ये कितने!
अतिरंजित से, ये सपने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 16 December 2019

बिखरो न यूँ

बिखरो न यूँ, मन के मनके, चुनो तुम,
चलो, सपने बुनो तुम!
सँवार लो, अपनी ही रंगों में,
ढ़ाल लो, हकीकत में, इन्हें तुम!

सपने ही हैं, गर टूट भी जाएँ तो क्या,
नए, सपने गुनो तुम!
उतर कर, निशा की छाँव में,
तम की गाँव के, तारे चुनो तुम!

बसे हैं इर्द-गिर्द, तुम्हारे सपनों के घर,
घर, कोई चुनो तुम!
बसा लो, इन्हें अपने नैन में,
बिखरे पलों को, समेट लो तुम!

या हों बिखरे, या चाहों मे रहे पिरोए,
उन्हीं की, सुनो तुम!
बिखर कर, स्वाति बूँदों में,
गगन से आ, सीप में गिरो तुम!

वस्तुतः, है अन्त ही, इक नया आरंभ,
पथ, अनन्त चुनो तुम!
राहें, बदल जाते हैं, मोड़ में,
हर छोड़ में, खुद से मिलो तुम!

बिखरो न यूँ, मन के मनके, चुनो तुम,
चलो, सपने बुनो तुम!
निराशा के, डूबे से क्षणों में,
नींव, आशा की, नई रखो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 7 October 2019

भग्नावशेष

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

आधी राह आखिर, क्यूँ थका है मुसाफिर?
सफर के उस छोड़ तक, है जाना तुझे मुसाफिर,
परवाह करता है क्यूँ, छूटे हुए उस मोड़ की,
तु सुन ले जरा, बातें हृदय के बंद कोर की,
इस दिल में, अरमान अभी कुछ शेष हैं!

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

आधी कट चुकी है, जो काटनी थी एक उम्र,
भग्न अवशेषों के मध्य, अब काटनी है शेष उम्र,
दफ्न भी करनी पड़ेंगी, अस्थियाँ उस उम्र की,
बिखरी हुई, सारी निशानियाँ भग्नावशेष की,
इस उम्र की, सपनोंं केे जो अवशेष हैं!

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

जर्जर हो चले थे जो, भग्न वो ही सपने हुए,
समय की इस गर्भ में, दफ्न तो सारे अपने हुए,
रह सका है कौन, बिखरे हुए सपनों संग यहाँ,
नित काल-कवलित, होते रहे हैं सपने जवाँ,
नवीन सपने, फिर भी हजारों शेष है!

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

बुन ले सपने नए, बना ले तू अट्टालिकाएं,
भग्न हो चुकी हैं जो, सजा ले वो अट्टालिकाएं,
बची है कुछ शाम जो, तू हँसी वो शाम कर,
बची है जाम जो, अपनों के ही नाम कर,
इस सांझ में, सितारे अभी कुछ शेष हैं!

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 14 September 2018

दायरा

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

छोड़ कर बाबुल का आंगन,
इक दहलीज ही तो बस लांघी थी तुमने!
आशा के फूल खिले थे मन में,
नैनों में थे आने वाले कल के सपने,
उद्विग्नता मन में थी कहीं,
विस्तृत आकाश था दामन में तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

कितने चंचल थे तुम्हारे नयन!
फूट पड़तीं थी जिनसे आशा की किरण,
उन्माद था रक्त की शिराओं में,
रगों में कूट-कूटकर भरा था जोश,
उच्छृंखलता थी यौवन की,
जीवन करता था कलरव साथ तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

कुंठित है क्यूँ मन का आंगन?
संकुचित हुए क्यूँ सोच के विस्तृत दायरे?
क्यूँ कैद हुए तुम चार दिवारों में?
साँसों में हरपल तुम्हारे विषाद कैसा?
घिरे हो क्यूँ अवसाद में तुम?
क्यूँ है हजार अंकुश जीवन पे तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

Sunday, 17 June 2018

दो पग साथ चले

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

ख्वाब हजारों आकर मुझसे मिले,
जागी आँखों में अब रात ढ़ले,
संग तारों की बारात चले,
सपनों में अब मन को आराम मिले!

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

कब दिन बीते जाने कब रैन ढले,
उम्मीद हजारो हम बांध चले,
उस पथ मेरे अरमान चले,
तुमको ही हम अपना मान चले!

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

पथ उबड़-खाबड़ मखमल से लगे,
पग पग कितने ही फूल खिले,
ये ख्वाब हकीकत में ढ़ले,
कितनी ही जन्मों के सौगात मिले!

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

Sunday, 1 April 2018

बिखरी लाली

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

श्रृंगकिरणों ने पट खोले हैं,
घूंधट के पट नटखट नभ ने खोले हैं,
बिखर गई है नभ पर लाली,
निखर उठी है क्षितिज की आभा,
निस्तेज हुए है अंधियारे,
वो चमक रही किरणों की बाली!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

श्रृंगार कर रही है प्रकृति,
किरणों की आभा पर झूमती संसृति,
मोहक रंगो संग हो ली,
सिंदूरी स्वप्न के ख्वाब नए लेकर,
नव उमंग नव प्राण लेकर,
खेलती नित नव रंगो की नव होली!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

खेलती है लहरों पर किरणें,
या लहरों से कुछ बोलती हैं किरणें!
आ सुन ले इनकी बोली,
झिलमिल रंगों की ये बारात लेकर,
मीठी सी ये बात लेकर,
चल उस ओर चलें संग आलि!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

Saturday, 17 February 2018

खलल डालते ख्याल

भीगे से ये सपने .....,
खलल डालते ख्याल,
डगमगाता सुकून,
और तुम .....
सवालों से बेहतर जवाबों मे,
ख्यालों से बेहतर, मेरे जज्ब से इरादों मे.....

कैसा ये सफर,
कि तू होकर भी है कहीं बेखबर !
तेरा स्मृति पटल में आना,
फिर धुँध मे तेरा कहीं खो जाना !
काश !
खामोशी की छाँव मे तू कुछ पल साथ रहती !

ये एहसास,
ये भीगे से जज्बात,
हर पल इक तेरा इन्तजार,
सुकून में बस,
खलल डालते इक ख्याल,
और कोई कशमकश,
जब थक जाते हैं,
तो हम मन ही मन यूं ही मुस्करा लेते हैं....

ये कैसा है सफर,
कि तू होकर भी है कहीं बेखबर !
बरबस, बेहिसाब, हर बार..
मैं तकता रहता हूं वो ही राह बार-बार...
मन की चाह से,
खिल जाती है यूं ही फिर कोई कुंद,
कि जैसे सूखते से पल्लव पर पड़ी हो बूँद !

भीगे से ये सपने .....
खलल डालते तुम्हारे ख्याल,
एहसास की ये राहें,
कहीं सूनी सी है दिखती,
कहीं दिल में,
बस, एक कसक सी है रहती !
काश !
खामोशी की छाँव मे तू कुछ पल साथ रहती ! 

Sunday, 26 November 2017

24 बरस

दो युग बीत चुके, कुछ बीत चुके हम,
फिर बहार वही, वापस ले आया ये मौसम....

बीते है 24 बरस, बीत चुके है वो दिन,
यूँ जैसे झपकी हों ये पलकें,
मूँद गई हों ये आँखे, कुछ क्षण को,
उभरी हों, कुछ सुलझी अनसुलझी तस्वीरें,
वो सपने, है बेहद ही रंगीन!
फिर सपने वही, वापस ले आया ये मौसम....

कितनी ऋतुएँ, कितने ही मौसम बदले, 
भीगे पलकों के सावन बदले,
कब आई पतझड़, जाने कब गई,
अपलक नैनों में, इक तेरी है तस्वीर वही,
वो सादगी, है बेहद ही रंगीन!
फिर फागुन वही, वापस ले आया ये मौसम....

बाँकी है ये जीवन, अब कुछ पलक्षिण,
थोड़ी सी बीत चुकी हैं साँसें, 
एहसास रीत चुके हैं साँसों में कई,
बची साँसों में, है बस इक एहसास वही,
वो एहसास, है बेहद ही रंगीन!
फिर बसंत वही, वापस ले आया ये मौसम....

बीते है 24 बरस, कुछ बीते है हम,
फिर बहार वही, वापस ले आया ये मौसम....

Tuesday, 4 July 2017

रिमझिम सावन

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...

बूदों की इन बौछारों में, मेरे सपने है भीगे से,
भीगा ये मन का आँगन, हृदय के पथ हैं कुछ गीले से,
कोई भीग रहा है मुझ बिन, कहीं पे हौले-हौले से....

भीगी सी ये हरीतिमा, टपके  हैं  बूदें पत्तों से,
घुला सा ये कजरे का रंग, धुले हैं काजल कुछ नैनों से,
बेरंग सी ये कलाई, मुझ बिन रंगे ना कोई मेहदी से....

भीगे से हैं ये ख्वाब, या बहते हैं सपने नैनों से,
हैं ख्वाब कई रंगों के, छलक रहे रिमझिम बादल से,
वो है जरा बेचैन, ना देखे मुझ बिन ख्वाब नैनों से....

भीगी सी है ये रुत, लिपटा है ये आँचल तन से,
कैसी है ये पुरवाई, डरता है मन भीगे से इस घन से,
चुप सा भीग रहा वो, मुझ बिन ना खेले सावन से......

बूँद-बूँद बिखरा ये सावन, कहता है कुछ मुझसे,
सपने जो सारे सूखे से है, भीगो ले तू इनको बूँदो से,
सावन के भीगे से किस्से, जा तू कह दे सजनी से....

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...

Wednesday, 19 April 2017

हमेशा की तरह

हकीकत है ये कोई या है ये दिवास्वप्न, हमेशा की तरह!

हमेशा की तरह, है किसी दिवास्वप्न सा उभरता,
ख्यालों मे फिर वही, नूर सा इक रुमानी चेहरा,
कुछ रंग हल्का, कुछ वो नूर गहरा-गहरा.......
हमेशा की तरह, फिर दिखते कुछ ख्वाब सुनहरे,
कुछ बनते बिगरते, कुछ टूट के बिखरे,
सपने हों ये जैसे, किसी हकीकत से परे......

हमेशा की तरह,किसी झील में जैसे पानी हो ठहरा,
मन की झील में, चुपके से कोई हो आ उतरा,
वो मासूम सी, पर छुपाए राज कोई गहरा.....
हमेशा की तरह, खामोशियों के ये पहरे,
रुमानियत हों ये जैसे, किसी हकीकत से परे.......

हमेशा की तरह, दामन छुड़ा दूर जाता कोई साया,
जैसे है वो, मेरे ही टूटे हृदय का कोई टुकड़ा,
फिर पलट कर वापस, क्युँ देखती वो आँखें.....
हमेशा की तरह, अपनत्व क्युँ ये बढाते,
अंजान से है ये रिश्ते, किसी हकीकत से परे.......

हकीकत है ये कोई या है ये दिवास्वप्न, हमेशा की तरह!

Monday, 13 March 2017

जगने लगे हैं सपने

वो ही सपने, पलकों तले फिर से लगे हैं जगने........

स्वप्न सदृश्य, पर हकीकत भरे जागृत मेरे सपने,
जैसे खोई हुई हो धूप में आकाश के वो सितारे,
चंद बादल विलीन होते हुए आकाश पर लहराते,
वो ही सपने, पलकों तले फिर से लगे हैं जगने........

खामोश सी हो चली हैं अब कुछ पल को हवाएँ,
और रुकी साँसों के वलय लगे हैं तेज धड़कने,
रुक से गए हैं तेज कदमों से भागते से वो लम्हे,
वो ही सपने, पलकों तले फिर से लगे हैं जगने........

गूँजती हैं कहीं जब ठिठकते से कदमों की आहट,
बज उठती है यूँहीं तभी टूटी सी वीणा यकायक,
चुपके से कानों में कोई कह जाता है इक कहानी,
वो ही सपने, पलकों तले फिर से लगे हैं जगने........

जागृत हकीकत है ये, स्वप्न सदृश्य मगर है लगते,
परियों की देश से, तुम आए थे मुझसे मिलने,
हर वक्त हो पहलू में मेरे, जेहन में हैं तेरी ही बातें,
वो ही सपने, पलकों तले फिर से लगे हैं जगने........

Friday, 13 January 2017

अंजान सी रात

जरा सा चूमकर, उनींदी सी पलकों को,
कुछ देर तक, ठहर गई थी वो रात,
कह न सका था कुछ अपनी, गैरों से हुए हालात,
ठिठक कर हौले से कदम लिए फिर,
लाचार सी, गुजरती रही वो रात रुक-रुककर।

अंजान थी वो, उनींदी स्वप्निल सी आँखें,,
मूँदी रही वो पलकें, ख्वाबों में डूबकर,
न तनिक भी थी उसको, बिलखते रात की खबर,
गुजरती रही वो रात, बस सिसक कर,
मजबूर सी, उनींदी उन पलकों को छू-छूकर।

सुनता कौन उसकी? रात ही तो था वो!
ख्वाब भरने वो चला था, उनींदी आँखों में सबके,
कितने ही पलकों में, उसने संजोई थी उम्मीदें,
दामन था खाली, सुनसान थे उसके सपने,
बेजान सी, सिमटती रही अंधेरों में डूब-डूबकर।

धूमिल हूई थी कहीं, डूबकर अँधेरों में रात,
गया था वो सबको देकर, सुनहले भोर की सौगात,
कंपन दिए थे उसने, धड़कते से हृदय को,
नव प्राण साँसों में भरकर, दी थी नई शुरुआत,
अंजान सी, दिन भर रही पलकों में तैर-तैरकर।

Friday, 6 January 2017

सर्द सुबह

कहीं धूँध में लिपटकर, खोई हुई सी हैं सुबह,
धुँधलाए कोहरों में कहीं, सर्द से सिमटी हुई सी है सुबह,
सिमटकर चादरों में कहीं, अलसाई हुई सी है सुबह,
फिर क्युँ न मूँद लूँ, कुछ देर मैं भी अपनी आँखें?
आ न जाए आँखों में, कुछ ओस की बूंदें!

ओस में भींगकर भी, सोई हुई सी है सुबह,
कँपकपाती ठंढ में कोहरों में डूबी, खोई हुई सी है सुबह,
खिड़कियों से झांकती, उन आँखों में खोई है सुबह,
फिर क्युँ न इस पल में, खुद को मैं भी खो दूँ?
जी लूँ डूब कर, कुछ देर और इस पल में!

फिर लौटकर न आएगी कोहरे में डूबी ये सुबह,
शीत में भींग-भींगकर फिर न थप-थपाएगी ये सुबह,
सर्दियों की आड़ में फिर न बुलाएगी ये सुबह,
फिर क्युँ न मैं भी हो लूँ, इन सर्द सुबहो संग?
बाँट लूँ गर्म साँसें, देख लूँ कुछ जागे सपने!

Wednesday, 21 September 2016

उरी...की गोली

जैसे, धँस गई हो एक गोली उसके सीने के अन्दर भी......

चली थी अचानक ही गोली उरी की सीमा पर,
धँस गई थी एक गोली उसके सीने में भी आकर,
बिखर चुके थे सपने उसके लहू की थार संग,
सपने उन आँखों मे देकर, आया था वो सीमा पर...

उफ क्या बीती होगी उस धड़कते दिल पर,
अचानक रूँधा होगा कैसे उस अबला का स्वर,
रह रह कर उठते होंगे मन में अब कैसे भँवर,
जब उसे मिली होगी, रहबर के मरने की खबर....

गुम हुआ है उसके सर से आसमाँ का साया,
निर्जीव सा है जीवन, निढाल हुई उसकी काया,
शेष रह गईं है यादें और इन्तजार सदियों का,
पथराई सी आँखों में, चाह कहाँ अब जीवन का......

जैसे, धँस गई हो एक गोली उसके सीने के अन्दर भी.....

Wednesday, 17 August 2016

पहर दो पहर

पहर दो पहर,
हँस कर कभी, मुझसे मिल ए मेरे रहगुजर,
आ मिल ले गले, तू रंजो गम भूलकर,
धुंधली सी हैं ये राहें, आए न कुछ भी नजर,
आ अब सुधि मेरी भी ले, इन राहों से भी तू गुजर....

पहर दो पहर,
चुभते हैं शूल से मुझको, ये रास्तों के कंकड़,
तीर विरह के, हँसते हैं मुझकों बींधकर,
ये साँझ के साये, लौट जाते हैं मुझको डसकर,
ऐ मेरे रहगुजर, विरह की इस घड़ी का तू अन्त कर......

पहर दो पहर,
कहती हैं ये हवाएँ, आती हैं जो उनसे मिलकर,
है बेकरार तू कितना, वो तो है तुझसे बेखबर,
आँखों में उनके सपने, तू उन सपनों से आ मिलकर,
ए मेरे रहगुजर, उन सपनों से न कर मुझको बेखबर.....

पहर दो पहर,
लौट जाती हैं उनकी यादें, कई याद उनके देकर,
बंध जाता है फिर ये मन, उन यादों में डूबकर,
रोज मिलता हूँ उनसे, यादों की वादी में आकर,
ऐ मेरे रहगुजर, इन यादों से वापस न जा तू लौटकर....