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Thursday, 2 February 2023

तुम या भ्रम


भ्रमित मुझे कर जाने को, तुम आते हो!

अभी-अभी, इन लहरों में, तुम ही तो थे,
गुम थे हम, उन्हीं घेरों में,
पर, यूं लौट चले वो, छूकर मुझको,
ज्यूं, तुम कुछ कह जाते हो!

भ्रमित मुझे कर जाने को, तुम आते हो!

रह जाती है, एकाकी सी तन्हा परछाईं,
और, आती-जाती, लहरें,
मध्य कहीं, सांसों में, इक एहसास,
ज्यूं, फरियाद लिए आते हों!

भ्रमित मुझे कर जाने को, तुम आते हो!

अनायास बही, इक झौंके सी, पुरवाई,
खुश्बू, तेरी ही भर लाई,
कुहू-कुहू कूकते, लरजाते कोयल,
ज्यूं, मुझको पास बुलाते हों!

भ्रमित मुझे कर जाने को, तुम आते हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 24 July 2022

एकाकी ही भला


एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

गम, जो दे जाते हैं, वो मन के बंधन,
क्यूँ, बांध रहे, मुझसे हर क्षण,
ये गीत, न वो गाएंगे,
सर्वदा, मन को न तेरे बहलाएंगे,
न रखना, कोई गिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

गम न, इक और, ले पाऊंगा सर्वथा,
रह न पाऊंगा, यूं संग सर्वदा,
न रख, यादों में कहीं,
रखना, पर, बीती बातों में कहीं,
जैसे कोई, कहीं मिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

क्यूं ठहर जाऊं, आंगन में किसी के,
क्यूं बना लूं, घर इक कहीं पे,
रेत जैसे हैं ख्वाब ये,
प्यास नजरों को हो, गर, दो घूंट,
अपनी, आंसू के पिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

हो बेहतर, रख ले मन पे एक पत्थर,
मत मांग, प्रश्नों के कोई उत्तर,
जो, हल न हो पाएंगे,
वो अन्तर्मन को और बींध जाएंगे,
यूं होगा, किसका भला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

उड़ा मत, आसमां पर, पंछी चाह के,
कल, रख न पाओगे बांध के,
वो, छल ही जाएंगे,
टूटे बांध जो, वो कल बंध न पाएंगे,
यूं होगा, खुद से गिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  ‌‌ (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 20 January 2022

एकाकी बरगद

अब, कम ही खिल पाते हैं बरगद!
कहां दिख पाते हैं, बरगद!

जटाओं वाले, बूढ़े, विशालकाय, बरगद,
निःस्वार्थ, भावी राह करे प्रशस्त,
आत्मविश्वास, स्वाभिमान के द्योतक,
प्रगति के, ध्वज-वाहक,
नैतिक मूल्यों के संवाहक, ये बरगद!

अब, कम ही निखर पाते हैं बरगद!

हो जाते खुश, ले अपनों की खैर-खबर,
आशा में, उनकी ही, होते जर्जर,
बैठे राह किनारे, सदियों, बांह पसारे,
बे-सहारे, अतीत किनारे,
संबल, आशाओं के, बन हारे बरगद!

अब, कम ही संवर पाते हैं बरगद!

देखे बसन्त कई, गुजारे कितने पतझड़,
झेले झकझोरे, हवाओं के अंधर,
विषम हर मौसम, खुद पे रह निर्भर,
सहेजे, इक स्वाभिमान,
गगन तले, कितने एकाकी, बरगद!

अब, कम ही खिल पाते हैं बरगद!
कहां दिख पाते हैं, बरगद!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 10 December 2021

रूठ चला साया

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

रही बैठी, संग-संग ठहरी, भर दोपहरी, 
कुछ वो चुप, कुछ हम गुमसुम,
क्षण सारा, बीत चला,
असमंजस में, ये सांझ ढ़ला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

रिक्त ढ़ले, इक दुविधा में सारे ही क्षण,
हरजाई सी, अपनी ही परछाईं,
मेरे ही, काम न आई,
एकाकी, ये दिन रात ढ़ला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

शब्द-विहीन ये पल, अर्थ-हीन कितने,
वाणी बिन तरसे, शब्द घुमरते,
रह गए होंठ, सिले से,
ये तन, सायों से ऊब चला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 31 October 2021

मैं और तारा

इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

यूं, दोनों ही एकाकी,
ना संगी, ना कोई साकी,
भूला जग सारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

छूटे, दिवस के सहारे,
थक-कर, डूबे सारे सितारे,
कितना बेसहारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

धीमी, साँसों के वलय,
उमरते, जज़्बातों के प्रलय,
तमस का मारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

ठहरा, बेवश किनारा,
गतिशील, समय की धारा,
ज्यूं, हरपल हारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

दोनों ही पाले भरम,
झूठे, कितने थे वो वहम,
टूट कर बिखरा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

दोनों, मन के विहग,
बैठे, जागे अलग-अलग,
सोया जग सारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 25 May 2021

अनुभूत

रह-रह, कुछ उभरता है अन्दर,
शायद, तेरी ही कल्पनाओं का समुन्दर,
रह रह, उठता ज्वार,
सिमटती जाती, बन कर इक लहर,
हौले से कहती, पाँवों को छूकर,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

अनुभूतियों का, ये कैसा सागर,
उन्मत्त किए जाती है, जो, आ-आ कर,
उभरती, ये संवेदनाएं,
यदा-कदा, पलकों पर उतर आएं,
बूँदों में ढ़ल, नैनों में कह जाए,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

हो जैसे, लहरों पे सांझ किरण,
झूलती हों, पेड़ों पे, इक उन्मुक्त पवन,
हल्की सी, इक सिहरन,
अनुभूतियों के, गहराते से वो घन,
कह जाती है, छू कर मेरा मन,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

रह-रह, कुछ सिमटता है अंदर,
शायद, ज्वार-भाटा की वो लौटती लहर,
चिल-चिलाती दोपहर,
रुपहला, सांझ का, बिखरा प्रांगण,
कह जाता है, रातों का आंगन,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 11 April 2021

वहीं रहना

मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

यही तो है, जो, बांधता है मुझको,
वेधता है, संज्ञाशून्ताओं को,
समझने की कोशिश में, तुझको सोचता हूँ,
लकीरों में, बुनता हूँ तुम्हें ही,
मिथक हो, या कितना भी पृथक हो,
पर, लगते सार्थक से हो!
शायद, जब तलक कल्पनाओं में हो!

मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

झूमती हुई, डालियों सी, चंचलता,
पृथक सी, अल्हड़ मादकता,
प्राकृत जीवंतताओं में, देखता हूँ तुझको,
समस्त विकृतियों से, अलग,
परिपूर्णताओं की, हदों से अलंकृत,
हर, रचनाओं में श्रेष्ठ!
शायद, जब तलक कल्पनाओं में हो!

मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

यूँ तो, इन विसंगतियों से परे कौन,
लेकिन, रहे कोई, जैसे मौन,
ताकती सी मूरत, झांकती सी एक सूरत,
अल्हड़, बिल्कुल  नादान सी,
ज्यूँ, अरण्य में, विचरती हो मोरनी,
खुद ही, से अनभिज्ञ!
शायद, जब तलक कल्पनाओं में हो!

मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

करोड़ों उभरते सवाल, उनमें तुम,
क्यूँ रहें, बन एकाकी हम!
ओढ़े आवरण, क्यूँ न संजोएं इक भरम!
करूँ, मौजूदगी का आकलन,
रखूँ, समय की सेज पर तुम्हें पृथक,
क्यूँ मानूं, तुमको मिथक!
शायद, जब तलक कल्पनाओं में हो!
 
मत निकलना, तुम!
कभी, मेरी कल्पनाओं के, घेरों से बाहर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 30 March 2021

अंतःमुखी

कुछ कहना था उनसे, पर कह ना पाया...

खुद को, सिकतों पर उकेर आया,
पर, नाहक ही, लिखना था,
मन की बातें, सिकतों को, क्या कहना था?
उनको तो, बस उड़ना था,
मन मेरा, अंतःमुखी,
थोड़ा, था दुखी,
भरोसा, उन सिकतों पर कर आया,
खुद, जिनका ना सरमाया!

कुछ कहना था उनसे, पर कह ना पाया...

कुछ अनकही, पुरवैय्यों संग बही,
लेकिन, अलसाई थी पुरवाई,
शायद, पुरवैय्यों को, कुछ उनसे कहना था!
उनको ही, संग बहना था,
मैं, इक मूक-दर्शक,
वहीं रहा खड़ा,
उम्मीदें, उन पुरवैय्यों पर कर आया,
जिसने, खुद ही भरमाया!

कुछ कहना था उनसे, पर कह ना पाया...

मैं तीर खड़ा,लहरों से क्या कहता!
खुद जिसमें, इतनी चंचलता,
अपनी ही धुन, अनसुन जिनको रहना था,
व्यग्र, सागर संग बहना था,
मैं, इक एकाकी सा,
एकाकी ही रहा,
सागर की, उन लहरों को पढ़ आया,
बेचैन, उन्हें भी मैंने पाया!

कुछ कहना था उनसे, पर कह ना पाया...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 10 January 2021

वो खत

फिर वर्षों सहेजते!
किताबों में रख देने से पहले,
खत तो पढ़ लेते!

यूँ ना बनते, हम, तन्हाई के, दो पहलू,
एकाकी, इन किस्सों के दो पहलू,
तन्हा रातों के, काली चादर के, दो पहलू!
यूँ, ये अफसाने न बनते,
किताबों में रख देने से पहले,
वो खत तो पढ़ लेते!

वो चंद पंक्तियाँ नहीं, जीवन था सारा,
मूक मनोभावों की, बही थी धारा,
संकोची मन को, कहीं, मिला था किनारा!
यूँ, कहीं भँवर न उठते,
किताबों में रख देने से पहले,
वो खत तो पढ़ लेते!

बीती वो बातें, कुरेदने से क्या हासिल,
अस्थियाँ, टटोलने से क्या हासिल,
किस्सा वो ही, फिर, दोहराना है मुश्किल!
यूँ, हाथों को ना मलते,
किताबों में रख देने से पहले,
वो खत तो पढ़ लेते!

अब, जो बाकि है, वो है अस्थि-पंजर,
दिल में चुभ जाए, ऐसा है खंजर,
एहसासों को छू गुजरे, ये कैसा है मंज़र!
यूँ, छुपाते या दफनाते,
किताबों में रख देने से पहले,
वो खत तो पढ़ लेते!
फिर वर्षों सहेजते!
किताबों में रख देने से पहले,
खत तो पढ़ लेते!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 24 December 2020

झील सा, अधबहा

गुफ्तगू, बहुत हुई गैरों से,
पर गाँठ, गिरह की, खुल न पाई!
है अन्दर, कितना अनकहा!
झील सा, अनबहा!
अब, बहना है,
इक दीवाने से, कहना है!

मिल जाए, तो अपना लूँ, 
माना, इक फलक है, बिखरा सा,
खुद में, कितना उलझा सा,
बंधा या, अधखुला!
कितना, टूटा है,
उन टुकड़ों को, चुनना है!

दो होते, तो होती गुफ्तगू,
चुप-चुप, करे क्या, मन एकाकी!
गगन करे भी क्या, तन्हा सा!
भींगा या, अधभींगा!
शायद, तरसा है!
उसे तन्हाई में, पलना है!

पहले, सहेज लूँ ये बहाव,
समेट लूँ, मन के सारे बहते भाव!
रोक लूँ, ले चलूँ किनारों पर!
बहने दूँ, ये अधबहा!
भँवर विहीन सा,
फिर बहाव में, बहना है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 19 November 2020

कैद

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

भटकोगे, अन्तर्मन के इस सूने वन में, 
कल्पनाओं के दारुण प्रांगण में,
क्या रह पाओगे?

पहले तो, बनती थी, इक परछाईं सी,
कभी, पल-भर में गुम होते थे!
कभी तुम होते थे!

तेरे ही सपने, पलते थे उड़ते-उड़ते से,
पर, डरता था, कुछ कहने से,
उड़ते सपनों से!

कैद हो चली, तेरे ही यादों की परछाईं,
लेकिन, आँखें हैं अब धुंधलाई,
जा पाओगे कैसे!

रोकेंगी तुझको, तेरी यादों के अवशेष,
नैनों का, धुंधलाता ये परिवेश,
जा ना पाओगे!

इन्हीं अवशेषों के मध्य, बजती हुई दूर,
गुनगुनाती सी, होगी इक धुन,
वही, शेष हूँ मैं!

गाते कुछ पल होंगे, बीते वो कल होंगे,
शायद, एकाकी ना पल होंगे,
रुक ही जाओगे!

या भटकोगे, अन्तर्मन के सूने से वन में, 
यातनाओं के, दारुण प्रांगण में,
कैसे रह पाओगे?

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 25 October 2020

चुभन

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

हो गए हो, गुम कहीं आज कल तुम!
हाँ संक्रमण है, कम ही मिलने का चलन है!
वेदना है, अजब सी इक चुभन है!
तो, काँटे विरह के, क्यूँ बो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

चल कर ना मिलो, मिल के तो चलो!
हाँ, पर यहाँ, मिल के बिसरने का चलन है!
सर्द रिश्तों में, कंटक सी चुभन है!
तो, रिश्ते भूल के, क्यूँ सो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते पलों को तुम!

पल कर, शूल पर, महकना फूल सा,
हाँ, खिलते फूलों के, बिखरने का चलन है!
पर, बंद कलियों में इक चुभन है!
तो, यूँ सिमट के, क्यूँ घुट रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

एकाकी, हो चले हो, आज कल तुम,
हाँ, संक्रमण है, एकांत रहने का चलन है!
पर, स्पंदनों में, शूल सी चुभन है!
तो, यूँ एकांत में, क्यूँ खो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 14 October 2020

गर हो तो रुको


गर हो तो, रुको....

कुछ देर, जगो तुम साथ मेरे,
देखो ना, कितने नीरस हैं, रातों के ये क्षण!
अंधियारों ने, फैलाए हैं पैने से फन,
बेसुध सी, सोई है, ये दुनियाँ!
सुधि, ले अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

नीरवता के, ये कैसे हैं पहरे!
चंचल पग सारे, उत्श्रृंखता के क्यूँ हैं ठहरे!
लुक-छुप, निशाचरों ने डाले हैं डेरे!
नीरसता हैं, क्यूँ इन गीतों में!
बहलाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

देखो, एकाकी सा वो तारा,
तन्हा सा वो बंजारा, फिरता है मारा-मारा!
मन ही मन, हँसता है,वो भी बेचारा!
तन्हा मानव, क्यूँ रातों से हारा!
समझाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 12 July 2020

एकाकी

यूँ संग तुम्हारे,
देर तक, तकता हूँ, मैं भी तारे,
हो, तुम कहीं,
एकाकी हूँ, मैं कहीं,
हैं जागे,
रातों के, पल ये सारे!

यूँ तुमको पुकारे,
शायद तुम मिलो, नभ के किसी छोर पर,
कहीं, सितारों के कोर पर,
मिलो, उस पल में, किसी मोड़ पर,
एकाकी पल हमारे,
संग तुम्हारे,
व्यतीत हो जाएंगे, सारे!

यूँ बिन तुम्हारे,
शायद, ढूंढ़ते हैं, उस पल में, खुद ही को,
ज्यूँ थाम कर, प्रतिबिम्ब को,
मुखर है, झील में, ठहरा हुआ जल,
हैं चंचल ये किनारे,
और पुकारे,
बहते, पवन के इशारे!

यूँ संग हमारे,
चल रे मन, चल, फिर एकाकी वहीं चल!
अनर्गल, बिखर जाए न पल,
चल, थाम ले, सितारों सा आँचल,
नैनों में, चल उतारे,
वो ही नजारे,
जीत लें, पल जो हारे!

यूँ संग तुम्हारे,
देर तक, तकता हूँ, मैं भी तारे,
हो, तुम कहीं,
एकाकी हूँ, मैं कहीं,
हैं जागे,
रातों के, पल ये सारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 6 March 2020

बरसों ढ़ले

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर पनपा, इक आस,
फिर जागे, सुसुप्त वही एहसास,
फिर जगने, नैनों में रैन चले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर पंकिल, नैन हुए,
फिर, कल-कल उमड़ी करुणा,
फिर स्नेह, परिधि पार चले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर मिली, वही व्यथा,
फिर, झंझावातों सी बहती सदा,
फिर एकाकी, दिन-रैन ढ़ले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर ढ़ली, उमर सारी,
सुसुप्त हुई, कल्पना की क्यारी,
इक दीपक, सा मौन जले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 30 December 2019

स्मृति

सघन हो चले कोहरे, दिन धुँध में ढ़ला,
चादर ओढ़े पलकें मूंदे, वो पल यूँ ही बीत चला,
बनी इक स्मृति, सब अतीत बन चला!

कितने, पागल थे हम,
समझ बैठे थे, वक्त को अपना हमदम,
छलती वो चली, रफ्तार में ढ़ली,
रहे, एकाकी से हम!
टूटा इक दर्पण,
वो टुकड़े, संजोए या जोड़े कौन भला!

कल भी है, ये जीवन,
पर दे जाएंगे गम, स्मृति के वो दो क्षण,
श्वेत उजाले, लेकर आएंगी यादें,
बिखरे से, होंगे हम!
सूना सा आंगण,
धुंधली सी स्मृतियाँ, जोहे कौन भला!

छूट चले हैं सारे, वो कल के गलियारे,
विस्मृत करते, वो क्षण, वो दो पल, प्यारे-प्यारे,
सब कुछ है अब, कुछ धुंधला-धुंधला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 15 June 2019

एकांत पल

इक रव है, आदि से एकांत पलों के अंत तक!

यूँ लगा था, पहले पहल,
बड़े नीरव से हैं, वो एकांत पल,
दीर्घ श्वांस भरते होंगे, वो एकांत पल,
एकाकी रहती होंगी, वो हरपल,
सिमटे से, होंगे वो पल!
छाई होगी नीरवता, अनमना सा होगा हर पल!

यही सोच, सदियों तक,
पहुँचा था मैं, एकांत पलों तक,
ले अंकपाश, बेतहासा चूमती भाल,
कंठ लिए रव, चहक उठे पल,
जागृत थे, वो हर पल!
थी उनमें स्थिरता, धैर्य भरा था उनमें हर पल!

कलरव हैं, उनके अन्तः,
गुंजित हो उठते हैं, पल स्वतः,
मृदुल से वो पल, मुखर हैं अन्ततः,
रव उनमें, आदि से अन्त तक,
शान्त से, एकांत पल!
रव की मधुरता, आकंठ लिए थे एकांत पल!

इक रव है, आदि से एकांत पलों के अंत तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 9 February 2019

एकाकी

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

कचोटते हैं गम, ग़ैरों के भी मुझको,
मायूस हो उठता हूँ, उस पल मैं,
टपकते हैं जब, गैरों की आँखों से आँसू,
व्यथित होता हूँ, सुन-कर व्यथा!

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

किसी की, नीरवता से घबराता हूँ,
पलायन, बरबस कर जाता हूँ,
सहभागी उस पल, मैं ना बन पाता हूँ,
ना सुन पाता हूँ, थोड़ी भी व्यथा!

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

क्यूँ बांध रहे, मुझसे मन के ये बंधन,
गम ही देते जाएंगे, ये हर क्षण,
गम इक और, न ले पाऊँगा अपने सर,
ना सह पाऊँगा, ये गम सर्वथा !

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

एकाकी खुश हूँ मैं, एकाकी ही भला,
जीवन पथ पर, एकाकी मैं चला,
दुःख के प्रहार से, एकाकी ही संभला,
बांधो ना मुझको, खुद से यहाँ!

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 28 August 2018

कब हो सवेरा

ऐ नई सुबह! ऐ सूरज की नई किरण!
इक नई उमंग, इक नया सवेरा तुम कब लाओगे?

मुख मोड़ लिया, जिसने जीवन से,
बस एकाकी जीते हैं जो, युगों-युगों से,
बंधन जोड़ कर उन अंधियारों से,
रिश्ता तोड़ दिया जिसने उजियारों से,
कांतिविहीन हुए बूढ़े बरगद से,
यौवन का श्रृंगार, क्या उनको भी दे जाओगे?

रोज नया दिन लेकर आते हो,
फूलों-कलियों में रंग चटक भर लाते हो,
कोमल पात पर झूम-झूम जाते हो,
विहग के कंठों में गीत बनकर गाते हो,
कहीं लहरों पर मचल जाते हो,
नया उन्माद, क्या मृत मन में भी भर पाओगे?

युगों-युगों से हैं जो एकाकी,
पर्वत-पर्वत भटके हैं बनकर वनवासी,
छाई है जिन पर घनघोर उदासी,
मिलता गर उनको भी थोड़ी सी तरुणाई,
खिलती उनमें कोमल सी अमराई,
यह उपहार, क्या एकाकी मन को दे पाओगे?

ऐ नई सुबह! ऐ नई सी किरण!
साध सको तो इक संकल्‍प साध लो,
कभी सिमटते जीवन में खो लेना,
कहीं विरह में तुम संग रो लेना,
कहीं व्यथित ह्रदय में तुम अकुलाना,
वेदना अपार, क्या सदियों तक झेल पाओगे?

ऐ नई सुबह! ऐ सूरज की नई किरण!
इक नई उमंग, इक नया सवेरा तुम कब लाओगे?

Saturday, 4 August 2018

वो तारे

गगन के पाश में,
गहराते रात के अंक-पाश में,
अंजाने से किस प्यास में,
एकाकी हैं वो तारे!

गहरे आकाश में,
उन चमकीले तारों के पास में,
शायद मेरी ही आस में,
रहते हैं वो तारे!

अंधेरों से मिल के,
सुबह के उजियारों से बच के,
या शायद एकांत रह के,
खिलते हैं वो तारे!

टिम टिम वो जले,
तिल-तिल फिर जल-जल मरे,
हर पल यूं ही टिमटिमाते,
जलते हैं वो तारे!

क्यूं तन्हा है जीवन?
वृहद आकाश क्यूं है निर्जन?
अनुत्तरित से कई प्रश्न,
करते हैं वो तारे!

ना ही कोई सखा,
ना ही फल जीवन का चखा,
इसी तड़प में शायद,
मरते हैं वो तारे!

जलकर भुक-भुक,
ज्यूं, कुछ कहता हो रुक-रुक,
शायद मेरी ही चाह में,
उगते हैं वो तारे!